BREAKING| S.138 NI Act - ₹20,000 से अधिक के नकद लोन पर भी चेक बाउंस का मामला सुनवाई योग्य: सुप्रीम कोर्ट
Shahadat
25 Sept 2025 8:00 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (25 सितंबर) को केरल हाईकोर्ट का फैसला खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया कि आयकर अधिनियम, 1961 (IT Act) का उल्लंघन करते हुए बीस हज़ार रुपये से अधिक के नकद लेनदेन से उत्पन्न ऋण को परक्राम्य लिखत अधिनियम (NI Act) की धारा 138 के तहत "कानूनी रूप से प्रवर्तनीय ऋण" नहीं माना जा सकता।
जस्टिस मनमोहन और जस्टिस एनवी अंजारिया की खंडपीठ ने बॉम्बे हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ अपील पर फैसला सुनाते हुए कहा कि पी.सी. हरि बनाम शाइन वर्गीस एवं अन्य मामले में 25 जून, 2025 को दिया गया केरल हाईकोर्ट का हालिया फैसला गलत है।
उल्लेखनीय है कि खंडपीठ केरल हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील पर फैसला नहीं कर रही थी। केरल हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर विशेष अनुमति याचिका, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने पिछले सप्ताह नोटिस जारी किया था, लंबित है।
वर्तमान पीठ ने कहा कि IT, 1961 की धारा 269SS का उल्लंघन ₹20,000 से अधिक के नकद लेनदेन को प्रतिबंधित करता है। ऐसे लेनदेन को अवैध, अमान्य या अप्रवर्तनीय नहीं बनाता है। खंडपीठ ने कहा कि धारा 269SS का उल्लंघन केवल धारा 271D के तहत निर्धारित वैधानिक दंड को आकर्षित करता है। यह NI Act, 1881 की धारा 138 के तहत कार्यवाही के उद्देश्य से किसी लोन को अमान्य नहीं कर सकता है। यह मानते हुए कि NI Act की धारा 118 और 139 के तहत अनुमान अप्रभावित रहते हैं, न्यायालय ने पी.सी. हरि मामले में लिए गए इस दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया कि ₹20,000 से अधिक के नकद लेनदेन अमान्य हैं और "कानूनी रूप से प्रवर्तनीय ऋण" के रूप में योग्य नहीं हैं।
हाईकोर्ट का मत दरकिनार करते हुए जस्टिस मनमोहन द्वारा लिखित निर्णय में कहा गया:
"हाल ही में, केरल हाईकोर्ट ने पी.सी. हरि बनाम शाइन वर्गीस एवं अन्य, 2025 एससीसी ऑनलाइन केआर 5535 मामले में यह विचार व्यक्त किया कि IT Act, 1961 की धारा 269SS के प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए 20,000/- रुपये (बीस हज़ार रुपये) से अधिक के नकद लेनदेन से उत्पन्न लोन 'कानूनी रूप से प्रवर्तनीय ऋण' नहीं है, जब तक कि इसके लिए कोई वैध स्पष्टीकरण न हो। इसका अर्थ यह है कि अधिनियम की धारा 139 के तहत अनुमान 20,000/- रुपये (बीस हज़ार रुपये) से अधिक के नकद लेनदेन पर लागू नहीं होगा।"
आगे कहा गया,
"हालांकि, इस कोर्ट का विचार है कि IT, 1961 की धारा 269SS का कोई भी उल्लंघन केवल IT Act, 1961 की धारा 139 और धारा 271डी के तहत दंड के अधीन है। इसके अलावा, न तो धारा 269SS और न ही IT Act, 1961 की धारा 271डी में कहा गया कि इसके उल्लंघन में कोई भी लेनदेन अवैध, अमान्य या वैधानिक रूप से शून्य होगा। इसलिए धारा 269SS का कोई भी उल्लंघन लेनदेन को NI Act की धारा 138 के तहत लागू नहीं करने योग्य नहीं बनाएगा या NI Act की धारा 118 और 139 के तहत अनुमानों का खंडन नहीं करेगा, क्योंकि ऐसा व्यक्ति उसे उचित समय में आदाता/धारक मानते हुए केवल निर्धारित दंड के रूप में ही उत्तरदायी है। नतीजतन, यह विचार कि 20,000/- रुपये (बीस हजार रुपये) से अधिक का कोई भी लेनदेन अवैध और शून्य है। इसलिए 'कानूनी रूप से लागू करने योग्य लोन' की परिभाषा में नहीं आता है, उसको स्वीकार नहीं किया जा सकता है। हरि (सुप्रा) को निरस्त किया जाता है।"
खंडपीठ NI Act एक्ट की धारा 138 के तहत मामले में चेक जारीकर्ता को बरी किए जाने के खिलाफ अपील पर फैसला सुना रही थी। 6,00,000 रुपये की राशि का चेक जारी किया गया और चेक जारीकर्ता को ट्रायल कोर्ट और सेशन कोर्ट द्वारा एक साथ दोषी ठहराया गया।
NI Act की धारा 118 और 139 के तहत मान्यताओं को प्रभावी न करने का कुछ न्यायालयों का दृष्टिकोण संसद के अधिदेश के विपरीत है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में इस बात पर भी चिंता व्यक्त की कि कई अदालत NI Act की धारा 118 और धारा 139 के अंतर्गत उपधारणाओं को लागू नहीं कर रहे हैं।
आगे कहा गया,
"यह न्यायालय इस तथ्य का भी न्यायिक संज्ञान लेता है कि कुछ जिला कोर्ट और कुछ हाईकोर्ट NI Act की धारा 118 और 139 में निहित उपधारणाओं को लागू नहीं कर रहे हैं। NI Act के तहत कार्यवाही को एक अन्य दीवानी वसूली कार्यवाही के रूप में मान रहे हैं और शिकायतकर्ता को पूर्ववर्ती ऋण या देयता साबित करने का निर्देश दे रहे हैं। इस अदालत का विचार है कि ऐसा दृष्टिकोण न केवल मुकदमे को लम्बा खींच रहा है, बल्कि संसद के आदेश के भी विपरीत है, अर्थात्, चेक जारीकर्ता और बैंक को चेक का सम्मान करना होगा, अन्यथा चेकों में विश्वास को अपूरणीय क्षति होगी।"
मामले के गुण-दोष पर विचार करते हुए न्यायालय ने कहा कि अभियुक्त ने मांग नोटिस का उत्तर नहीं दिया, जिससे प्रतिकूल निष्कर्ष निकलेगा। अधिनियम की धारा 139 के अंतर्गत उपधारणा का खंडन करने के लिए कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया। अभियुक्त का यह तर्क कि खाली हस्ताक्षरित चेक का दुरुपयोग किया गया, अविश्वसनीय पाया गया। अदालत ने हाईकोर्ट की भी आलोचना की कि उसने अपने पुनर्विचार अधिकार क्षेत्र के प्रयोग में ट्रायल कोर्ट के समवर्ती निष्कर्षों में हस्तक्षेप किया।
तदनुसार, अपील स्वीकार कर ली गई।
अदालत ने चेक बाउंस के लंबित मामलों को कम करने के लिए ट्रायल को विस्तृत दिशानिर्देश भी जारी किए।
Case : SANJABIJ TARI v. KISHORE S. BORCAR & ANR

