जब तक एफआईआर की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती, तब तक जिसके खिलाफ एफआईआर दर्ज होना है वह आवेदन डालकर 156(3) के तहत हस्तक्षेप नहीं कर सकता [निर्णय पढ़ें]

Update: 2018-01-31 16:16 GMT

बॉम्बे हाई कोर्ट ने हाल ही में एक मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए उस आदेश को खारिज कर दिया जिसमें उसने एक आरोपी को हस्तक्षेप आवेदन दायर करने की अनुमति दी थी। इस आवेदनकर्ता के खिलाफ एफआईआर दायर होने वाला था। कोर्ट ने कहा कि जब तक संबंधित व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती, तब तक सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत वह आवेदन डालकर हस्तक्षेप नहीं कर सकता।

लक्ष्मी मुकुल गुप्ता ने धारा 156(3) के तहत आवेदन दायर किया और मांग की कि आईपीसी की धारा 420, 354(b), 355, 382, 387, 467, 468, 450, 452, 506(II), 120 (b) r/w S.34 के तहत प्रतिवादियों के खिलाफ एफआईआर दायर किया जाए।

प्रतिवादियों ने 26 मई 2017 को एक आवेदन दायर किया और कहा कि 156(3) के तहत जो बातें कही गई हैं वह झूठी और मनगढ़ंत हैं।

न्यायमूर्ति अनुजा प्रभुदेसाई ने कहा कि मजिस्ट्रेट ने प्रतिवादी के वकील की दलील हाई कोर्ट द्वारा नितिन यशवंत पाटेकर बनाम मारिया लुइज़ा क्वाद्रोस 2016 मामले में दिए गए फैसले के आधार पर मान ली और उसको हस्तक्षेप की अनुमति दे दी।

हालांकि, कोर्ट ने मजिस्ट्रेट के विचारों से असहमति जताई और कहा -

नितिन यशवंत पाटेकर बनाम मारिया लुइज़ा क्वाद्रोस  मामले पर गौर करने से यह पता चलता है कि इस अदालत ने न तो सत्र न्यायाधीश के मत का समर्थन किया था और न ही उसने इस तरह की कोई बात कही थी। इसलिए विवादित फैसले में जो बयान दिया गया है कि ‘हाई कोर्ट का मत है कि 156(3) के तहत आवेदन पर विचारत करते हुए प्रतिवादी के पक्ष को सुनने से मनाही नहीं है’, वह गलत है।”

कोर्ट ने आगे कहा कि अगर किसी सूचना से किसी संज्ञेय अपराध का पता चलता है तो सीआरपीसी की धारा 154(1) के तहत एफआईआर दर्ज करना पुलिस अधिकारी का दायित्व है और मजिस्ट्रेट को यह अधिकार है कि वह इस संज्ञेय अपराध की जांच का आदेश दे।

कोर्ट ने कहा, “संज्ञान लेने के पूर्व मजिस्ट्रेट को सिर्फ निर्णय करना है कि आवेदन अपराध के संज्ञेय होने की बात को दर्शाता है और इसके खिलाफ उसे जांच का आदेश देना है। मजिस्ट्रेट को यह सघन जांच द्वारा पता लगाने की जरूरत नहीं है कि आरोप सही है या गलत है। इस तरह सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत मजिस्ट्रेट का अधिकार बहुत ही सीमित है.. धारा 156 (3) के दायरे और किसी वैधानिक प्रावधान के अभाव में संज्ञान लेने के पूर्व के स्तर पर प्रतिवादी को किसी तरह की सुनवाई का मौक़ा नहीं दिया जाना चाहिए था।”

इस तरह, हस्तक्षेप की अनुमति वाले 4 अगस्त 2017 के आदेश को कोर्ट ने निरस्त कर दिया।


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