अंतरराष्ट्रीय ’बोलने की आजादी’ जस्टिस कर्णन के बोलने की आजादी पर प्रतिबंध के आदेश के आयाम
सुप्रीम कोर्ट ने अपने नौ मई 2017 के आदेश के तहत जस्टिस कर्णन को सजा दी थी। इस आदेश में कहा गया था कि अवमानना के मामले में पब्लिक स्टेटमेंट व दोषी द्वारा दिए गए आदेशों का प्रकाशन भी शामिल है,जिनको इलैक्ट्रानिक व प्रिंट ने प्रसारित व प्रकाशित किया है। इसलिए अब दोषी द्वारा आगे से दिए गए किसी भी बयान को न छापा जाए। आदेश का यह हिस्सा सिर्फ निराला व अनोखा ही नहीं है बल्कि बोलने की आजादी का खतरनाक तरीके से अपमान करने वाला है। मैं कहना चाहती हूं कि इस तरह प्रकाशन पर लगाई रोक से बोलने व विचारों की अभिव्यक्ति पर तीन आयामी प्रभाव पड़ा है। पहला जस्टिस कर्णन पर,दूसरा प्रेस पर व तीसरा आम पब्लिक पर।
सबसे महत्वपूर्ण व पहला प्रभाव जस्टिस कर्णन पर पड़ा है,जिससे उनको संविधान के तहत मिले अधिकार ’बोलने की आजादी’ का उल्लंघन हुआ है। हर व्यक्ति को इस अधिकार का हर पहलू से प्रयोग करने की आजादी है,चाहे वह मनोहर कविता लिखने का मामला हो या कोई अलोचनात्मक लेख प्रकाशित करने का।
किसी उदारवादी लोकतंत्र के संविधान के तहत यह अनुमति नहीं दी जा सकती है कि वह किसी दोषी या निर्दोष को मिले बोलने के अधिकार में अंतर करेगा।अगर अनुच्छेद 14,19 व 21 को एक साथ पढ़े तो भारत न्यायशास्त्र में एक गोल्डन ट्राइंगल बनता है,जो साफ तौर पर इस तरह के अंतर करने पर रोक लगाता है।
कर्णन के बोलने की आजादी पर प्रतिबंध लगाने वाला यह इस आदेश स्वंय की अभिव्यक्ति को डरा देने के समान है,जो कि बोलने की आजादी के अधिकार का मूल है। प्रोकुनियर बनाम मार्टिनेज(1974) मामले में यूनाईटेड स्टेट की सुप्रीम कोर्ट ने उस सेंसरशिप रेगुलेशन पर विचार किया था जो स्टेट डिपार्टमेंट आॅफ करेक्शन ने जारी किया था। इसके मामले के तहत कैदियों की मेल पर लगाई गई इस सेंसरशिप की कानूनी वैधता पर विचार किया गया था।
इस आदेश में कहा गया था कि जब जेल के गेट के अंदर कोई कैदी आता है तो वह अपनी मानवीय गुणवत्ता को खोता नहीं है।न ही उसका दिमाग सोचना बंद कर देता है। न ही उसकी बुद्धि विचारों के आदान-प्रदान को बंद कर देती है। न ही उसके आत्मसम्मान पाने की इच्छा खत्म हो जाती है। न ही उसके आत्मबोध की तलाश खत्म हो जाती है। अगर कुछ जरूरी है जो जेल के वातावरण में पहचान व आत्मसम्मान को बनाए रखने की जरूरत है। हेनरी ने जेल में लिखी अपनी शार्ट स्टोरी में लिखा था या एक भयभीत यंग कैदी ने अपने परिवार को लिखा था कि कि एक कैदी को एक ऐसे माध्यम की जरूरत होती है,जिसके तहत वह अपने विचार प्रकट कर सके। यह पहले संशोधन की भूमिका है और कोर्ट को इस तरह के अनमोल व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करनी है ताकि हम मानवीय आत्मा की मूल इच्छा को संतुष्ट किया जा सके। जस्टिस कर्णन भी कोई अपवाद नहीं है।
दूसरा इस आदेश के तहत प्रेस की आजादी पर वह भार ड़ाल दिया गया है,जिसकी अनुमति नहीं दी जा सकती है। इसके तहत उन सभी प्रकाशन पर रोक लगा दी गई है,जो जस्टिस कर्णन द्वारा कोई बयान देने के बाद प्रकाशित किए जाने थे। इस तरह पहले से लगाई गई रोक को प्रतिबंध लगाना ही माना जाएगा। जो आमतौर पर सरकार द्वारा लगाई जाती है। यह एक तरह से किसी भी सामग्री के प्रकाशन से पहले लगाई गई प्री-सेंसरशिप है। इस तरह की रोक से किसी विचार के जन्म लेने से पहले ही उसे खत्म करने जैसा है। नीअर बनाम मिन्नेसोटा नामक मामले में वर्ष 1931 में यूनाईटेड स्टेट की सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पहले से लगाई गई कोई भी रोक आमतौर पर असंवैधानिक होती है। इस आदेश में कहा गया था कि हर आजाद इंसान को यह अधिकार है कि वह अपनी भावनाएं पब्लिक के समक्ष रख सके। इसे रोकना प्रेस की आजादी को नष्ट करने के समान है।
इन निर्देशों ने आम लोगों के विचारों की आजादी पर भी ठंडा प्रभाव ड़ाला है क्योंकि अब वह अपने विचार प्रकट करने में हिचकेंगे। इससे आमतौर पर न्यायिक सिस्टम व फैसलों के खिलाफ कोई भी बयान,टिप्पणी या आलोचना करने से बचेगा। यह विचारों व अवधाराओं के स्वतंत्र आदान-प्रदान को भी सीमित करेगा। जैसा की सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2015 में श्रेया सिंघल बनाम यूनियन आॅफ इंडिया में याद दिलाया था कि लोगों को स्ंवय-सेंसर लगाने के लिए के फोर्स करे। इस आदेश में कहा गया था कि एक विशेष विषय पर लोगों के सभी परिचर्चा पर तुरंत रोक लगा दी जाए।
तीसरा इस बोलने पर लगे प्रतिबंध के आदेश के कारण आम जनता के जानने,सुनने व जवाब देने की आजादी भी प्रभावित हुई है। किसी पब्लिक डिबेट के लिए उनका पूरी तरह जानना जरूरी है। बोलने की आजादी के अधिकार का जो मौलिक भाव है,सुप्रीम कोर्ट के अनुसार सूचना का अधिकार उसी के जैसा हैै(इसके लिए स्टेट आॅफ यूपी बनाम राज नारायण,1975 केस देखे)। बोलने की आजादी का अधिकार प्रापक या प्राप्तकर्ता के जानने के अधिकार की भी रक्षा करता है। विर्जिनिया फार्मेसी बोर्ड बनाम विर्जिनिया सिटिजन कंज्यूमर काउंसिल (1976) के मामले में सुप्रीम कोर्ट यूएस ने माना था कि राईट टू फ्री स्पीच का विस्तार संचार,उसके स्रोत व प्राप्तकर्ता तक है।
कानराॅडो हुबनर मेंडेस ने अपनी किताब ’कांस्टिटूशनल कोर्ट एंड डेलिब्रेटिव डेमोक्रेसी’ में डेलिब्रेटिव अजूडकैशन की थ्योरी का उल्लेख किया था। उसने दलील दी थी कि कांस्टिटूशनल अजूडकैशन(संवैधानिक न्याय निर्णय) कोर्ट की दलीलों और विचारक लोकतंत्र को संपन्न बनाता है। वही थ्योरटिकल टर्म में भी इसका जिक्र करते हुए कहा कि जब संवैधानिक कोर्ट किसी केस का निर्णय करती है तो इसका राजनीतिक विमर्श पर एक सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यह एक उत्सुकता की बात है कि जस्टिस कर्णन मामले में दिया गया फैसला न सिर्फ आधारभूत टेस्ट में फेल हुआ है बल्कि विचारक लोकतंत्र की योजना के मूल को भी डिस्टर्ब किया है।
थुलासी के राज,केरला हाईकोर्ट की वकील है और यूनिवर्सिटी कालेज लंदन की पूर्व छात्रा है।ई-मेल-थुलासीकेराज.आईएलएस एट दाॅ रेट जीमेल डाॅट काम
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