भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत मंज़ूरी की ज़रूरत नहीं, जब सरकारी कर्मचारी रिटायर हो जाए या पद छोड़ दे: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट
Shahadat
26 Dec 2025 5:11 PM IST

यह मानते हुए कि भ्रष्टाचार निवारण कानून के तहत मुक़दमे के लिए पहले से मंज़ूरी की कानूनी सुरक्षा तभी तक उपलब्ध है, जब तक कोई सरकारी कर्मचारी सेवा में रहता है, जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया कि एक बार जब अधिकारी पद छोड़ देता है या रिटायर हो जाता है, तो किसी मंज़ूरी की ज़रूरत नहीं होती।
जस्टिस संजय धर ने भ्रष्टाचार की कार्यवाही को चुनौती देने वाली याचिका खारिज करते हुए यह बात साफ की।
साथ ही कहा,
"PC Act की धारा 19 के तहत सुरक्षा, जो J&K PC Act की धारा 6 के समान है, एक सरकारी कर्मचारी को तभी तक उपलब्ध है, जब तक वह नौकरी में है और सरकारी कर्मचारी के पद छोड़ने या सेवा से रिटायर होने के बाद इसके तहत किसी मंज़ूरी की ज़रूरत नहीं है।"
कोर्ट गुलाम रसूल बाबा द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसने संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 के साथ आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 282 का हवाला देते हुए विजिलेंस ऑर्गनाइजेशन कश्मीर में दर्ज FIR से उत्पन्न आपराधिक कार्यवाही को चुनौती दी थी।
यह कार्यवाही श्रीनगर में स्पेशल जज, भ्रष्टाचार विरोधी अदालत के समक्ष लंबित थी, जो याचिकाकर्ता के निदेशक, स्वास्थ्य सेवा, कश्मीर के कार्यालय में लेखा अधिकारी के रूप में कार्यकाल के दौरान कथित बड़े पैमाने पर वित्तीय अनियमितताओं से संबंधित थी।
जम्मू-कश्मीर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 5(1)(c)(d) के साथ धारा 5(2) और RPC की धारा 120-B, 467, 468 और 409 के तहत अपराधों के लिए FIR में आरोप थे कि बीरवाह में ब्लॉक मेडिकल ऑफिसर के रूप में तैनात रहते हुए कई डॉक्टरों ने मंत्रालयिक कर्मचारियों और कोषागार अधिकारियों की मिलीभगत से सरकारी धन का गबन किया। जांच के बाद विजिलेंस ऑर्गनाइजेशन ने आरोपों को सही पाया और वर्तमान याचिकाकर्ता सहित कई आरोपियों के खिलाफ चार्जशीट दायर की।
जहां तक गुलाम रसूल बाबा का सवाल था, जांच में पता चला कि उसने अपनी आधिकारिक स्थिति का दुरुपयोग करके और BMO कार्यालय के अधिकारियों के पक्ष में रिकॉर्ड में हेरफेर करके राज्य कोषागार से ₹6,99,880 की लीव ट्रैवल कंसेशन की अवैध और धोखाधड़ी से निकासी में मदद की थी। इस सामग्री के आधार पर, ट्रायल कोर्ट ने आरोप तय किए और प्रथम दृष्टया पाया कि याचिकाकर्ता ने रिकॉर्ड में हेरफेर करके और बिना अधिकार के अवैध LTC निकासी में मदद की थी।
इन कार्यवाही को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि एडजस्टमेंट बिल तैयार करने या पास करने में उसकी कोई भूमिका नहीं थी, जो ब्लॉक लेवल पर पूरे किए गए। उस पर लगाए गए आरोप अस्पष्ट थे। उसने आगे तर्क दिया कि सक्षम अधिकारी से मंज़ूरी लिए बिना चालान पेश किया गया और ट्रायल सही प्रक्रिया के बिना आगे बढ़ा था। याचिकाकर्ता ने ट्रायल में लंबी देरी का भी दावा किया, जो उसके जल्द ट्रायल के अधिकार का उल्लंघन था।
जस्टिस धर ने चार्जशीट और जांच के दौरान इकट्ठा किए गए सबूतों की जांच करने के बाद इन तर्कों को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोप दो तरह के हैं: धोखाधड़ी वाले LTC निकालने में मदद करना और बिना अधिकार के मंज़ूरी देना। कोर्ट ने पाया कि ये आरोप "जांच एजेंसी द्वारा इकट्ठा किए गए सबूतों से साफ तौर पर समर्थित हैं।"
कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण बात पर विचार किया, वह है उस समय के डायरेक्टर, हेल्थ सर्विसेज़, कश्मीर का बयान, जो जांच के दौरान रिकॉर्ड किया गया। डायरेक्टर ने साफ तौर पर कहा कि याचिकाकर्ता ने, अकाउंट्स ऑफिसर के तौर पर 18 कर्मचारियों के पक्ष में बिना मंज़ूरी और बिना अधिकार के LTC लेने के लिए मंज़ूरी दी थी, जिसमें ऐसे मामले भी शामिल थे, जहां खुद डायरेक्टर भी सक्षम नहीं थे और मंज़ूरी केवल सरकार ही दे सकती थी।
डायरेक्टर ने आगे कहा कि याचिकाकर्ता ने अतिरिक्त कर्मचारियों को मंज़ूरी देने के लिए रिकॉर्ड में हेरफेर किया और एक ऐसे कर्मचारी के पक्ष में LTC भी मंज़ूर किया, जिसे ऐसी सुविधा का हक नहीं था। इस बयान के आधार पर कोर्ट ने माना कि याचिकाकर्ता के खिलाफ आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त शुरुआती सबूत थे।
बर्खास्तगी के मुद्दे पर कोर्ट ने कहा कि हालांकि याचिकाकर्ता के बर्खास्तगी के आवेदन का ज़िक्र आरोप तय करने वाले आदेश में खास तौर पर नहीं किया गया, लेकिन उसकी दलीलें सुनी गईं और खारिज कर दी गईं, इसलिए आवेदन को खारिज माना गया।
मुकदमा चलाने की मंज़ूरी से जुड़े अहम तर्क पर विचार करते हुए जस्टिस धर ने कहा कि चार्जशीट याचिकाकर्ता के सेवा से रिटायर होने के बाद दायर की गई। सुप्रीम कोर्ट के स्टेशन हाउस ऑफिसर, CBI/ACB बनाम बी.ए. श्रीनिवासन (2020) 2 SCC 153 के फैसले पर भरोसा करते हुए कोर्ट ने कहा कि मंज़ूरी का कानूनी संरक्षण रिटायरमेंट के बाद लागू नहीं रहता है, जिससे याचिकाकर्ता की आपत्ति बेकार हो जाती है।
जहां तक देरी और जल्द सुनवाई के अधिकार के उल्लंघन की दलील का सवाल है, कोर्ट ने पाया कि देरी ट्रायल कोर्ट या अभियोजन पक्ष के नियंत्रण से बाहर के कारणों से हुई।
कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला,
"यह नहीं कहा जा सकता कि याचिकाकर्ता के जल्द सुनवाई के अधिकार में ट्रायल कोर्ट या अभियोजन पक्ष की किसी भी कार्रवाई से बाधा आई है।"
इन कारणों से हाईकोर्ट ने याचिका को बिना किसी मेरिट का पाया और उसे खारिज कर दिया।
Case Title: Ghulam Rasool Baba Vs Principal Secretary To Govt & Anr

