[मेडिकल लापरवाही] मेडिकल पेशेवरों के खिलाफ आपराधिक कानून लागू करने से पहले विशेषज्ञ की राय लेना आवश्यक: जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट

Shahadat

3 Sep 2022 9:29 AM GMT

  • [मेडिकल लापरवाही] मेडिकल पेशेवरों के खिलाफ आपराधिक कानून लागू करने से पहले विशेषज्ञ की राय लेना आवश्यक: जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट

    जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने शुक्रवार को फैसला सुनाया कि आपराधिक लापरवाही के अपराध के लिए मेडिकल पेशेवरों पर मुकदमा चलाने से पहले आपराधिक अदालत को मेडिकल एक्सपर्ट की राय लेनी चाहिए। यदि इस तरह की राय से मेडिकल पेशेवर के खिलाफ आपराधिक लापरवाही का प्रथम दृष्टया मामला बनता है तो तभी आपराधिक कानून की मशीनरी को चालू किया जाना चाहिए।

    जस्टिस संजय धर की पीठ उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसके माध्यम से याचिकाकर्ता ने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, पुलवामा द्वारा पारित आदेश को चुनौती दी। इसमें एसएचओ, पी/एस, पुलवामा को एफआईआर दर्ज करने और मामले की जांच करने का निर्देश जारी किया गया। मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के पूर्वोक्त निर्देश के अनुसार पी/एस पुलवामा के साथ दर्ज की गई आरसीपी की धारा 304-ए के तहत अपराध के लिए दर्ज एफआईआर को भी चुनौती दी गई।

    रिकॉर्ड के अवलोकन से पता चला कि प्रतिवादी नंबर एक ने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, पुलवामा के समक्ष शिकायत दर्ज की। इसमें आरोप लगाया गया कि उसकी मौसी याचिकाकर्ता के इलाज में थी और उसके इलाज के दौरान, याचिकाकर्ता ने दवाई दी। शिकायतकर्ता के अनुसार, मृत रोगी की मृत्यु निर्धारित दवा के सेवन के कारण हुई, जो कि शिकायतकर्ता के अनुसार, याचिकाकर्ता द्वारा निर्धारित गलत उपचार है।

    याचिकाकर्ताओं की ओर से एडवोकेट आरिफ सिकंदर मीर ने तर्क दिया कि यह मजिस्ट्रेट के लिए मेडिकल बोर्ड की राय प्राप्त किए बिना उक्त शिकायत के आधार पर एफआईआर दर्ज करने का निर्देश देने के लिए खुला नहीं है। एडवोकेट आरिफ सिकंदर ने आगे तर्क दिया कि याचिकाकर्ता सरकारी कर्मचारी है, जिसे सरकार द्वारा सेवा से हटाया जा सकता है, जैसे, सीआरपीसी की धारा 197 के तहत अभियोजन की मंजूरी प्राप्त किए बिना उसके खिलाफ एआईआर दर्ज करने का निर्देश नहीं दिया जा सकता है।

    इस मामले पर निर्णय देते हुए जस्टिस धर ने कहा कि इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों की श्रेणी को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक है कि जब भी किसी आपराधिक न्यायालय द्वारा किसी डॉक्टर या अस्पताल के खिलाफ शिकायत प्राप्त हो तो डॉक्टर या अस्पताल को नोटिस जारी करने से पहले जिसके खिलाफ शिकायत की गई, आपराधिक न्यायालय को पहले मामले को सक्षम डॉक्टर या डॉक्टरों की समिति को संदर्भित करना चाहिए, जो उस क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त करता है, जिसके संबंध में मेडिकल लापरवाही को जिम्मेदार ठहराया जाता है। उसके बाद ही मेडिकल लापरवाही के मामले में संबंधित डॉक्टर/अस्पताल को नोटिस जारी किया जाना चाहिए।

    इस तरह के उपायों को अपनाने की आवश्यकता के बारे में बताते हुए पीठ ने कहा कि डॉक्टरों को उत्पीड़न से बचने के लिए यह बेहद जरूरी है, जो अंततः लापरवाही नहीं पाए जा सकते।

    कानून की उक्त स्थिति पर बल देते हुए बेंच ने जैकब मैथ्यू बनाम पंजाब राज्य, (2005) में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों को रिकॉर्ड करना सार्थक पाया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा,

    "निजी शिकायत पर तब तक विचार नहीं किया जा सकता जब तक कि शिकायतकर्ता ने आरोपी डॉक्टर की ओर से लापरवाही के आरोप का समर्थन करने के लिए किसी अन्य सक्षम डॉक्टर द्वारा दी गई विश्वसनीय राय के रूप में अदालत के समक्ष प्रथम दृष्टया सबूत पेश नहीं किया। जांच अधिकारी को उतावलेपन या लापरवाहीपूर्ण कार्य या चूक के आरोपी डॉक्टर के खिलाफ कार्रवाई करने से पहले सरकारी सेवा में डॉक्टर से स्वतंत्र और सक्षम मेडिकल राय प्राप्त करनी चाहिए, जो मेडिकल पद्धति की उस शाखा में योग्य हो, जिससे सामान्य रूप से निष्पक्ष राय देने की उम्मीद की जा सकती है।"

    इस मामले पर कानून की बताई गई स्थिति पर आगे प्रकाश डालते हुए जस्टिस धर ने कहा,

    "न्यायालय मेडिकल साइंस के एक्सपर्ट नहीं हैं, इसलिए वे एक्सपर्ट के विचारों को प्रतिस्थापित नहीं कर सकते। मेडिकल साइंस अचूक साइंस है और रोगी के उपचार के परिणाम की निश्चितता के साथ भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। कभी-कभी सर्वोत्तम प्रयासों के बाद भी डॉक्टर द्वारा किया गया रोगी का उपचार अंततः विफल हो सकता है, लेकिन केवल इसलिए कि उसके उपचार से वांछित परिणाम नहीं मिला है, उसे आपराधिक लापरवाही के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। मेडिकल लापरवाही के मामले से निपटने के दौरान इन सभी कारकों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। इसलिए, मेडिकल एक्सपर्ट की राय के बिना आपराधिक न्यायालयों को मेडिकल पेशेवर के खिलाफ आपराधिक कानून को गति देने से बचना होगा"

    पीठ ने स्पष्ट किया कि भले ही ललिता कुमारी बनाम यूपी राज्य, (2014) में सुप्रीम कोर्टॉ ने माना कि सीआरपीसी की धारा 154 सभी संज्ञेय अपराधों से संबंधित जानकारी प्राप्त होने पर एफआईआर दर्ज करने के लिए अनिवार्य है, लेकिन यह समय बीतने के साथ अपराधों की उत्पत्ति और नवीनता में परिवर्तन के कारण प्रारंभिक जांच की आवश्यकता हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसा ही उदाहरण डॉक्टरों की ओर से मेडिकल लापरवाही से संबंधित आरोपों के मामले में है, क्योंकि शिकायत में आरोपों के आधार पर केवल मेडिकल पेशेवर पर मुकदमा चलाना अनुचित होगा।

    पूर्वगामी कारणों से पीठ ने याचिका को स्वीकार कर लिया और आक्षेपित आदेश के साथ-साथ आक्षेपित एफआईआर भी रद्द कर दी।

    केस टाइटल: फारूक अहमद भट बनाम सैयद बशारत सलीम

    साइटेशन: लाइव लॉ (जेकेएल) 127/2022

    याचिकाकर्ता के वकील: एडवोकेट आरिफ सिकंदर मीर

    प्रतिवादियों के लिए वकील: शब्बीर अहमद डार

    ऑर्डर डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



    Next Story