S.143A NI Act | अंतरिम मुआवजे की मात्रा तय करने के लिए मजिस्ट्रेट द्वारा विवेक का प्रयोग, कुछ कारकों पर विचार करना आवश्यक: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

Amir Ahmad

23 July 2024 7:19 AM GMT

  • S.143A NI Act | अंतरिम मुआवजे की मात्रा तय करने के लिए मजिस्ट्रेट द्वारा विवेक का प्रयोग, कुछ कारकों पर विचार करना आवश्यक: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

    नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट (NI Act) की धारा 143-ए के तहत अंतरिम मुआवजा देने के लिए श्रीनगर के न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (प्रथम अतिरिक्त मुंसिफ) का आदेश रद्द करते हुए जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख उच्च न्यायालय ने अंतरिम मुआवजे का फैसला करने के लिए मजिस्ट्रेट की ओर से विवेक के उचित प्रयोग पर जोर दिया।

    मुआवज़ा निर्धारित करते समय विचार किए जाने वाले कारकों पर प्रकाश डालते हुए जस्टिस संजय धर ने कहा,

    “अंतरिम मुआवज़े की मात्रा तय करते समय मजिस्ट्रेट को अपने विवेक का इस्तेमाल करना पड़ता है और उसे कई कारकों पर विचार करना पड़ता है, जैसे कि लेन-देन की प्रकृति, अभियुक्त और शिकायतकर्ता के बीच कोई संबंध आदि।”

    यह विवाद तब पैदा हुआ जब प्रतिवादी मुश्ताक अहमद वानी ने मुजीब उल अशरफ डार के खिलाफ एनआई अधिनियम के तहत शिकायत दर्ज की, जिसके कारण श्रीनगर के प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष कार्यवाही हुई। मजिस्ट्रेट ने बिना कोई ठोस तर्क दिए धारा 143-ए के तहत अधिकतम अंतरिम मुआवज़ा देने का आदेश दिया, जिसे याचिकाकर्ता ने बाद में हाईकोर्ट में चुनौती दी।

    वकील आतिर कवूसा द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि मजिस्ट्रेट के आदेश में आवश्यक तर्क और विचारों का अभाव था, जिससे यह मनमाना हो गया।

    उन्होंने तर्क दिया कि धारा 143-ए के तहत विवेकाधीन शक्ति का प्रयोग वैध कारणों के आधार पर किया जाना चाहिए जो कि विवादित आदेश में अनुपस्थित थे।

    प्रतिवादी का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील एफ. ए. वैदा ने मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए अंतरिम मुआवजा बरकरार रखने के पक्ष में तर्क दिया, जिसमें कहा गया कि याचिकाकर्ता की चुनौती में योग्यता की कमी है।

    जस्टिस संजय धर ने राकेश रंजन श्रीवास्तव बनाम झारखंड राज्य (2024) 4 एससीसी 419 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए NI Act की धारा 143-ए की विवेकाधीन प्रकृति पर जोर दिया, जिसमें अंतरिम मुआवजा देने के मानदंडों की रूपरेखा दी गई।

    हाईकोर्ट ने पाया कि मजिस्ट्रेट के आदेश में अधिकतम अंतरिम मुआवजा देने के लिए कोई तर्क नहीं दिया गया, इसलिए यह आवश्यक कानूनी मानकों को पूरा करने में विफल रहा है।

    जस्टिस धर ने कहा,

    "ट्रायल मजिस्ट्रेट ने याचिकाकर्ता के खिलाफ अंतरिम मुआवजे की अधिकतम राशि यानी चेक राशि का 20% देने के लिए कोई कारण नहीं बताया।"

    परिणामस्वरूप, हाईकोर्ट ने मजिस्ट्रेट का आदेश रद्द कर दिया और ट्रायल मजिस्ट्रेट को सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित दिशानिर्देशों को ध्यान में रखते हुए नया आदेश पारित करने का निर्देश दिया।

    केस टाइटल- मुजीब उल अशरफ डार बनाम मुश्ताक अहमद वानी

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