डिफॉल्ट बेल याचिका और चार्जशीट दाखिल करने के लिए समय बढ़ाने का आवेदन एक ही दिन में दाखिल किया जाता है तो कौन-सा मान्य होगा? सुप्रीम कोर्ट करेगा विचार
Shahadat
22 Aug 2024 11:10 AM IST
सुप्रीम कोर्ट ने कानून के इस सवाल पर विचार करने पर सहमति जताई कि क्या दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 167(2) के तहत दायर डिफॉल्ट बेल गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (UAPA Act) की धारा 43डी(2) के तहत चार्जशीट दाखिल करने के लिए समय बढ़ाने के आवेदन पर वरीयता ले सकती है, अगर दोनों एक ही दिन दायर किए जाते हैं।
संक्षिप्त तथ्यों के अनुसार, आरोपी पर UAPA, भारतीय दंड संहिता और शस्त्र अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों के तहत आरोप लगाए गए। उसे नवंबर 2022 में गिरफ्तार किया गया। हालांकि, राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) UAPA की धारा 43डी(2) में निर्धारित 90 दिनों की अवधि के भीतर जांच पूरी करने में विफल रही।
उल्लेखनीय है कि कि धारा 167 CrPC संशोधनों के साथ धारा 43डी(2) UAPA पर लागू होती है।
इस बीच ट्रायल कोर्ट ने NIA के मौखिक अनुरोध पर आरोपी की हिरासत बढ़ा दी। जब मामला अदालत के समक्ष आया तो आरोपी व्यक्ति ने डिफ़ॉल्ट जमानत के अपने अधिकार का प्रयोग नहीं किया।
इसके बाद, NIA ने धारा 43डी(2)(बी) के तहत विस्तार के लिए आवेदन दायर किया, आरोपी ने उसी दिन दोपहर में डिफ़ॉल्ट जमानत के लिए आवेदन दायर किया। ट्रायल कोर्ट ने दोनों आवेदनों पर एक साथ फैसला सुनाया और आरोपी व्यक्ति के आवेदन को खारिज करते हुए NIA के आवेदन को अनुमति दी।
आरोपी ने कर्नाटक हाईकोर्ट के समक्ष आदेश को चुनौती दी, जिसमें तर्क दिया गया कि ट्रायल कोर्ट को उसे जमानत के लिए आवेदन करने के उसके अधिकार के बारे में सूचित करना चाहिए था। हालांकि, हाईकोर्ट ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि ट्रायल कोर्ट ने पाया कि NIA के पास 90 दिनों के भीतर आरोपपत्र दाखिल न कर पाने के वैध कारण थे।
हाईकोर्ट ने कहा कि जांच एजेंसी द्वारा आरोप पत्र दाखिल करने या अवधि विस्तार की मांग करने से पहले धारा 167(2) CrPC के तहत अधिकार का प्रयोग किया जाना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि डिफ़ॉल्ट जमानत के लिए आवेदन को अनुमति देने के लिए उसे समय विस्तार के लिए आवेदन को अस्वीकार करना होगा।
न्यायालय ने आगे बताया कि धारा 167 CrPC में हिरासत अवधि विस्तार की मांग करने के लिए मौखिक अनुरोध करने पर कोई रोक नहीं है।
इसने कहा:
"यदि अभियुक्त आरोप पत्र दाखिल करने के लिए निर्धारित अवधि की समाप्ति के बाद जमानत पर रिहा होने के अपने अधिकार का उपयोग नहीं करता है तो जाहिर है कि न्यायालय को हिरासत अवधि बढ़ानी होगी। अभियुक्त को अधर में नहीं छोड़ा जा सकता। विस्तार के लिए मौखिक अनुरोध की भी अनुमति है।"
हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है।
जस्टिस एम.एम. सुंदरेश और जस्टिस अरविंद कुमार की खंडपीठ के समक्ष अभियुक्त के वकील एडवोकेट तल्हा अब्दुल रहमान ने शुरू में कहा कि डिफ़ॉल्ट जमानत के मुद्दे के अलावा, न्यायालय को यह भी विचार करना होगा कि विस्तार के लिए मौखिक अनुरोध किया जा सकता है या नहीं।
रहमान ने अदालत को बताया कि धारा 43डी के तहत विधायी मंशा के अनुसार विस्तार की मांग करने के लिए रिपोर्ट होना आवश्यक है।
उन्होंने कहा:
"इस मामले में मौखिक अनुरोध या लिखित आवेदन भी रिपोर्ट की आवश्यकता का विकल्प नहीं हो सकता। यह विधायी आवश्यकता है।"
जस्टिस अरविंद ने पूछा कि क्या उन्होंने विस्तार के लिए NIA द्वारा किए गए मौखिक अनुरोध का विरोध किया था।
एडवोकेट रहमान ने कहा:
"मैंने हाईकोर्ट का रुख किया था। ट्रायल कोर्ट के समक्ष मेरे पास कोई वकील नहीं था। फिर मैंने एक नया वकील नियुक्त किया। लेकिन ये ऐसी परिस्थितियां हैं, जिनमें अभियुक्त को रखा गया, जहां न्यायालय का कर्तव्य अभियुक्त को उसके बहुमूल्य अधिकार के बारे में सूचित करना है, जो इस मामले में कानून की स्थिति तय होने के बावजूद कहीं नहीं था।"
उन्होंने राकेश कुमार पॉल बनाम असम राज्य (2017) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें न्यायालय ने कहा था:
"इस न्यायालय और अन्य संवैधानिक न्यायालयों ने भी यह माना कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और दंड विधानों से संबंधित मामलों में अभियुक्त को यह सूचित करना न्यायालय का दायित्व है कि वह अधिकार के रूप में निःशुल्क कानूनी सहायता पाने का हकदार है।"
केस टाइटल: मोहम्मद जाबिर बनाम राष्ट्रीय जांच एजेंसी, डायरी नंबर 34469-2024