अपराध के पीड़ित CrPC की धारा 372 के तहत बरी किए जाने के खिलाफ अपील दायर कर सकते हैं, भले ही वे शिकायतकर्ता न हों: सुप्रीम कोर्ट
Shahadat
6 Jun 2025 5:35 AM

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि किसी अपराध के "पीड़ित" को दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 372 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 413 के अनुरूप) के प्रावधान के अनुसार आरोपी को बरी किए जाने के खिलाफ अपील दायर करने का अधिकार है, भले ही वे शिकायतकर्ता हों या नहीं।
दूसरे शब्दों में, भले ही पीड़ितों ने खुद शिकायत दर्ज न की हो वे CrPC की धारा 372 के प्रावधान का हवाला देकर आरोपी को बरी किए जाने के खिलाफ अपील कर सकते हैं।
जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने कहा:
"CrPC की धारा 372 के प्रावधान को 31.12.2009 से ही विधि-पुस्तक में शामिल किया गया। इस प्रावधान को शामिल करने का उद्देश्य और कारण न्यायालय द्वारा समझा जाना चाहिए और उसे पूर्ण रूप से लागू किया जाना चाहिए। उपर्युक्त चर्चा के मद्देनजर, हम मानते हैं कि किसी अपराध के पीड़ित को CrPC की धारा 372 के प्रावधान के तहत अपील करने का अधिकार है, चाहे वह शिकायतकर्ता हो या न हो। यहां तक कि अगर किसी अपराध का पीड़ित शिकायतकर्ता है तो भी वह CrPC की धारा 372 के प्रावधान के तहत आगे बढ़ सकता है। उसे CrPC की धारा 378 की उप-धारा (4) का उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है।"
खंडपीठ ने यह महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि परक्राम्य लिखत अधिनियम (NI Act) की धारा 138 के तहत चेक अनादर मामले में शिकायतकर्ता CrPC की धारा 2(डब्ल्यूए) (BNSS की धारा 2(वाई) के अनुरूप) के अर्थ में एक "पीड़ित" है, जो CrPC की धारा 372 के प्रावधान के अनुसार अभियुक्त को बरी किए जाने के खिलाफ अपील दायर कर सकता है।
न्यायालय ने कहा कि "पीड़ित" की परिभाषा व्यापक रूप से दी गई और CrPC की धारा 372 पीड़ितों को बिना किसी शर्त के अपील दायर करने का पूर्ण अधिकार देती है।
खंडपीठ ने अपने निष्कर्षों के कारणों को इस प्रकार समझाया:
सबसे पहले, किसी अपराध के पीड़ित को अपील करने का पूर्ण अधिकार होना चाहिए, जिसे किसी भी पूर्व शर्त द्वारा सीमित नहीं किया जा सकता है। वर्तमान मामले में अधिनियम की धारा 138 के तहत पीड़ित यानी चेक का आदाता या धारक वह व्यक्ति है जिसने उस व्यक्ति द्वारा किए गए अपराध के प्रभाव को झेला है, जिस पर अपराध का आरोप है, अर्थात, आरोपी, जिसका चेक अनादरित किया गया।
दूसरा, अपराध के पीड़ित के अधिकार को उस आरोपी के अधिकार के बराबर रखा जाना चाहिए, जिसे दोषसिद्धि का सामना करना पड़ा है, जो अधिकार के तौर पर CrPC की धारा 374 के तहत अपील कर सकता है। किसी अपराध के लिए दोषी ठहराए गए व्यक्ति को अधिकार के तौर पर CrPC की धारा 374 के तहत अपील करने का अधिकार है। उस पर कोई शर्त नहीं लगाई जाती। इसी तरह, अपराध का शिकार, चाहे अपराध की प्रकृति कुछ भी हो, बिना किसी शर्त के अपील करने का अधिकार होना चाहिए।
तीसरा, इसी कारण से संसद ने अपराध के पीड़ित द्वारा पूरी की जाने वाली किसी भी पूर्व शर्त को अनिवार्य किए बिना CrPC की उप-धारा 372 में प्रावधान को सम्मिलित करना उचित समझा, जिसमें मृतक पीड़ित के कानूनी प्रतिनिधि भी शामिल हैं, जो अपील कर सकते हैं। इसके विपरीत, दोषमुक्ति के आदेश के विरुद्ध, राज्य, लोक अभियोजक के माध्यम से अपील कर सकता है, भले ही शिकायतकर्ता ऐसी अपील न करे। हालांकि ऐसी अपील न्यायालय की अनुमति से ही होती है। हालांकि, राज्य या शिकायतकर्ता के लिए हमेशा अपील करना आवश्यक नहीं होता। लेकिन जब पीड़ित के अपील करने के अधिकार की बात आती है तो CrPC की धारा 378(4) के तहत हाईकोर्ट से अपील करने के लिए विशेष अनुमति मांगने पर जोर देना, CrPC की धारा 372 में प्रावधान को सम्मिलित करके संसद द्वारा जो इरादा किया गया, उसके विपरीत होगा।
चौथा, संसद ने धारा 378 में संशोधन नहीं किया ताकि पीड़ित के अपील करने के अधिकार को सीमित किया जा सके, जैसा कि उसने शिकायतकर्ता या राज्य द्वारा अपील दायर करने के मामले में किया। दूसरी ओर, संसद ने CrPC की धारा 372 में प्रावधान डाला है ताकि किसी अपराध के पीड़ित को शिकायतकर्ता की तुलना में उसमें उल्लिखित आधारों पर अपील करने का बेहतर अधिकार प्रदान किया जा सके।
पांचवां, अधिनियम की NI Act की धारा 138 के तहत अपराध के संबंध में राज्य की भागीदारी इसकी अनुपस्थिति से स्पष्ट है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उस प्रावधान के तहत दायर की गई शिकायत CrPC की धारा 200 के अनुसार निजी शिकायत की प्रकृति की होती है और अधिनियम की धारा 143 एक स्पष्ट इरादे से आपराधिक अपराध के रूप में विचार किए गए ऐसे अपराध के मामले में CrPC के प्रावधानों को शामिल करती है। इसलिए शिकायतकर्ता, जो चेक अनादर का शिकार है, उसको CrPC की धारा 2(डब्ल्यूए) के तहत पीड़ित की परिभाषा के साथ धारा 372 के प्रावधान के अनुसार पीड़ित माना जाना चाहिए।
Case : M/s Celestium Financial v A Gnanasekaran