लोक अभियोजक द्वारा ब्रीफ तैयार करने के लिए समय मांगना 'अपमानजनक' टिप्पणी नहीं, न्यायालय को सहिष्णु होना चाहिए: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

Shahadat

29 Sept 2025 10:48 AM IST

  • लोक अभियोजक द्वारा ब्रीफ तैयार करने के लिए समय मांगना अपमानजनक टिप्पणी नहीं, न्यायालय को सहिष्णु होना चाहिए: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

    जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने ज़ोर देकर कहा कि अदालतों से अपेक्षा की जाती है कि वे लोक सेवकों की छोटी-मोटी चूकों से निपटने में सहिष्णु और उदार हृदय वाले हों। अदालत ने कहा कि केवल इसलिए कि कोई लोक अभियोजक किसी मामले पर बहस करने में असमर्थ है या ब्रीफ तैयार करने के लिए समय मांगता है, यह आलोचना की मांग नहीं है।

    जस्टिस संजय धर ने यह टिप्पणी किशोर न्याय बोर्ड (JJB), सांबा द्वारा एक सहायक लोक अभियोजक (APP) के विरुद्ध दर्ज की गई अपमानजनक टिप्पणियों को खारिज करते हुए की।

    उन्होंने कहा,

    "अगर मामले की सुनवाई एक दिन के लिए भी स्थगित कर दी जाए, खासकर जब अभियुक्त हिरासत में न हो तो कोई आसमान नहीं गिर पड़ेगा।"

    मामले की पृष्ठभूमि:

    यह मामला किशोर न्याय बोर्ड (JJB), सांबा द्वारा पारित एक आदेश से उत्पन्न हुआ, जिसमें बोर्ड ने एक APP के आचरण पर कड़ी असहमति व्यक्त की। उस दिन बोर्ड के नियमित अभियोजक अवकाश पर थे और याचिकाकर्ता APP को अतिरिक्त कार्यभार सौंपा गया। साथ ही APP को अतिरिक्त विशेष मोबाइल मजिस्ट्रेट, सांबा की अदालत में अभियोजन पक्ष के बयान दर्ज करने के लिए नियुक्त किया गया, जो अदालत के समय समाप्त होने तक जारी रहा।

    परिणामस्वरूप, अधिकारी JJB में लंबित जमानत याचिका पर बहस करने के लिए उपस्थित नहीं हो सके। इस अनुपस्थिति को कर्तव्यहीनता मानते हुए बोर्ड ने APP के विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणी की और निर्देश दिया कि उचित कार्रवाई के लिए मामला कठुआ-सांबा के अभियोजन उप निदेशक के संज्ञान में लाया जाए। व्यथित होकर अधिकारी ने हाईकोर्ट में यह याचिका दायर की।

    न्यायिक विश्लेषण

    जस्टिस धर ने अदालतों द्वारा प्रतिकूल टिप्पणियों के संबंध में कानून की स्थापित स्थिति की जांच की। मध्य प्रदेश राज्य बनाम नर्मदा बचाओ आंदोलन (2011) 12 SCC 689 का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि ऐसी टिप्पणियों को कभी भी हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए, क्योंकि ये किसी व्यक्ति के चरित्र और निष्ठा को गंभीर नुकसान पहुंचा सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आलोचना दर्ज करने से पहले अदालत को यह विचार करना चाहिए कि क्या संबंधित व्यक्ति को स्पष्टीकरण देने का अवसर दिया गया, क्या साक्ष्य ऐसी टिप्पणियों को उचित ठहराते हैं, और क्या वे मामले के निर्णय के लिए आवश्यक थीं।

    हाईकोर्ट ने राज्य (दिल्ली सरकार) बनाम पंकज चौधरी एवं अन्य (2019) 11 एससीसी 575 का भी हवाला दिया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि विभागीय कार्रवाई के निर्देशों के साथ अपमानजनक टिप्पणियां किसी अधिकारी के करियर को अपूरणीय क्षति पहुंचा सकती हैं। उत्तर प्रदेश राज्य बनाम मोहम्मद नईम (एआईआर 1964 एससी 703) का हवाला देते हुए जस्टिस धर ने दोहराया कि जजों को स्वतंत्रता और स्वायत्तता प्राप्त है, लेकिन न्यायिक निर्णयों में संयम अपरिहार्य हैं।

    इन सिद्धांतों को लागू करते हुए जस्टिस धर ने कहा कि घटनाओं का क्रम JJB के पीठासीन अधिकारी और याचिकाकर्ता के बीच संवादहीनता के अलावा और कुछ नहीं दर्शाता। बोर्ड ने उसकी अनुपस्थिति के कारणों का पता लगाए बिना और उसे स्पष्टीकरण का अवसर दिए बिना प्रतिकूल टिप्पणियां पारित कीं, जो ज़मानत याचिका पर निर्णय लेने के लिए न तो आवश्यक थीं और न ही उचित।

    जस्टिस धर ने टिप्पणी की,

    "इस न्यायालय ने बार-बार अदालतों को आगाह किया कि वे लोक सेवकों के विरुद्ध आलोचना और टिप्पणियां करने की प्रवृत्ति से बचें, जब तक कि ऐसा करना मामले के निपटारे के लिए नितांत आवश्यक न हो और संबंधित अधिकारी को सूचित न किया गया हो।"

    अदालत ने आगे ज़ोर देकर कहा,

    "अदालतों से अपेक्षा की जाती है कि वे किसी वादी, वकील या लोक सेवक के मामूली अपराधों को नज़रअंदाज़ करने में अत्यधिक सहिष्णु और उदार हृदय वाले हों। केवल इसलिए कि कोई लोक अभियोजक किसी मामले में बहस करने में असमर्थ रहा है या उसने ब्रीफ तैयार करने के लिए समय मांगा, आलोचना पारित करने का कोई औचित्य नहीं है... वह भी ऐसे मामले में, जहां अभियुक्त सलाखों के पीछे नहीं था और अगर मामले की सुनवाई एक दिन के लिए भी स्थगित कर दी जाती तो कोई मुसीबत नहीं आ जाती।"

    यह मानते हुए कि ये टिप्पणियां मामले के निपटारे के लिए अनावश्यक हैं, हाईकोर्ट ने याचिका स्वीकार कर ली। आदेश में की गई अपमानजनक टिप्पणियों को हटाने का निर्देश दिया गया तथा कठुआ-सांबा के अभियोजन उप निदेशक को उनके आधार पर याचिकाकर्ता के खिलाफ आगे कोई कार्रवाई करने से रोक दिया गया।

    Case Title: Anu Charak Vs UT Of J&K

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