केशवानंद भारती केसः जिसके बाद दुनिया ने संवैधानिक विचारों के लिए भारत की ओर देखा

LiveLaw News Network

29 April 2020 12:30 PM IST

  • केशवानंद भारती केसः जिसके बाद दुनिया ने संवैधानिक विचारों के लिए भारत की ओर देखा

    कनिका हांडा, अंजलि अग्रवाल

    [यह आलेख केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में दिए गए ऐतिहास‌िक फैसले के 47 वर्ष पूरा होने के अवसर पर आयोजित विशेष सीरीज़ का हिस्सा है। उक्त फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 'मूल संरचना सिद्धांत' का ‌निर्धारण किया था।]

    विभिन्न कानूनी प्रणालियों से कानूनी सिद्धांतों का आयात नई अवधारणा नहीं है। यह सदियों से होता रहा है। विदेशी अदालतों के फैसले बाध्यकारी नहीं होते, फिर भी प्रेरक श‌‌क्त‌ि रूप में उनकी गिनती होती रहती है।1973 में द‌िया गया भारतीय फैसला, "केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1) ने विदेशी कानूनी प्रणालियों को भी प्रभावित किया है।

    केशवानंद केस में 'मूल सरंचना सिद्धांत' का निर्धारण किया गया था, जिसे बाद में कई संवैधानिक अदालतों ने अपने देशों में मान्यता दी। इस सिद्धांत का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि किसी संविधान की मूलभूत विशेषताओं को नष्ट नहीं किया जाना चाहिए और संविधान की सर्वोच्चता को संरक्षित रखा जाना चाहिए।

    इस लेख में, उन उदाहरणों को सूचीबद्ध किया गया है, जहां विदेशी अदालतों ने इस ऐतिहासिक फैसले का हवाला दिया और भरोसा किया है।

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    केशवानंद के फैसले के 16 साल बाद, बांग्लादेश की सुप्रीम कोर्ट ने अनवर हुसैन चौधरी बनाम बांग्लादेश (2) में मूल सरंचना सिद्धांत को भी मान्यता दी ‌थी। इस केस में एमएच रहमान, जे ने कहा था,

    "... कई बार, मुझे लगा कि मानो कोर्ट केशवानंद को दोहराव कर रही है, अपीलकर्ताओं को बहुमत के फैसले पर भरोसा था, और प्रतिवादियों को अल्पसंख्यक फैसले पर निर्भर थे।" (3)

    इस मामले में, बांग्लादेश के संविधान के आठवें संशोधन को चुनौती दी गई थी, जिसके तहत संसद ने हाई कोर्ट ड‌‌िविजन की छह स्थायी पीठों की स्थापना की थी। (4)

    इन पीठों को क्षेत्रीय आधार पर विशेष अधिकार क्षेत्र दिए गए थे, जिसके तहत एक अदालत/पीठ से दूसरी में मामलों के हस्तांतरण के प्रावधान पर रोक लगा दी गई थी। इसके अलावा, संशोधित प्रावधान के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश द्वारा नामांकन पर, न्यायाधीशों को स्थायी पीठ में स्थानांतरित करने के लिए विचार किया गया था।(5)

    बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट ने संशोधित अनुच्छेद 100 पर सावधानीपूर्वक विचार करने के बाद उसे 3:1 के बहुमत से अवैध करार दिया।

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    बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट ने कहा,-

    -संशोधन के जर‌िए स्थायी बेंच बनाना, हाईकोर्ट डिवीजन के समानांतर एक इकाई बनाने का प्रयास है। हाईकोर्ट डिवीजन के प्रतिद्वंद्वी न्यायालयों की स्थापना और प्रादेशिक विभाजनों को लागू करना, संवैधानिक ताने-बाने में खलल डालने के बराबर है।(6) बांग्लादेश में, राज्य का एकात्मक रूप अपनाया गया है; यह सुप्रीम कोर्ट की एकात्मक संरचना में भी परिलक्षित होता है। उक्त संशोधन न्यायपालिका की इस एकात्मक विशेषता के साथ छेड़खानी करता है।

    -न्याय प्रदान करने के लिए मामलों के हस्तांतरण का प्रावधान आवश्यक है, जिसे इस संशोधन के आधार पर नकार दिया गया है; यह 'कानून के शासन' को पंगु बनाता है। (8)

    -संविधान का एक निर्मिति होने के कारण, संसद की शक्तियों का स्रोत अनुच्छेद 7 है। (9), इसलिए उसके पास संविधान में संशोधन करने की असीमित शक्ति नहीं है। (10)

    -संविधान ने तीन संरचनात्मक स्तंभों का निर्माण किया है- विधायीका, कार्यकारणी और न्यायपालिका। इस संशोधन के के जर‌िए एक संरचनात्मक स्तंभ यानी न्यायपालिका को नष्ट कियाग या, जो स्वीकार्य नहीं है।(11)

    -यदि एक संवैधानिक प्रावधान का संशोधन और एक कानून एक ही वस्तु हैं तो यह संविधान है, जिसकी स्थिति सामान्य कानून के स्तर तक गिर जाएगी। (12)

    -न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान की मूल विशेषता है और एक विचारणीय प्रवधानों द्वारा न्यायाधीशों का स्थानांतरण अनुच्छेद 147 का उल्लंघन है। (13)

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    विदेशों में केशवानंद केस के प्रभाव की चर्चा करने के क्रम में पाकिस्तान के दृष्टिकोण का उल्लेख करना महत्वपूर्ण है। जैसा कि एक स्कूल ऑफ ‌थॉट (एक पुरानी पोस्ट में चर्चा की जा चुकी है) मानता है कि भारत में मूल संरचना सिद्धांत पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एआर कूहेलियस द्वारा फजलुल कादर चौधरी बनाम मोहम्मद अब्दुल हक के मामले में दिए फैसले से प्रभावित था। (14), जिसमें माननीय न्यायमूर्ति ने 'संविधान की मौलिक विशेषता' वाक्यांश का उपयोग किया था।

    हालांकि, 2015 तक पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में मूल संरचना सिद्धांत को स्वीकार करने से परहेज किया; लेकिन 5 अगस्त, 2015 को डिस्ट्रिक्ट बार एसोसिएशन बनाम फेडरेशन ऑफ पाकिस्तान (15) मामले में 17 जजों की एक बेंच ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें संविधान के मौलिक प्रावधानों के संशोधन का अस्वीकार्य करार दिय गया।

    इस मामले में, सत्रह में से केवल चार जजों ने संविधान में संशोधन की संसद की शक्तियों की निहित सीमाओं की धारणा को खारिज किया। (16) अन्य पांच जजों ने 'निहित सीमाओं' को स्वीकार किया, लेकिन 'मूल संरचना सिद्धांत' को नहीं माना। (16) इस फैसले ने हालांकि इस्लामिक स्टेट में मूल संरचना सिद्धांत की स्वीकार्यता की आशंकाओं को खत्‍म किया , हालांकि संशोधनों को दी गई चुनौती विफल रही।

    इस मामले में दो संवैधानिक संशोधनों को चुनौती दी गई थी - एक संशोधन में न्यायिक नियुक्तियों के लिए एक नई प्रक्रिया शुरू की गई थी और दूसरे में, सैन्य अदालतों को एक विशेष वर्ग के व्यक्तियों के खिलाफ आपराधिक मामलों में मुकदमा चलाने का अधिकार दिया गया था। (16)

    उक्त संशोधनों पर बहस करते हुए दोनों पक्षों के वकीलों ने केशवानंद केस पर खूब चर्चा की। केशवादंन केस में निर्धार‌ित मूल संरचना सिद्धांत की उत्पत्ति और इतिहास को रेखांकित करने के बाद आठ जजों की ओर से लिखी गई बहुमत की राय यह थी कि केशवानंद केस में निर्धारित मूल संरचना सिद्धांत को न तो सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किया गया है और न ही खारिज किया गया है। (17) प्रत्येक देश ने अपने संवैधानिक इतिहास और अनुभव को देखते हुए इसकी प्रयोज्यता पर निर्णय लिया है।

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    न्यायालय ने पाया कि पाकिस्तान के संवैधानिक इतिहास में नौ मामलों में मूल संरचना सिद्धांत की प्रयोज्यता के मुद्दे का सामना किया गया था या इसे छुआ गया था; हालांकि यह निश्चित रूप से निर्धारित नहीं है। इन सभी मामलों का विश्लेषण करने के बाद, जजों के बहुमत ने कहा-

    "... संविधान यादृच्छिक प्रावधानों का एक गुच्छा नहीं है, जो एक साथ गुथे हैं, संविधान की निहित अखंडता और योजनाएं हैं, जो कुछ प्रावधानों में परिलक्षित हैं,जो इसकी मुख्य और निर्धारक विशेषताएं हैं।" (18)

    आगे कहा गया कि मूल विशेषताओं को सूचीबद्ध करना संभव नहीं है, हालांकि, "... सरकार का संसदीय स्वरूप और न्यायपालिका की स्वतंत्रता निश्चित रूप से प्रमुख विशेषताओं में शामिल है।" (19) "(लेकिन) ... संविधान की प्रमुख विशेषताओं को रोकने के लिए, हम संविधान के बाहर नहीं देख सकते हैं और इसे अमूर्त, राजनीतिक, दार्शनिक, और नैतिक सिद्धांतों में नहीं देखना चाहिए ..." (20)

    मैं इस बात पर जोर देना चाहूंगी कि भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने भी मूलभूत विशेषताओं की एक व्यापक सूची नहीं प्रदान की है; प्रत्येक मामले के तथ्यों के आधार पर यह तय होता है कि यह 'मूल विशेषता' है या नहीं।

    पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने आगे 'संसद की सर्वोच्चता बनाम संविधान की सर्वोच्चता' के मुद्दे को संबोधित किया और कहा कि- "संसद भी संविधान की ही एक निर्मि‌ति है और उसके पास उतनी ही शक्तियां हैं, जितनी उसे उक्त साधन के जर‌िए दी जा सकती हैं।"(21)

    पड़ोसी देशों बांग्लादेश और पाकिस्तान में केशवानंद केस के प्रभाव पर चर्चा करने के बाद, आइए देखें कि इसने कैरिबियाई राष्ट्र - बेलिज पर कैसे प्रभाव डाला। बेरी एम बोवेन बनाम अटॉर्नी जनरल ऑफ बेलीज (22) के मामले में, बेलीज कोर्ट ने मूल संरचना सिद्धांत को अपनाने के लिए केशवानंद केस और आईआर कोएल्हो केस (23) पर भरोसा किया। इस मामले में, एक संशोधन को चुनौती दी गई थी, जिसके द्वारा सरकार ने देश में पेट्रोलियम खनिजों पर पूर्ण नियंत्रण पाने का प्रयास किया था। (24) हालांकि, जिन भूस्वामियों को की जमीने छीने गई, उन्हें मुआवजे का दावा करने का अधिकार नहीं दिया गया। (24) मूल संरचना के उल्लंघन के आधार पर उक्त संशोधन को असंवैधानिक माना गया।

    एओ कोंटेह, सीजे ने कहा था-

    "मेरे विचार में, मूल संरचना सिद्धांत मौलिक अधिकारों के संदर्भ में संविधान की सर्वोच्चता की पुष्टि का आधार है।" (25)

    केशवानंद केस ने अफ्रीकी महाद्वीप का भी ध्यान आकर्षित किया। 2004 में केन्या के 1963 के संविधान को बदलने का असफल प्रयास किया गया। संवैधानिक समीक्षा प्रक्रिया, जिसे जनमत संग्रह या विधानसभा के बिना किया जा रहा था, को केशवानंद मामले पर भरोसा रखते हुए न्जोया बनाम अटॉर्नी जनरल (26) मामले में चुनौती दी गई। इस प्रकार की समीक्षा प्रक्रिया को विधानसभा की शक्तियों के खिलाफ असंवैधानिक होने का आरोप लगाया गया था।

    रिंगेरा, जे पूर्ण अवलोकन के बाद केशवानंद केस के फैसले को स्वीकार किया और कहा कि संसद की शक्ति मौजूदा संविधान के 'परिवर्तन' तक ही सीमित थी (27), नया संविधान बनाने का अधिकार (विधानसभा की शक्ति) पूर्ण रूप से केन्या के लोगों के पास है। (28)

    उन्होंने कहा,

    "मैं केशवानंद केस के फैसले से पूरी तरह सहमत हूं कि संसद के पास कोई शक्ति नहीं है, वह संशोधन की आड़ संविधान की मूल विशेषताओं को न बदल सकती है, न निरस्त कर सकती है और न ही एक नया संविधान लागू कर सकती है।" (29)

    2010 में केन्या में नया संविधान लागू किया गया, जिसमें मौजूदा संवैधानिक संस्थानों में सुधार का प्रयास किया गया। संविधान में, सुधारवादी दृष्टिकोण के अनुरूप, न्यायिक अधिकारियों के लिए एक पुनरीक्षण प्रक्रिया शुरू की गई। उक्त प्रक्रिया को न्यायिक समीक्षा से बाहर करने के लिए संविधान में एक आउस्टर क्लॉज जोड़ा गया। हालांकि केन्या के उच्च न्यायालय के समक्ष, लॉ सोसाइटी ऑफ केन्या बनाम

    सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स एंड डेमोक्रेसी मामले में इस आउस्टर क्लॉज को चुनौती दी गई। (30) आउस्टर क्लॉज की व्याख्या करते हुए केन्या उच्च न्यायालय ने केशवानंद मामले में अपनाए गए दृष्टिकोण पर भी चर्चा की।

    केशवानंद केस में निर्धारित मूल संरचना सिद्धांत को पूर्वी अफ्रीकी देश- युगांडा में भी स्वीकृति मिली। राष्ट्रपति पद के लिए निर्धारित आयु सीमा को हटाने के लिए एक संवैधानिक संशोधन किया गया; जिसे मेल एच मारलाइज के कीवानुका और अन्य बनाम अटॉर्नी जनरल मामले में चुनौती दी गई। (31)

    4: 3 के बहुमत से संशोधन को उचित माना गया और कहा गया कि राष्ट्रपति की आयु संविधान की मूल संरचना का हिस्सा नहीं है। यह पाया गया कि संशोधन का उद्देश्य लोगों की पसंद के दायरे को बढ़ाना है और इसलिए संवैधानिक है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए, न्यायालय ने विभिन्न कानूनी प्रणालियों के मूल संरचना सिद्धांतों का अध्ययन किया और पाया कि- "बुनियादी संरचना सिद्धांत न्यायाधीश-निर्मित भारतीय सिद्धांत है।" इस मामले में, केशवानंद प्रकरण पर न केवल 'मूल संरचना' के लिए भरोसा किया गया, बल्कि 'संविधान में प्रस्तावना के महत्व' के लिए उद्धृत किया गया।

    केशवानंद केस का उल्लेख अफ्रीकी द्वीप - सेशेल्स में भी किया गया। पॉपुलर डेमोक्रेटिक मूवमेंट बनाम इलेक्टोरल कमीशन (32) मामले में, जहां मुद्दा था कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है या नहीं, कोर्ट ऑफ अपील ऑफ सेशेल्स ने केशवानंद केस का जिक्र किया।

    संवैधानिक विचारों के वैश्‍विक स्तर के पार-परागण से से सभी अदालतों को लाभ होता है। (33) इससे न्यायविदों और न्यायाधीशों का नए दृष्टिकोण और नए परिप्रेक्ष्य से वाकिफ होने का मौका मिलता है। उन्हें एक-दूसरे के अनुभवों से सीखने का मौका मिलता है।

    केशवानंद प्रकरण पार-परागण का उपयुक्त उदाहरण है, जिसने 'संविधान में प्रस्तावना के महत्व', 'मूल संरचना सिद्धांत', 'संविधान की सर्वोच्चता', और 'संसद की संविधान संशोधन की सीमित शक्ति' के विचारों का प्रसार किया है।

    प्रोफ़ेसर डिट्र‌िच कॉनराड ने भी इस संदर्भ में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका की सराहना की है-

    "... संवैधानिक विचारों के मुक्त व्यापार में, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय निर्यातक की भूमिका निभाने आया है। यह न्यायालय द्वारा पेश किए गए कम से कम दो प्रमुख नवाचारों, जनहित याचिका और मूल संरचना सिद्धांत के संबंध में सही है।" (34)

    (कनिका हांडा सुप्रीम कोर्ट में विधि लिपिक सह अनुसंधान सहायक के रूप में कार्यरत हैं। अंजलि अग्रवाल दिल्ली में वकील हैं।)

    [1] (1973) 4 SCC 225.

    [2] LEX/BDAD/0011/1989: 41 DLR (AD) (1989) 165.

    [3] Ibid, पैरा 470.

    [4] बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट में दो डिवीजन हैं- अपीलीय डिवीजन और हाई कोर्ट डिवीजन।

    [5] Ibid, पैरा 244.

    [6] Ibid, पैरा 167.

    [7] Ibid, पैरा 291 pt. (4), (10) & (13).

    [8] Ibid, पैरा 296.

    [9] अनुच्छेद 7 के अुनसार, संविधान के साथ असंगत कोई भी कानून निष्प्रभावी है; यह घोषणा करता है कि संविधान गणराज्य का सर्वोच्च कानून है।

    [10] Ibid, पैरा 220.

    [11] Ibid, पैरा 292 & 294.

    [12] Ibid, पैरा 377.

    [13] Ibid, पैरा 296.

    [14] PLD 1963 SC 486.

    [15] 2015 SCC Online Pak SC 2.

    [16] माजिद र‌िजवी, "South Asian Constitutional Convergence Revisited: Pakistan and the Basic Structure Doctrine"

    http://www.iconnectblog.com/2015/09/south-asian-constitutional-convergence-revisited-pakistan-and-the-basic-structure-doctrine/#_ftn8 पर उपलब्ध (visited on April 25, 2020).

    [17] 2015 SCC Online Pak SC 2. Opinion authored by J. Sh. Azmat Saeed

    (Plurality Opinion-8 Judges), पैरा 25.

    [18] Ibid, पैरा 54.

    [19] Ibid, पैरा 61.

    [20] Ibid, पैरा 67.

    [21] Ibid, पैरा 63.

    [22] BZ 2009 SC 2.

    [23] AIR 2007 SC 861.

    [24] डेरेक ओ ब्रायन, "The Basic Structure Doctrine and the Courts of the Commonwealth Caribbean" UK Constitutional Law Blog (28th May 2013) available at: http://ukconstitutionallaw.org (Visited on April 26, 2020).

    [25] BZ 2009 SC 2, पैरा 119.

    [26] [2004] LLR 4788 (HCK).

    [27] Ibid, pg. 27.

    [28] Ibid, pg. 27.

    [29] Ibid, pg. 25.

    [30] 2013 SCC Online Ken 1120

    [31] Constitutional Appeal No. 02 of 2018, [2019] UGSC 6.

    [32] (2011) SLR 385: 2011 SCC Online SCCA 10.

    [33] एन्न मारी स्लाटर; "A Global Community of Courts" 44 Harvard International Law Journal 191 (2003), available at: https://www.jura.uni-hamburg.de/media/ueber-die-fakultaet/personen/albers-marion/seoul-national-university/course-outline/slaughter-2003-a-global-community-of-courts.pdf (accessed on : April 27, 2020).

    [34] "Basic Structure Doctrine in other Legal Systems", Available at: https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/229373/8/08_chapter 5.pdf (accessed on April 26, 2020).

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