त्रिपुरा हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स (एनआई) अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज करने में देरी को माफ करने से पहले एक अदालत को आरोपी को नोटिस जारी करने और उसकी सुनवाई करने की आवश्यकता है।
जस्टिस अरिंदम लोध की पीठ ने कहा,
"... एनआई अधिनियम की धारा 138 के तहत यदि वैधानिक अवधि की समाप्ति के बाद मूल शिकायत दर्ज की जाती है तो ऐसे मामलों में देरी को माफ करने से पहले एनआई अधिनियम की धारा 142 (बी) के प्रावधान के अनुसार आरोपी को देरी के लिए आवेदन की एक प्रति के साथ नोटिस दिया जाएगा।"
संक्षेप में मामला
न्यायालय एनआई अधिनियम मामले के संबंध में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, अगरतला, पश्चिम त्रिपुरा द्वारा पारित 2020 के फैसले को चुनौती देने वाली अपील पर सुनवाई कर रहा था। अपने फैसले में अदालत ने आरोपी-प्रतिवादी को नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत उसके खिलाफ लगाए गए आरोपों से बरी कर दिया और शिकायतकर्ता-अपीलकर्ता द्वारा दायर आवेदन को खारिज कर दिया।
ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ता-शिकायतकर्ता के मामले को इस टिप्पणी के साथ खारिज कर दिया कि शिकायत दर्ज करने में 10 दिनों की देरी हुई और रिकॉर्ड पर स्पष्ट रूप से देरी को नज़र अंदाज़ करके मामले को आगे बढ़ाया गया था। नतीजतन, प्रतिवादी/अभियुक्त को बरी कर दिया गया।
न्यायालय की टिप्पणियां
कोर्ट ने कहा कि यदि एनआई अधिनियम की धारा 138 के तहत निर्धारित वैधानिक अवधि के बाद शिकायत दर्ज की जाती है तो शिकायतकर्ता को अदालत को संतुष्ट करना चाहिए कि उसके पास ऐसी निर्धारित अवधि के भीतर अर्थात एनआई अधिनियम की धारा 138 के प्रोविसो (सी) के तहत कार्रवाई का कारण उत्पन्न होने की तिथि के एक महीने के भीतर शिकायत नहीं करने के लिए पर्याप्त कारण हैं।
न्यायालय ने यह भी नोट किया कि एनआई अधिनियम की धारा 142 की उप-धारा (1) के खंड (बी) के प्रावधान के अनुसार, अदालत तभी संज्ञान ले सकती है जब शिकायतकर्ता अदालत को संतुष्ट करने में सक्षम हो कि उसके पास एक माह में शिकायत न करने का पर्याप्त कारण है।
इस सवाल के बारे में कि क्या देरी को माफ करने से पहले आरोपी को सुना जाना चाहिए, अदालत ने शंकर चौधरी बनाम त्रिपुरा राज्य और दूसरा, (2019) 2 टीएलआर 134 मामले को ध्यान में रखते हुए इस प्रकार कहाः
"एनआई अधिनियम की धारा 142 (बी) के प्रावधान का लाभ उठाने के लिए शिकायतकर्ता को इस तरह की देरी के लिए पर्याप्त और संतोषजनक कारण बताते हुए देरी की माफी के लिए आवेदन दायर करना अनिवार्य है, क्योंकि उसमें संलग्न उक्त प्रावधान वास्तविक है न कि प्रक्रियात्मक। इस तरह के क्षमा आवेदन की प्राप्ति पर न्यायालय को शिकायत की प्रति के साथ उस पर नोटिस जारी करना होगा और आरोपी को सुनवाई का उचित अवसर देने के बाद उसका निपटान करना होगा। न्यायालय योग्यता के अनुसार देरी की माफी के आवेदन पर उचित आदेश पारित करेगा । इस चरण को समाप्त किए बिना संज्ञान नहीं लिया जाएगा।"
मामले के तथ्यों की ओर मुड़ते हुए अदालत ने कहा कि 30 दिनों की वैधानिक अवधि के 10 दिनों के बाद अदालत के समक्ष शिकायत दायर की गई थी, जिसमें देरी के लिए आवेदन दायर नहीं किया गया और उक्त देरी को माफ करने के लिए कोई विशेष आदेश पारित नहीं किया गया।
न्यायालय का मत था कि न्यायालय ने गलत तरीके से संज्ञान लिया और मुकदमे की आगे की कार्यवाही ने शिकायतकर्ता और आरोपी दोनों में गंभीर पूर्वाग्रह पैदा किया।
दोषमुक्ति के आक्षेपित निर्णय को रद्द कर दिया गया और मामले को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, अगरतला, पश्चिम त्रिपुरा की अदालत में नए सिरे से विचार के लिए भेज दिया गया।
केस टाइटल- सुमित देब बनाम जॉय देब और अन्य
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