उमादेवी फैसले को स्थायी अस्थायी रोज़गार के लिए ढाल के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता: जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट
Shahadat
14 Dec 2025 10:15 PM IST

जम्मू एंड कश्मीर हाईकोर्ट की चीफ जस्टिस अरुण पल्ली और जस्टिस रजनेश ओसवाल की डिवीजन बेंच ने फैसला सुनाया कि 31-03-1994 से पहले काम पर रखे गए और दशकों से लगातार काम कर रहे दिहाड़ी मज़दूर को कैज़ुअल लेबरर होने के बहाने SRO-64 के तहत रेगुलराइज़ेशन से मना नहीं किया जा सकता। इसके अलावा, स्थायी काम के लिए स्थायी अस्थायी रोज़गार को सही ठहराने के लिए उमादेवी फैसले का हवाला नहीं दिया जा सकता।
पृष्ठभूमि तथ्य
प्रतिवादी को पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट में दिहाड़ी मज़दूर के तौर पर काम पर रखा गया। उसने तीन दशकों से ज़्यादा समय तक लगातार सेवा की। सात साल की सेवा पूरी करने के बाद उसने 1994 के SRO-64 के तहत अपनी स्थिति को रेगुलराइज़ करने की मांग की। अधिकारियों ने उसके अनुरोध पर कोई कार्रवाई नहीं की। इसके बाद उसने 2012 में एक रिट याचिका दायर की, जिसे विभाग को उसके मामले पर विचार करने का निर्देश देकर निपटा दिया गया।
विभाग ने 2022 में उसके दावे को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उसे कैज़ुअल लेबरर के तौर पर काम पर रखा गया और वह मानदंडों को पूरा नहीं करता था। इस अस्वीकृति को चुनौती देते हुए प्रतिवादी ने केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण से संपर्क किया, जिसने उसके आवेदन को स्वीकार कर लिया और सरकार को उसके सेवाओं को परिणामी लाभों के साथ रेगुलराइज़ करने का निर्देश दिया।
इससे दुखी होकर जम्मू एंड कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश और अन्य ने हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर की।
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि न्यायाधिकरण 2022 के विभाग के विस्तृत आदेश पर ठीक से विचार करने में विफल रहा। आदेश ने प्रतिवादी के रेगुलराइज़ेशन के दावे को सही ढंग से खारिज कर दिया, क्योंकि वह 1994 के SRO-64 के तहत अनिवार्य मानदंडों को पूरा नहीं करता था। यह तर्क दिया गया कि केवल लंबे समय तक दिहाड़ी मज़दूरी पर काम करने से स्वचालित रूप से नियमित सेवा में शामिल होने का कानूनी अधिकार नहीं बनता। SRO 64 के तहत रेगुलराइज़ेशन उम्र, योग्यता, रिक्तियों की उपलब्धता और सक्षम प्राधिकारी द्वारा औपचारिक अनुमोदन जारी करने से संबंधित विशिष्ट मानदंडों को पूरा करने के अधीन है।
दूसरी ओर, प्रतिवादी ने तर्क दिया कि योग्य होने के बावजूद उसे अन्यायपूर्ण तरीके से रेगुलराइज़ेशन से वंचित किया गया। उसने दावा किया कि उसे जुलाई, 1993 में दिहाड़ी मज़दूर के तौर पर काम पर रखा गया और उसने तीस साल से ज़्यादा समय तक बिना किसी रुकावट के सेवा की थी। यह भी प्रस्तुत किया गया कि विभाग ने उसके नाम को छोड़कर समान स्थिति वाले सहकर्मियों को रेगुलराइज़ेशन के लिए अनुशंसित किया।
कोर्ट के निष्कर्ष
कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ताओं ने खुद यह माना कि प्रतिवादी को 2 सितंबर 1993 को 'डेली रेटेड वर्कर' के तौर पर काम पर रखा गया। उसने तीन दशकों से ज़्यादा समय तक लगातार काम किया। इसलिए यह 2022 के रिजेक्शन ऑर्डर के खिलाफ था, जिसमें उसे 'कैज़ुअल लेबरर' बताया गया। यह भी देखा गया कि किसी वर्कर का स्टेटस उसके काम के नेचर से तय होना चाहिए, यानी स्थायी ज़रूरत के लिए लगातार और बिना रुकावट के काम।
स्टेट ऑफ़ जम्मू एंड कश्मीर बनाम मुश्ताक अहमद सोहेल मामले में कोऑर्डिनेट बेंच के फैसले पर भरोसा करते हुए कोर्ट ने दोहराया कि जिन लोगों को कैज़ुअल लेबरर के तौर पर काम पर रखा गया, वे असल में डेली रेटेड वर्कर थे, क्योंकि उन्हें कभी-कभी काम पर नहीं रखा गया।
इसके अलावा, जग्गो बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी भरोसा किया गया, जिसमें यह कहा गया कि वर्कर्स को लंबे समय तक अस्थायी आधार पर काम पर रखना, खासकर जब उनकी भूमिका संगठन के कामकाज के लिए ज़रूरी हो तो यह अंतरराष्ट्रीय श्रम मानकों का उल्लंघन करता है और संगठन को कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और कर्मचारियों का मनोबल भी गिरता है।
धर्म सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ यूपी के फैसले में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि जब काम स्थायी हो तो दशकों तक वर्कर्स को खतरनाक, अस्थायी कामों में रखने की शोषणकारी प्रथा के खिलाफ कड़ी चेतावनी दी गई।
यह देखा गया कि उमादेवी फैसले का इस्तेमाल लंबे समय तक एड-हॉक, दिहाड़ी, कॉन्ट्रैक्ट या आउटसोर्सिंग वाली नौकरी को सही ठहराने के लिए ढाल के तौर पर नहीं किया जा सकता, जहां काम स्थायी है और राज्य नियमित भर्ती करने में नाकाम रहा है। उमादेवी फैसले में अवैध और अनियमित नियुक्तियों के बीच जो अंतर बताया गया, उसे लागू किया जाना चाहिए। अनियमित नियुक्तियों को अनिश्चित काल तक जारी नहीं रखा जा सकता।
इसके अलावा, लंबे समय तक शोषण या एक जैसे काम के लिए समान वेतन न देना कानून में गलत है। भारतीय श्रम कानून स्थायी काम के लिए हमेशा अस्थायी नौकरी का समर्थन नहीं करता है। साथ ही, बाद में नीति में बदलाव या संगठन में बदलाव से मिले हुए अधिकार खत्म नहीं हो सकते। इसलिए अदालतों का यह कर्तव्य है कि वे नियमों या खाली पदों से जुड़ी सिर्फ तकनीकी बातों के आधार पर दावों को खारिज करने के बजाय राज्य द्वारा पदों को मंज़ूरी न देने में मनमानी की जांच करें।
यह माना गया कि याचिकाकर्ता सिर्फ प्रतिवादी के नियमितीकरण के वैध दावे को खारिज करने के लिए बार-बार अपना रुख बदल रहे थे। डिवीजन बेंच ने पाया कि ट्रिब्यूनल ने सही निष्कर्ष निकाला कि प्रतिवादी को जुलाई, 1993 में डेली रेटेड वर्कर के तौर पर नौकरी पर रखा गया, यानी 31 मार्च, 1994 की डेडलाइन से पहले, इसलिए वह SRO 64 के तहत नियमितीकरण के लिए योग्य था।
इसलिए प्रतिवादी की सेवाओं को सभी नतीजों वाले फायदों के साथ नियमित करने के ट्रिब्यूनल के आदेश को डिवीजन बेंच ने बरकरार रखा। नतीजतन, जम्मू और कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश द्वारा दायर रिट याचिका को डिवीजन बेंच ने खारिज किया।
Case Name : U. T. of J&K and others vs. Kashmir Singh

