S. 156(3) CrPC| शिकायतकर्ता ने धारा 154(3) के तहत उपाय नहीं अपनाने पर मजिस्ट्रेट द्वारा FIR दर्ज करने का आदेश अमान्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट
Shahadat
26 July 2025 1:51 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (25 जुलाई) को CrPC की धारा 156(3) के तहत पुलिस जांच का निर्देश देने वाला मजिस्ट्रेट का आदेश रद्द करने से इनकार कर दिया, क्योंकि शिकायतकर्ता ने धारा 154(3) के तहत वैकल्पिक उपाय नहीं अपनाए थे।
न्यायालय ने कहा कि पुलिस जाँच का निर्देश देने वाला मजिस्ट्रेट का आदेश अनियमित हो सकता है, लेकिन अगर शिकायत में संज्ञेय अपराध का खुलासा होता है। मजिस्ट्रेट ने जांच का आदेश देने से पहले अपने विवेक का इस्तेमाल किया है तो उसे अवैध नहीं कहा जा सकता। इसलिए आदेश में कोई त्रुटि नहीं है।
न्यायालय ने कहा,
"संक्षेप में मजिस्ट्रेट को सामान्यतः CrPC की धारा 156(3) के तहत किसी आवेदन पर सीधे विचार नहीं करना चाहिए, जब तक कि सूचक ने CrPC की धारा 154(3) के तहत दिए गए अपने उपायों का लाभ उठाकर उनका उपयोग न कर लिया हो। लेकिन चूंकि मजिस्ट्रेट CrPC की धारा 156(3) के तहत FIR दर्ज करने का निर्देश देने के लिए सक्षम है, यदि आवेदन/शिकायत में लगाए गए आरोपों से संज्ञेय अपराध का खुलासा होता है, इसलिए हमारा मानना है कि मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश क्षेत्राधिकार से बाहर नहीं होगा और इस आधार पर अमान्य नहीं होगा।"
जस्टिस पंकज मिथल और जस्टिस एसवीएन भट्टी की खंडपीठ ने उस मामले की सुनवाई की, जिसमें अपीलकर्ता-आरोपी, जो वीएलएस फाइनेंस लिमिटेड कंपनी के निदेशक और सीनियर अधिकारी हैं, दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले से व्यथित थे, जिसमें मजिस्ट्रेट द्वारा CrPC की धारा 156(3) के तहत पुलिस जांच के निर्देश देने के आदेश के खिलाफ उनकी याचिका खारिज कर दी गई, जबकि शिकायतकर्ता ने धारा 154(3) के तहत वैकल्पिक उपायों का उपयोग नहीं किया था।
अपीलकर्ताओं ने मजिस्ट्रेट के आदेश को इस आधार पर चुनौती दी कि शिकायतकर्ताओं ने मजिस्ट्रेट के पास जाने से पहले वैकल्पिक उपायों का लाभ नहीं उठाया था।
हाईकोर्ट के निर्णय में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए जस्टिस मित्तल द्वारा लिखित निर्णय में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि पीड़ित व्यक्ति को न्यायालय जाने से पहले कानून में उपलब्ध वैकल्पिक उपायों का उपयोग करना चाहिए, लेकिन इस प्रक्रियात्मक अनियमितता को CrPC की धारा 156(3) के तहत जाँच का आदेश देने के मजिस्ट्रेट के अधिकार पर हावी नहीं होना चाहिए, जब एक संज्ञेय मामला बनता है और जांच का आदेश विवेक के आधार पर पारित किया जाता है।
अदालत ने कहा,
"मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए चूंकि सूचक ने अपने वैधानिक उपायों का उपयोग किए बिना सीधे CrPC की धारा 156(3) के तहत मजिस्ट्रेट से संपर्क किया, मजिस्ट्रेट उक्त आवेदन पर कार्रवाई करने से बच सकते थे। FIR दर्ज करने का निर्देश देने से इनकार कर सकते थे। हालांकि, मजिस्ट्रेट द्वारा सीधे आवेदन पर विचार करना प्रक्रियात्मक अनियमितता मात्र है और चूंकि मजिस्ट्रेट को किसी भी परिस्थिति में ऐसा आदेश पारित करने का अधिकार है, इसलिए मजिस्ट्रेट की कार्रवाई अवैध या अधिकार क्षेत्र से बाहर नहीं हो सकती।"
अदालत ने आगे कहा,
"मजिस्ट्रेट ने 01.07.2005 के आदेश द्वारा केवल FIR दर्ज करने का निर्देश दिया ताकि आपराधिक कानून लागू हो सके, लेकिन उन्होंने CrPC की धारा 190 के तहत संज्ञान लेने के अपने अधिकार का प्रयोग नहीं किया है। ऐसी स्थिति में मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश, हालांकि अनियमित है, किसी भी पक्ष के लिए वीएलएस के लिए तो बिल्कुल भी प्रतिकूल नहीं है। इसलिए इस अदालत के लिए इस मामले में या मजिस्ट्रेट के 01.07.2005 के आदेश या हाईकोर्ट द्वारा पारित विवादित आदेश में हस्तक्षेप करना उचित नहीं है।"
तदनुसार, अपील खारिज कर दी गई।
Cause Title: ANURAG BHATNAGAR & ANR. VERSUS STATE (NCT OF DELHI) & ANR.

