जानिए सेशन ट्रायल का अर्थ और उसकी प्रक्रिया

Shadab Salim

12 July 2020 6:37 AM GMT

  • जानिए सेशन ट्रायल का अर्थ और उसकी प्रक्रिया

    जब भी किसी व्यक्ति को दंडित किया जाता है तब न्यायालयीन प्रक्रिया में विचारण करना होता है। बगैर विचारण के किसी भी अपराधी को दंडित नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा किया जाता है तो यह मानव अधिकारों एवं नैसर्गिक अधिकारों के विरुद्ध होगा। दंडित करने के लिए अभियुक्त पर विचारण करना होता है।

    दंड प्रक्रिया संहिता 1908 के अंतर्गत जो प्रक्रिया विधि अधिनियमित की गयी है उसके अनुसार किसी आपराधिक मामले में चार प्रकार के विचारण किए जा सकते है।

    1) सेशन ट्रायल (सत्र विचारण)

    2) मजिस्ट्रेट द्वारा वारंट मामलों का विचारण

    3) मजिस्ट्रेट द्वारा समन मामलों का विचारण

    4)

    यहां सभी प्रकार के विचारण अपराध की गंभीरता के अनुसार उपयोग में लाए जाते है। जिस प्रकार की गंभीरता का अपराध होता है, उस प्रकार का विचारण किया जाता है। यदि मामला विरल होता है तथा गंभीर प्रकृति का होता है तो ऐसे मामले में अनुभव रखने वाले न्यायाधीश के माध्यम से विचारण आवश्यक होता है। ऐसे गंभीर मामलों में सत्र विचारण का प्रावधान रखा गया है।

    दंड प्रक्रिया संहिता प्रथम अनुसूची में भारतीय दंड संहिता की धाराओं के अंतर्गत अपराधों का उल्लेख किया गया है। उल्लेख में विचारण किस न्यायालय द्वारा किया जाएगा इस बात का भी उल्लेख किया गया है।

    सामान्यतः इस प्रकार के मामले जो 2 वर्ष से अधिक कारावास के होते है तथा जिन अपराधों के अंदर मृत्युदंड तक दिया जा सकता है इस प्रकार के अपराधों में सत्र विचार करना होता है।

    सेशन ट्रायल के गंभीर मामलों में ही उपयोग में किया जाता है। छोटे मामले तथा ऐसे मामले जिनमें 2 साल तक का कारावास दिया जा सकता है इस प्रकार के मामलों को सत्र विचारण के माध्यम से नहीं निपटाया जाता है।

    इस लेख के माध्यम से सत्र विचारण के लिए एक प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया जा रहा है।

    सेशन ट्रायल-

    सेशन ट्रायल सत्र न्यायाधीश के द्वारा किया जाता है। सेशन न्यायालय किसी भी ऐसे अपराध का स्वयं सीधे संज्ञान नहीं करता है जो उसके जो द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की प्रथम सूची के अनुसार विचारणीय है। इस हेतु पहले कोई भी न्यायिक मजिस्ट्रेट ऐसे अपराध का संज्ञान करता है उसके पश्चात उसे विचारण हेतु सेशन न्यायालय को सुपुर्द कर देता है।

    लोक अभियोजक द्वारा विचारण का संचालन

    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 225 के अंतर्गत किसी भी सेशन कोर्ट के समक्ष विचारण लोक अभियोजक द्वारा किया जाएगा। इस धारा में वर्णित उपबंधों के अनुसार लोक अभियोजक से ऐसा व्यक्ति तात्पर्य है जिसे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 24 के अंतर्गत राज्य सरकार द्वारा अभियोजन चलाने हेतु लोक अभियोजक अर्थात सरकारी वकील नियुक्त किया है।

    निरंजन सिंह बनाम जेबी बिज़्जा के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिकथन किया है कि लोक अभियोजन का मुख्य कार्य है कि वह अन्वेषण के अधीन अपराध से संबंधित उपलब्ध सामग्री दस्तावेजों आदि का मूल्यांकन करके यह सुनिश्चित करे कि अपराधी के विरुद्ध आरोप गठित करने के समय आरोपित अपराध के सभी तत्वों का विद्यमान होना स्पष्ट प्रकट हो। लोक अभियोजक राज्य की ओर से अभियुक्त पर अभियोजन चलाता है।

    डिस्चार्ज (उन्मोचन)

    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 227 के अंतर्गत उन्मोचन का प्रावधान रखा गया है। उन्मोचन पर एक विस्तृत आलेख प्रकाशित किया जा चुका है। उन्मोचन संबंधी विस्तारपूर्वक जानकारी के लिए इसस लेख को पढ़ें

    विचारण प्रारंभ होने पर अभियोजन के मामले का कथन प्रारंभ होने पर 227 के अंतर्गत उन्मोचन को रखा गया है। यदि न्यायाधीश को अभियुक्त एवं अभियोजन की दलीलों की सुनवाई करने के बाद दस्तावेजों का साक्षियों का विश्लेषण कर लेने के बाद यह प्रतीत होता है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथमदृष्टया कोई अपराध नहीं बनता है तो वह अभियुक्त को धारा 227 के अंतर्गत उन्मोचन प्रदान कर देता है और ऐसा उन्मोचन करने के अपने कारणों को उल्लेखित कर देता है।

    आरोप विचरित किए जाना-

    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 228 के अंतर्गत यदि अभियुक्त के विरुद्ध साक्ष्य उपलब्ध है तथा उसे उन्मोचन नहीं दिया जाता है तो ऐसी परिस्थिति में अभियोजन पक्ष के कथन को सुनने पर अभियुक्त की दलीलों को सुनने के उपरांत न्यायाधीश द्वारा आरोप विचरित किए जाते है। यह आरोप दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 228 के अंतर्गत विचरित किए जाते है।

    इस धारा के अंतर्गत यदि न्यायाधीश यह पाता है कि मामला सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय नहीं है तो वह मामले को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को अंतरित कर देता है। यदि न्यायाधीश यह पाता है कि मामला सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय है तो वह अभियुक्त के विरुद्ध आरोप लिखित रूप से विचरित कर देता है।

    आरोप अभियुक्त को पढ़कर सुनाए जाते है तथा उसमें यह देखा जाता है आरोप विरचित होने के बाद दोषी होने का अभिवचन करता है यह विचारण चाहता है।

    मध्य प्रदेश राज्य बनाम एसबी जोहरी एआईआर 2000 उच्चतम न्यायालय 665 के मामले में एस जी कैंसर हॉस्पिटल इंदौर के लिए दवाएं तैयार करने के दौरान झूठे सर्टिफिकेट एवं कूटरचित दस्तावेज तैयार करने हेतु आपराधिक षड्यंत्र से संबंधित है। सेशन न्यायाधीश ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 120 बी के अधीन दंडनीय अपराध के लिए आरोप निश्चित किए।

    उच्च न्यायालय ने आपराधिक पुनरीक्षण में आरोपों को भी खंडित कर दिया। उस आदेश को मध्यप्रदेश शासन ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया- विधि के स्थापित सिद्धांतों के अनुसार आरोपित किए जाने के पूर्व न्यायालय को प्रथमदृष्टया यह विचार करना चाहिए कि क्या अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही किए जाने के लिए पर्याप्त आधार है। न्यायालय से अपेक्षा नहीं की जाती कि वह साक्ष्य का मूल्यांकन कर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अभियुक्त को दोष सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत की गयी सामग्री पर्याप्त है या नहीं।

    यदि न्यायालय की संतुष्टि हो जाती है कि अभियुक्त के विरुद्ध आगे कार्रवाई किए जाने के लिए प्रथमदृष्टया प्रकरण बनता है तो आरोपित किया जाता है।

    अभियुक्त तभी उन्मुक्त किया जा सकता है जब अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य ऐसा हो कि उस पर दोष सिद्धि आधारित नहीं की जा सकती है।

    महाराष्ट्र राज्य बनाम सोमनाथ थापा एआईआर 1996 उच्चतम न्यायालय 1744 के मुकदमे में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 228, 240, 245 से संबंधित आरोप विरचित करने के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि किसी व्यक्ति के विरुद्ध प्रथमदृष्टया अपराध बन रहा है ऐसा तभी उपचारित किया जाएगा यदि उसके द्वारा अपराध किए जाने के ठोस आधार हो।

    यह वाद में अभियुक्तों के विरुद्ध आतंकवाद एवं चिन्हित गतिविधियां निवारण अधिनियम 1987 के अंतर्गत मुंबई बम ब्लास्ट के प्रकरण में शामिल होने का आरोप था। इनमें से एक अभियुक्त के विरुद्ध आरोप भी था उसने स्वयं के धन से कुछ व्यक्तियों के लिए टिकट से खरीद कर हथियार परीक्षण हेतु पाकिस्तान भिजवाया था, लेकिन टिकट खरीदते हेतु धन दिए जाने के पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में उसे उन्मोचित कर दिया गया।

    उच्चतम न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 228, 240, 245 के संदर्भ में यह तय किया कि न्यायालय द्वारा जांच के दौरान आरोपित किए जाने के प्रथम में साथियों के कथनों के परिणाम पर विचार नहीं किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने यह भी सुनिश्चित किया कि यदि आतंकवाद निवारण अधिनियम सन 1995 निरसित हो चुका है फिर भी इस अधिनियम के अधीन प्रारंभ किए गए अन्वेषण, जांच एवं विचारण आदि यथावत चालू रखे जाएंगे तथा उन्हें समाप्त हुआ नहीं माना जाएगा।

    दोषी होने का अभिवचन-

    दोषी होने के अभिवचन का अर्थ यह है कि जब न्यायाधीश द्वारा अभियुक्त पर आरोप विरचित कर दिए जाते है, अभियुक्त का निर्णय होता है कि आरोपों को स्वीकार कर ले पर ऐसा निर्णय किसी दबाव में नहीं होना चाहिए। यदि अभियुक्त चाहता है कि उसका विचारण हो तो उसके लिए न्यायालय को कह सकता है।

    सामान्यता न्यायाधीश द्वारा अभियुक्त की दोषसिद्धि के अभिवचन को अभी लिखित किया जाता है लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक मामले में अभियुक्त की दोषी होने के अभिवचन को अंकित किया जाए। अभियुक्त द्वारा अपने दोषी होने का अभिवचन स्वयं के मुख से किया जाएगा ना उसके किसी अधिवक्ता के के जरिए।

    मृत्युदंड से दंडनीय अपराध में दोषी होने के अभिवचन को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। दोषी होने का अभिवचन तभी स्वीकार किया जाता है जब अपराध मृत्यु दंड से कम का हो। मृत्युदंड से दंडनीय किसी भी अपराध का विचारण किया ही जाता है।

    ट्रायल प्रोग्राम-

    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 230 के अंतर्गत अभियोजन साक्ष्य के लिए तारीख का निर्धारण किया जाता है। अभियुक्त दोषी होने का अभिवचन करने से इनकार कर देता है। वह अभिवचन नहीं करता है जब विचारण किए जाने का दावा करता है तब धारा 229 के अधीन दोषी नहीं किया जाता है तब न्यायाधीश मामले में अभियोजन साक्ष्य के लिए तारीख तय करता है। ट्रायल का प्रोग्राम बनाता है।

    अभियोजन की ओर से साक्ष्य-

    न्यायाधीश द्वारा ट्रायल प्रोग्राम बना देने पर अभियोजन के साक्ष्य की तारीख का निर्धारण कर दिया जाता है। ऐसी नियत तारीख पर न्यायाधीश सभी ऐसे साक्ष्य लेता है जो अभियोजन के समर्थन में पेश किए जाएं। न्यायधीश विवेक के अनुसार किसी साक्षी की प्रतीक्षा तब तक के लिए जब तक किसी अन्य साक्षी की परीक्षा ना कर ली जाए स्थगित करने की अनुज्ञा दे सकता है। किसी साक्षी को अतिरिक्त परीक्षा के लिए बुला सकता है।

    दोष मुक्ति-

    अभियोजन साक्ष्य से धारा 231 के अंतर्गत साक्ष्य लेने के बाद अभियुक्त को मामले में दोषमुक्त हो जाने का एक अवसर प्राप्त होता है। न्यायाधीश अभियोजन साक्ष्य लेने और अभियुक्त की परीक्षा करने और अभियोजन प्रतिरक्षा को सुनने के पश्चात इस बात पर विचार करता है कि 'साक्ष्य नहीं है' जिससे यह साबित हो कि अभियुक्त ने अपराध किया है। न्यायाधीश धारा 232 के अधीन दोष मुक्ति का आदेश अभिलिखित करता है।

    'साक्ष्य नहीं है' शब्द की पदावली से तात्पर्य संतोषजनक निर्णायक अथवा विश्वसनीय साक्ष्य से नहीं लगाना चाहिए। इसका अर्थ केवल इतना ही है कि रिकॉर्ड पर उपलब्ध साक्ष्य अभियुक्त को अपराधी होना साबित नहीं करते।

    धारा 353 के अंतर्गत दोष मुक्ति का आदेश निर्णय माना जाता है उसे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 354 के उपबंधों के अनुसार अभिलिखित किया जाता है।

    प्रतिरक्षा प्रारंभ करना-

    यदि न्यायाधीश द्वारा धारा 232 के अंतर्गत अभियुक्त को दोष मुक्त नहीं किया जाता है तो धारा 233 के अंदर अभियुक्त को प्रतिरक्षा का अधिकार दिया जाता है। धारा 233 के अंतर्गत अभियुक्त की प्रतिरक्षा प्रारंभ की जाती है तथा उसे लिखित कथन देने के लिए या फिर कोई साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए कहा जाता है। यदि अभियुक्त किसी साक्षी को हाजिर होने या कोई दस्तावेज चीज पेश करने को विवश करने के लिए कोई आदेशिका जारी करने के लिए आवेदन करता है तो न्यायधीश ऐसी आदेशिका जारी करेगा परंतु यदि न्यायाधीश को लगता है कि ऐसी आदेशिका न्यायलय का समय नष्ट करने और न्याय में विलंब के लिए जारी करवाई जा रही है तो वह आदेशिका जारी नहीं करेगा।

    मध्य प्रदेश राज्य बनाम बद्री यादव के मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिश्चित किया है कि दंड प्रक्रिया संहिता में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है जिसके अंतर्गत अभियोजन के साक्षी के रूप में परीक्षण किए गए गवाहों को बचाव पक्ष की साक्षी के रूप में सन्निहित करके उनका बचाव पक्ष के साक्षी के रूप में परीक्षण किया जा सकें।

    धारा 223 दंड प्रक्रिया संहिता में अभियुक्त द्वारा बचाओ प्रारंभ करने संबंधी प्रावधान हेतु धारा 311 में ऐसे साक्ष्यों को जिनका परीक्षण हो चुका है उनका परीक्षण किए जाने के बारे में उपबंद है लेकिन अभियोजन के साक्ष्यों को बचाव पक्ष के साक्षी के रूप में परीक्षण करने संबंधी कोई प्रावधान नहीं है।

    बहस-

    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 234 जब प्रतिरक्षा के साक्ष्य की परीक्षा हो जाती है तो मामले में लोक अभियोजक अपनी बहस प्रस्तुत करता है और अभियुक्त या उसका अधिवक्ता उत्तर देने का हकदार होगा परंतु जहां अभियुक्त या उसका प्लीडर कोई विधि का प्रश्न उठाता है तो अभियोजन पक्ष न्यायाधीश की आज्ञा से ऐसे विधि प्रश्नों पर अपना निवेदन कर सकता है। एक अभियुक्त को अपनी पसंद के अधिवक्ता द्वारा प्रतिरक्षित (डिफेंड) किए जाने का अधिकार है।

    दोष मुक्ति या दोष सिद्धि का निर्णय-

    विधि के प्रश्न अभियुक्त एवं अभियोजन दोनों पक्ष की बहस सुनने के बाद न्यायाधीश मामले में अपना निर्णय लेगा। अभियुक्त की दोष सिद्धि हुई है तो वह भर्त्सना अथवा सदाचार की परीक्षा पर छोड़े जाने के दंडादेश के सिवाय अन्य दंडादेश के बिंदु पर निवेदन कर सकता है।

    जब न्यायाधीश किसी अभियुक्त को सिद्ध दोष पाता है तो दंडादेश के प्रश्न पर विचार करते समय वह अभियुक्त के संबंध में व्यक्तिगत कार्य को जैसे उसका पूर्व अपराधिक रिकॉर्ड, आयु, नियोजन, शैक्षिक योग्यता, पारिवारिक दशा, सामाजिक स्थिति आदि को ध्यान में रख सकता है।

    यदि न्यायाधीश ने अभियुक्त के संबंध इन बातों अनुपालन नहीं किया है तो मामला केवल दंडादेश के प्रश्न को तय करने हेतु सेशन न्यायालय को पुनः प्रेषित किया जाएगा। ऐसी दशा में सेशन न्यायालय द्वारा मामले में नए सिरे से विचार किया जाना आवश्यक नहीं होगा।

    जुम्मन खान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के वाद में अभियुक्त द्वारा प्रश्न दंडादेश के बारे में ना सुने जाने के पूरक आधार के रूप में उच्चतम न्यायालय के समक्ष उठाया गया था परंतु चुकी न्यायालय ने इस प्रश्न पर विचार कर लिया था इसलिए इस बिंदु पर प्रश्न किए जाने का औचित्य नहीं था।

    कमलाकार नंदराम भावसार बनाम महाराष्ट्र राज्य के वाद में अभियुक्त को धारा 235 (2) के अधीन दंड के प्रश्न में सुने जाने का समुचित अवसर प्रदान किए जाने के पश्चात ही दंडिस्ट किया गया था परंतु उसे दिए गए दंड के विरुद्ध सुने जाने का अवसर नहीं दिया गया था। उच्चतम न्यायालय ने निश्चित किया कि अभियुक्त का प्रतिप्रेषण सदैव आज्ञापक नहीं होता है क्योंकि एक अपवाद है ना कि सामान्य नियम।

    शिवाजी दयाशंकर बनाम महाराष्ट्र राज्य 2009 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने तल्ख टिप्पणी करते हुए यह बात स्पष्ट की है कि दंड प्रणाली का मूल उद्देश्य समाज को अपराधियों से संरक्षित करना तथा उन लोगों के भीतर भय का संचरण करना जो किसी अपराध को करना चाहते है। यदि दंड की प्रणाली को ऐसा बनाया जाए जिससे अपराधियों के भीतर से दंड के प्रति कोई भय ही ना रहे तो सारी न्याय प्रणाली भ्रष्ट हो जाएगी तथा किसी भी दंड प्रणाली का कोई औचित्य ही नहीं रह जाएगा तथा समाज के लिए एक गंभीर घटना होगी उसके अत्यंत बुरे दुष्परिणाम होंगे।

    धारा 235 उपधारा(2) के अंतर्गत दोष सिद्ध होने पर न्यायधीश दंड के प्रश्न पर अभियुक्त को सुनता तो है परंतु दंड उसे विधि के अनुसार ही दिया जाएगा, यह अधिकारपूर्वक नहीं मांगा जा सकता कि अभियुक्त जोर देकर दंड को कम करवाएं।

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