क्या होती है न्यायालय की उन्मोचन ( डिस्चार्ज) की शक्ति, ट्रायल के पहले ही कब छोड़ा जा सकता है आरोपी

Shadab Salim

7 July 2020 4:30 AM GMT

  • क्या होती है न्यायालय की उन्मोचन ( डिस्चार्ज) की शक्ति, ट्रायल के पहले ही कब छोड़ा जा सकता है आरोपी

    जब कभी कोई व्यक्ति अपराध करता है तो न्यायालय में उस व्यक्ति पर अभियोजन चलाया जाता है। जिस व्यक्ति के ऊपर आयोजन चलाया जाता है उस व्यक्ति को अभियुक्त कहा जाता है। पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित मामले में न्यायालय में अभियुक्त का विचारण होता है। विचारण के उपरांत अभियुक्त की दोषमुक्ति या दोषसिद्धि तय होती है। परंतु अभियुक्त के पास विचारण के पूर्व ही मामले में उन्मोचित ( डिस्चार्ज) हो जाने का अवसर होता है।

    उन्मोचन ( डिस्चार्ज)

    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 227 उन्मोचन का उल्लेख करती है। इस धारा के शब्दों के अनुसार यदि मामले के अभिलेख और उसके साथ दिए गए दस्तावेजों पर विचार कर लेने पर और इस निमित्त अभियुक्त और अभियोजन के निवेदन की सुनवायी कर लेने के पश्चात न्यायाधीश यह समझता है कि अभियुक्त के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है तो वह अभियुक्त को उन्मोचित कर देगा और ऐसा करने के अपने कारणों को लेखबद्ध करेगा।

    यह दंड प्रक्रिया संहिता की इस धारा के शब्दों के आकलन से यह ज्ञान होता है कि अभियुक्त विचारण के पूर्व ही उन्मोचित हो सकता है तथा ऐसा उन्मोचन न्यायालय पर निर्भर करता है। जब कभी अभियुक्त पर विचारण किया जाता है तो वह सत्र न्यायालय या मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाता है, यह धारा 227 सत्र न्यायालय द्वारा विचारण किए जाने के संबंध में है।

    इस धारा में वर्णित उपबंधों के अनुसार मामले के रिकॉर्ड और उसके साथ किए गए दस्तावेजों पर विचार करने के पश्चात इस संबंध में अभियुक्त एवं अभियोजन की दलीलों को सुनकर न्यायाधीश समझता है कि अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार नहीं है तो अभियुक्त को उन्मोचित कर देगा। ऐसा करने के अपने कारणों को लेखबद्ध करेगा।

    मोहम्मद अकील बनाम दिल्ली राज्य 1988 के मामले में यह कहा गया है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथमदृष्टया कोई अपराध बनता है या नहीं इस हेतु सत्र न्यायालय द्वारा केवल प्रथम सूचना रिपोर्ट या परिवाद यथास्थिति को ही विचार में नहीं लिया जाएगा अपितु सीआरपीसी की धारा 161 के अधीन रिकॉर्ड किए गए साक्षी के कथनों को भी विचार में लिया जाएगा।

    दिल्ली राज्य के इस निर्णय को पढ़ने के बाद यह मालूम होता है कि ऐसा उन्मोचन न्यायालय में अभियुक्त के विरुद्ध पुलिस या जांच एजेंसी का अंतिम प्रतिवेदन जो धारा 173 के अंतर्गत पेश किया जाता है उसके पेश हो जाने के पश्चात दोनों पक्षों को सुनने के पश्चात सेशन न्यायाधीश जब अभियुक्त पर आरोप तय करने वाला होता है, उसके पहले एक परिस्थिति होती है जिसमें अभियुक्त को उन्मोचित किया जाता है वह यही परिस्थिति है जिसे धारा 227 में उल्लेखित किया गया है।

    अंतिम प्रतिवेदन प्राप्त हो जाने के बाद यदि न्यायाधीश को यह लगता है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथमदृष्टया कोई मामला नहीं बनता है तथा साक्ष्यों का अवलोकन करने के बाद में यह जानकारी प्राप्त होती है कि जो प्राथमिकी दर्ज की गयी थी उसके बाद की कहानी अभियुक्त को दोषी सिद्ध कर पाने में सफल नहीं होगी तो ही ऐसी परिस्थिति में धारा 227 का उन्मोचन किया जाता है।

    जगदीश चंद्र बनाम एस के शर्मा एआईआर 1999 उच्चतम न्यायालय (217) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि यदि तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर मामला सिविल प्रकृति का बनता हो तो अभियुक्त को आपराधिक आरोपों से उन्मोचन किया जा सकता है। इस वाद में कंपनी के अधिकारी को कंपनी ने सेवा के दौरान रहने के लिए कंपनी का घर दिया था।

    बाद में वह अधिकारी कंपनी की सेवा में नहीं रहा फिर भी उसने कंपनी का आवास खाली नहीं किया। उसके विरुद्ध कंपनी अधिनियम 1956 की धारा 630 एवं भारतीय दंड संहिता की धारा 406, 408 तथा 409 के अंतर्गत परिवाद प्रस्तुत किया गया। न्यायालय ने इस प्रकरण को सिविल प्रकृति का मानते हुए आपराधिक आरोपों से अभियुक्त को उन्मोचित कर दिया।

    पीड़ित पक्षकार कभी-कभी सिविल प्रकृति के मामलों को आपराधिक प्रवृत्ति के मामलों में परिवर्तित कर देता है, जबकि प्रकरण सिविल प्रकृति का होता है। सिविल प्रकरण के संचालन एवं उसके संस्थित किए जाने की प्रक्रिया आपराधिक प्रकरणों से थोड़ी कठिन होती है, इस कठिनाई से बचने हेतु व्यक्ति आपराधिक प्रकरण संस्थित करवाने का प्रयास करता है।

    महाराष्ट्र राज्य बनाम सलमान खान 2004 के मामले में यह बात कही गयी है कि-आपराधिक प्रकरणों में विचारण संबंधी विधि में यह व्यवस्था दी गयी है कि उपलब्ध साक्ष्य के अनुसार कार्यवाही के किसी भी चरण में आरोपों में परिवर्तन किया जा सकता है। अतः यदि विचारण के किसी भी चरण में साक्ष्य के आधार पर मजिस्ट्रेट यह अनुभव करता है कि प्रकरण का विचारण वरिष्ठ न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिए तो वह मामले को संबंधित न्यायालय को सुपुर्द कर देगा।

    सुम्मन बनाम मध्य प्रदेश राज्य के वाद में न्यायालय ने यह तय किया कि एक बार मजिस्ट्रेट द्वारा मामला सत्र न्यायालय को कमिट करने के पश्चात उस पर सत्र न्यायालय के अधिकारिता होगी। विचारण के दौरान यह पता लगता है कि मामला सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय नहीं है फिर भी उस मामले में सत्र न्यायालय की अधिकारिता बनी रहेगी और उसके विचारण से वंचित नहीं होगा।

    भारत संघ बनाम प्रफुल्ल कुमार एआईआर 1979 उच्चतम न्यायालय (366) के मामले में अभिमत प्रकट किया गया है कि इस धारा 227 के अधीन अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते समय न्यायालय को साक्ष्य दस्तावेजों के आधार पर मामले का बारीकी से विचारण करना चाहिए तथा मामले की कमजोरियों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए यदि न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि अभियुक्त के अपराधी होने के विषय में तनिक भी संदेह है तो उसे संदेह का लाभ देकर उन्मोचित कर देना ही न्याय हित में उचित होगा।

    नीलोफर बनाम गुजरात राज्य 2004 के मामले में अभियुक्त के विरुद्ध वेश्यावृत्ति के निवारण के लिए बनाए गए अनैतिक देह व्यापार निवारण अधिनियम 1956 की धारा 4 तथा 9 के अंतर्गत आरोप था कि अभियुक्त इस अपराध की शिकार हुई लड़कियों को एक स्थान पर ले जाकर उन्हें वेश्यावृत्ति के लिए दुष्प्रेरित एवं प्रलोभित किया। उन्हें वेश्यावृत्ति करने के लिए लालच दिया गया।

    इन लड़कियों को किसी ऐसी जगह पर रखा गया जहां से उनकी मांग होने पर आपूर्ति की जा सके। ग्राहक इन लड़कियों की मांग करते थे तथा इस स्थान से यह लड़कियां सप्लाई कर दी जाती थी। न्यायालय ने इस धारा 6 के अधीन निरोध मानते हुए अभियुक्तों को दोषसिद्धि माना तथा उन्हें उन्मोचित किए जाने से इनकार कर दिया।

    सायरा बानो बनाम झारखंड राज्य 2006 के वाद में अभियुक्त के विरुद्ध आरोप था कि उसने परिवादी की अवयस्क पुत्री का अपहरण करके भगाया तथा अन्वेषण के दौरान एकत्रित किए गए साक्ष्य सामग्री तथा पुलिस डायरी के आधार पर ऐसा प्रतीत नहीं होता था कि अभियुक्त ने उक्त बालिका का अपहरण करने का कोई षड‌यंत्र किया होगा, अभियुक्त के विरुद्ध कोई प्राथमिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं होने के कारण उसे धारा 227 के अंतर्गत उन्मोचित कर दिया गया।

    मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त उन्मोचन

    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 245 के अंतर्गत अभियुक्त को मजिस्ट्रेट द्वारा उन्मोचित किए जाने का उल्लेख है। धारा 245 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट को यह शक्ति दी गयी है कि इस धारा में उन परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है जिनमें पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित वारंट मामले में अभियुक्त को उन्मोचित कर सकता है।

    मजिस्ट्रेट को प्राप्त उन्मोचन करने की शक्ति के अंतर्गत अभियुक्त उस समय भी उन्मोचित हो सकता है जब उसका विचारण मजिस्ट्रेट के न्यायालय द्वारा किया जा रहा है। जब पुलिस ने अपना अंतिम प्रतिवेदन मजिस्ट्रेट के न्यायालय में प्रस्तुत कर दिया हो तथा मजिस्ट्रेट ऐसा विचारण करने के लिए सशक्त है तो मजिस्ट्रेट विचारण के पूर्व ही समस्त साक्षी एवं दस्तावेज़ी साक्ष्यों पर विचार कर लेने के पश्चात अभियुक्त को विचारण के पूर्व भी उन्मोचित कर सकता है।

    जैसे यदि किसी मजिस्ट्रेट के न्यायालय में किसी व्यक्ति के ऊपर मारपीट का कोई मामला संस्थित है तथा प्रथमिक साक्ष्य जैसे धारा 161 के साक्ष्य जिसे पुलिस द्वारा अपने अंतिम प्रतिवेदन में प्रस्तुत किया जाता है। ऐसे बयान साक्षियों से यह प्रतीत होता है कि अभियुक्त के विरुद्ध मारपीट का कोई मामला नहीं बन रहा है तथा उस पर विचारण चलाए जाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता तो ऐसी सुगम परिस्थितियों में मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्तों को उन्मोचित कर दिया जाता है।

    धारा 243 के अधीन मजिस्ट्रेट से अपेक्षित है कि वह अभियुक्त की दोषसिद्धि के लिए प्रथमदृष्टया मामला निश्चित करे। मजिस्ट्रेट ऐसे साक्ष्य पर विचार नहीं कर सकेगा जो अभी प्रस्तुत न किए गए हों। यदि अभियुक्त के विरुद्ध कोई प्रथमदृष्टया मामला बनता हो तो ही मजिस्ट्रेट उसके विरुद्ध आरोप परिचित करेगा।

    इस प्रकार का उन्मोचन मजिस्ट्रेट द्वारा आरोपित किए जाने के पूर्व में ही हो जाता है। मजिस्ट्रेट पाता है कि प्रथमदृष्टया अभियुक्त के विरुद्ध कोई मामला बन रहा है तो ही वह आरोप परिचित करने की अगली प्रक्रिया के लिए कोई कदम उठाता है।

    बिहार राज्य बनाम बैजनाथ प्रसाद एआरआई 2002 के वाद में एकत्रित किए गए प्रथमिक साक्ष्य के आधार पर अभियुक्त के विरुद्ध आरोप विचरित किया जाना उचित था। उच्च न्यायालय इस आधार पर अभियुक्त को उमोचित दिया था कि उसका प्रकरण 7 वर्षों से लंबित पड़ा था।

    उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के इस निर्णय को अनुचित मानते हुए इसको उन्मोचन के प्रावधानों के प्रतिकूल माना। केवल 7 वर्ष के बाद के आधार पर उन्मोचन उचित नहीं था क्योंकि उसके विरुद्ध आरोप विचरित हो चुके थे उसका विचारण आवश्यक था, आरोप विचरित हो जाने के पश्चात उन्मोचन नहीं हो सकता।

    जब अभियुक्त के पर आरोप विचरित कर दिए जाते हैं तो फिर किसी भी परिस्थिति में अभियुक्त का विचारण किया ही जाएगा।

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