ट्रायल कोर्ट में उपसाक्ष्य पेश करने के लिए अनुमति की अर्जी दाखिल करने की जरूरत नहीं : बॉम्बे हाईकोर्ट [निर्णय पढ़ें]

Update: 2017-11-07 13:57 GMT

बोंबे हाईकोर्ट ने कहा है कि ट्रायल कोर्ट के सामने सेकेंड्री एविडेंस यानी उपसाक्ष्यों को रखने के लिए इजाजत लेने की जरूरत नहीं है।

दरअसल जस्टिस जीएस पटेल एक याचिका पर सुनवाई कर रहे थे जिसमें ट्रायल कोर्ट के आदेश को चुनौती दी गई थी। ट्रायल कोर्ट में एविडेंस एक्ट के सेक्शन 65 के तहत अर्जी दाखिल कर लीज डीड को उपसाक्ष्य के तौर पर प्रस्तुत करने की इजाजत मांगी गई थी लेकिन कोर्ट ने अर्जी को आंशिक रूप से नामंजूर कर दिया था।

अपने दस पेज के आदेश में जस्टिस पटेल ने शुरुआत में कहा है, “ उन्हें बडा खेद है कि ट्रायल उपसाक्ष्यों के सवाल को लेकर पहले से तय कानून और बाध्यकारी नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं। ये कारण साफ नहीं हैं लेकिन लगता है कि उपसाक्ष्यों को लेकर कोर्ट द्वारा अनुमति के लिए अर्जी दाखिल करने को कहा जाता है। ये गलत है। “

जस्टिस पटेल ने इस मामले में जस्टिस एस जे वजीफदार द्वारा इंडियन ओवरसीज बैंक बनाम त्रिलोकल टैक्सटाइल इंडस्ट्रीज व अन्य मामले में बनाए कानून को माना है। इस मामले में चेंबर समन के लिए एक अर्जी मांगी गई थी। जस्टिस वजीफदार ने कहा था कि इस तरह की अर्जी ना केवल गैरजरूरी है बल्कि गलत है। ये पक्षकार के ऊपर है कि वो बिना अर्जी दाखिल किए ट्रायल कोर्ट के सामने उपसाक्ष्यों को रखे जो सबूत दर्ज कर रहा है या मामले की सुनवाई कर रहा है।

जस्टिस पटेल ने ये भी कहा कि अगल ऐसी अर्जी नामंजूर हो जाती है तो और मुश्किल होती है क्योंकि उन सबूतों पर फिर विचार नहीं किया जाता। उन्होंने कहा कि ऐसी अर्जियां जोकि उनकी नजर में गलत और मेनटेनेबल नहीं हैं, का नतीजा उनकी मंजूरी या नामंजूरी में ही निकलता है। अगर अर्जी पर अनुमति दी जाती है तो उपसाक्ष्यों को सामने रखा जाता है लेकिन ये अनुमति बिल्कुल गैरजरूरी है क्योंकि पक्षकार कभी भी बिना अनुमति के उपसाक्ष्यों को रख सकता है। लेकिन अगर अर्जी के नामंजूर कर दिया जाता है तो ये ज्यादा गंभीर है क्योंकि फिर उन सबूतों पर विचार नहीं किया जाता। ये ट्रायल चलाने का कोई तरीका नहीं है। इसका नतीजा ये हो सकता है कि जो दस्तावेज स्वीकार्य हो सकता है और उपसाक्ष्य के तौर पर साबित किया जा सकता है वो अर्जी पर आए एक आदेश के बाद छूट जाता है और वो आदेश गलत है और कानून में चिन्हित नहीं है। ये प्रक्रिया न्यायिक वक्त का नुकसान करती है और इससे कुछ हासिल नहीं होता।

कोर्ट ने ये भी कहा कि इस मामले में याचिकाकर्ता को पंजीकृत लीज डीड को उपसाक्ष्य के तौर पर पेश करने की इजाजत दी गई लेकिन गिफ्ट डीड को उपसाक्ष्य के तौर पर पेश करने की इजाजत नहीं दी गई।

जस्टिस पटेल ने कहा कि ट्रायल कोर्ट के आदेश को नहीं माना जा सकता क्योंकि उसने जिस प्रक्रिया को अपनाया जो कानून और अपराधशास्त्र में मान्य नहीं है और हाईकोर्ट के आदेशों के विपरीत है। ट्रायल कोर्ट के 30 अगस्त 2017 के आदेश को रद्द कर दिया गया और याचिकाकर्ता को सभी उपसाक्ष्य प्रस्तुत करने की छूट दे दी गई।


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