सीआरपीसी की धारा 125 | मुस्लिम पति जब तक तलाक का सही उच्चारण और उचित रूप से संचार नहीं करता, तब तक पत्नी के भरण पोषण के अपने दायित्व से नहीं बच सकता: जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट

Shahadat

5 Sep 2022 5:32 AM GMT

  • सीआरपीसी की धारा 125 | मुस्लिम पति जब तक तलाक का सही उच्चारण और उचित रूप से संचार नहीं करता, तब तक पत्नी के भरण पोषण के अपने दायित्व से नहीं बच सकता: जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट

    J&K&L High Court

    जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि मुस्लिम पति को अपनी पत्नी को तलाक देने के आधार पर उसके भरण-पोषण के अपने दायित्व से बचने के लिए न केवल यह दिखाना होगा कि तलाक मुस्लिम कानून के अनुसार वैध रूप से सुनाया गया है, बल्कि उसे यह भी दिखाना होगा कि उक्त तलाक की सूचना पत्नी को दे दी गई है।

    जस्टिस संजय धर की पीठ उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें याचिकाकर्ता ने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, बडगाम द्वारा पारित आदेश को चुनौती दी। इस आदेश में जम्मू-कश्मीर सीआरपीसी की धारा 488 (सीआरपीसी की धारा 125 के साथ परी मटेरिया) के तहत मजिस्ट्रेट ने प्रतिवादी नंबर एक को 2000 रुपये और प्रतिवादी नंबर दो को 1500 रुपये का मासिक अंतरिम गुजारा भत्ता दिया। याचिकाकर्ता ने सत्र न्यायाधीश, बडगाम द्वारा पारित आदेश को भी चुनौती दी, जिसके द्वारा सत्र न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश के खिलाफ पुनर्विचार याचिका को खारिज करते हुए सत्र न्यायाधीश ने इसकी वैधता को बरकरार रखा।

    याचिकाकर्ता ने मुख्य रूप से इस आधार पर भरण-पोषण के आदेश को चुनौती दी कि तलाकशुदा मुस्लिम पत्नी जम्मू-कश्मीर सीआरपीसी की धारा 488 में निहित प्रावधानों के अनुसार भरण-पोषण की हकदार नहीं है। इसलिए उसके पक्ष में अंतरिम भरण पोषण भी नहीं दिया जा सकता। याचिकाकर्ता ने आगे अदालत को सूचित किया कि उस प्रतिवादी नंबर एक को याचिकाकर्ता द्वारा अंजुमन शैरी शिया जम्मू-कश्मीर द्वारा जारी संचार दिनांक 10.01.2019 के अनुसार तलाक दे दिया गया, इसलिए वह याचिकाकर्ता से किसी भी भरष-पोषण की हकदार नहीं है।

    अदालत के समक्ष न्यायनिर्णयन के लिए विवादास्पद प्रश्न यह था कि क्या अंजुमन शरीय शियान, जम्मू-कश्मीर द्वारा जारी किए गए दस्तावेज की प्रस्तुति निर्णायक रूप से और/या यहां तक ​​कि प्रथम दृष्टया यह दर्शाएगी कि प्रतिवादी नंबर एक को याचिकाकर्ता द्वारा तलाक दे दिया गया, जो बदले में इस सवाल का जवाब दिया कि क्या प्रतिवादी नंबर एक याचिकाकर्ता से भरण-पोषण का दावा करने का हकदार है।

    मामले का फैसला करते हुए पीठ ने कहा कि यह स्पष्ट है कि मुस्लिम पति को अपनी पत्नी को तलाक देने के आधार पर अपनी पत्नी को बनाए रखने के दायित्व से बचने के लिए न केवल यह दिखाना है कि तलाक मुस्लिम कानून के अनुसार वैध रूप से सुनाया गया है, बल्कि उसे यह भी दिखाना होगा कि उक्त तलाक की सूचना पत्नी को दे दी गई है।

    कानून की उक्त स्थिति को स्पष्ट करते हुए पीठ ने शमीम आरा बनाम यूपी राज्य और अन्य, (2002) 7 एससीसी 518 में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों को दर्ज किया, जिसमें एससी ने देखा,

    "प्रतिवादी नंबर दो को सबूत जोड़ना चाहिए और 11.7.1987 को तलाक की घोषणा को साबित करना चाहिए। यदि वह लिखित बयान में उठाई गई याचिका को साबित करने में विफल रहा तो याचिका को विफल माना जाना चाहिए। हम इससे सहमत नहीं हैं कि मुल्ला और डॉ ताहिर महमूद द्वारा अपनी-अपनी टिप्पणियों में निर्दिष्ट मामलों में प्रतिपादित विचार, जिसमें लिखित बयान में पिछले तलाक की मात्र दलील है, उसको तलाक के प्रमाण के रूप में स्वीकार किया गया है, जिससे वैवाहिक जीवन समाप्त हो गया है।"

    पीठ ने मोहम्मद नसीम भट बनाम बिल्कीस अख्तर और एक अन्य मामले में जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के फैसले पर भी भरोसा किया, जिसमें कोर्ट ने देखा कि पति के लिए अपनी पत्नी को बनाए रखने के लिए विवाह के तहत अपने दायित्वों से बाहर निकलने के लिए उसे तलाक देने का दावा करने से केवल यह साबित नहीं होता है कि उसने तलाक का उच्चारण किया है या तलाक के विलेख को निष्पादित किया है।

    अपनी पत्नी को तलाक देते समय उसे अनिवार्य रूप से याचना करनी पड़ती है और निम्नलिखित तथ्यों को साबित करना होता है: -

    I) पति और पत्नी के प्रतिनिधियों द्वारा पक्षों के बीच हस्तक्षेप करने, विवादों और असहमति को निपटाने का प्रयास किया गया और पति के कारण नहीं होने वाले कारणों के लिए इस तरह के प्रयास का कोई फल नहीं निकला।

    II) उसके पास अपनी पत्नी को तलाक देने का वैध और वास्तविक कारण है।

    III) तलाक दो गवाहों की उपस्थिति में सुनाया गया, जो न्याय के साथ समाप्त हुआ।

    IV) इस अवधि के दौरान तलाक का उच्चारण किया गया।

    कानून पर आगे चर्चा करते हुए पीठ ने कहा,

    "याचिकाकर्ता याचिका के साथ आया कि उसने 10.01.2019 को प्रतिवादी नंबर एक को तलाक दे दिया। याचिकाकर्ता पर यह दिखाने का बोझ है कि प्रतिवादी नंबर एक को तलाक देने का उसका कार्य इस्लामी कानून के अनुसार वैध है और तलाक प्रतिवादी नंबर एक को सूचित किया गया। यह साक्ष्य का स्थापित सिद्धांत है कि जो कोई तथ्य का आरोप लगाता है उसी पर उक्त तथ्य को साबित करने का बोझ होता है। इसलिए उक्त तथ्य को स्थापित करने के लिए बोझ उस पर है और जब तक कि वह उक्त बोझ का निर्वहन नहीं करता तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि उसके और प्रतिवादी नंबर एक के बीच विवाह भंग हो गया है।"

    याचिका को खारिज करते हुए पीठ ने कहा कि यह स्पष्ट है कि जब तक याचिकाकर्ता यह दिखाने के अपने बोझ का निर्वहन नहीं करता कि प्रतिवादी नंबर एक के साथ उसका संबंध समाप्त हो गया है, वह उक्त प्रतिवादी को बनाए रखने के लिए अपने दायित्व से बाहर नहीं हो सकता। याचिकाकर्ता मामले में मुकदमे का सामना करने के बाद ही ऐसा कर सकता है और जब तक वह प्रतिवादी को अंतरिम गुजारा भत्ता देने के लिए बाध्य है।

    केस टाइटल: मोहम्मद अली भट बनाम शफीका बानो और अन्य

    साइटेशनः लाइव लॉ (जेकेएल) 137/2022

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