जजों का अधिक्रमणः केशवानंद भारती के फैसले का भयावह अंजाम
LiveLaw News Network
26 April 2020 3:32 PM IST
स्वप्निल त्रिपाठी
[यह आलेख केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में दिए गए ऐतिहासिक फैसले के 47 वर्ष पूरा होने के अवसर पर आयोजित विशेष सीरीज़ का हिस्सा है। उक्त फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 'मूल संरचना सिद्धांत' का निर्धारण किया था।]
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य [(1973) 4 SCC 225] के फैसले के तहत सुप्रीम कोर्ट ने 'मूल संरचना सिद्धांत' का निर्धारण किया। 'मूल संरचना सिद्धांत' के अनुसार संविधान की कुछ मूलभूत विशेषताओं को छोड़कर संसद किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला तात्कालिक सत्तारूढ़ सरकार के लिए एक बड़ा झटका था, जो कि न्यायपालिका की निगहबानी की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की हर संभव कोशिश कर रही थी। फैसले का अंजाम तय था।
(केशवानंद भारती केस): प्रोफेसर कॉनराड, जो मूल संरचना सिद्धांत की प्रेरणा थे
केशवानंद भारती मामले में फैसला आने के दो दिनों के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी (तात्कालिक प्रधानमंत्री) ने सुप्रीम कोर्ट की एक परंपरा को तोड़ने का फैसला किया, जबकि यह परंपरा उतनी ही पुरानी थी, जितना पुराना सुप्रीम कोर्ट था। दरअसल, संविधान में भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के संबंध में कोई प्रावधान नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के बाद से वरिष्ठतम न्यायाधीश को भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जाता रहा, जिसे एक परिपाटी बना दिया गया था।
26 अप्रैल 1973 (यानी आज से 47 साल पहले) श्रीमती गांधी ने इस परिपाटी को तोड़ दिया और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम जज यानी जस्टिस हेगड़े को अधिक्रमित करते हुए जस्टिस एएन रे (जूनियर जज) को भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया।जस्टिस रे ने, वस्तुतः, जस्टिस शेलत और जस्टिस ग्रोवर को भी अधिक्रमित किया था, जिनका सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठता क्रम में दूसरा और तीसरा स्थान था और उन्हें भी तय समय पर चीफ जस्टिस बनना था। जवाब में अधिक्रमित किए गए तीनों जजों ने इस्तीफा दे दिया।
माना जाता है कि इंदिरा गांधी का यह फैसला, केशवानंद मामले में दिए गए फैसले के जवाब में था। तीनों सीनियर जजों ने केशवानंद मामले में सरकार के खिलाफ फैसला दिया था।
जस्टिस रे को इसलिए चुना गया था कि उन्हें सरकार के मित्रवत जज के रूप में देखा गया और सरकार का मानना था कि वह न्यायपालिका और सरकार के बीच टकराव को समाप्त कर सकते हैं। जस्टिस रे ने अपनी नियुक्ति पर कहा था, 'अगर मैं नियुक्ति को स्वीकार नहीं करता तो कोई और जूनियर जज स्वीकार कर लेता, मैंने इसके लिए लालायित नहीं था।' भारत के पूर्व अटॉर्नी जनरल श्री सीके दफ्तरी ने उस दिन को लोकतंत्र के इतिहास का सबसे काला दिन कहा था।
श्रीमती गांधी की सरकार ने चार साल बाद वरिष्ठता की परंपरा को फिर तोड़ा और इस बार शिकार बने थे महान न्यायाधीश जस्टिस एच आर खन्ना। 1975 में श्रीमती गांधी ने भारत में आपातकाल लगा दिया, जिसके बाद कई राजनेताओं और नागरिकों को मनमाने ढंग से हिरासत में ले लिया गया। इन गिरफ्तारियों को चुनौती दी गई और अंततः एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला (1976) 2 SCC 521 के जरिए ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
सरकार की ओर से पैरव्वी कर रहे अटॉर्नी जनरल नीरेन डे ने कहा कि आपातकाल में नागरिकों के अधिकारों को निलंबित कर दिया गया है, जिनमें कोर्ट में अपील करने का अधिकार भी शामिल है।मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस एचआर खन्ना ने श्री डे से पूछा, "अगर एक पुलिस अधिकार निजी दुश्मनी के कारण किसी की हत्या कर दे तो आपकी दलीलों की रोशनी में ऐसे हालात के लिए कोई उपाय है।" डे ने जवाब दिया "जब तक आपातकाल मौजूद है, ऐसे हालात के लिए कोई न्यायिक उपाय नहीं है।" उन्होंने आगे कहा, "यह आपकी अंतंरात्मा को झटका दे सकता है, मेरी अंतरात्मा को झटका दे सकता है, लेकिन ऐसे मामले में न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है।"
कोर्ट ने 4-1 के फैसले से सरकार की दलीलों पर सहमति व्यक्त की और यह माना कि आपातकाल की अवधि में एक नागरिक को अदालत में संपर्क करने का अधिकार नहीं है। फैसले में जिस एकमात्र जज ने असहमति दी थी, वह जस्टिस खन्ना थे।
असहमति का मूल्य जस्टिस खन्ना ने भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद गंवाकर चुकाना पड़ा। जस्टिस खन्ना का स्थान जस्टिस एमएच बेग ने लिया, बहाना यह था कि जस्टिस खन्ना का कार्यकाल बहुत छोटा होता।
मैंने एक आलेख में चर्चा कर चुका हूं कि इन कार्रवाइयों के वास्तुकार कानून मंत्री नहीं थे, बल्कि इस्पात मंत्री एम कुमारमंगलम थे। वह श्रीमती गांधी के प्रमुख सलाहकार थे और सुप्रीम कोर्ट को ऐसे जजों से भरना चाहते थे, जो सरकारी नीतियों का समर्थन करते हों।
दिलचस्प यह है कि, जजों को अधिक्रमित करने की यह गाथा श्रीमति इंदिरा गांधी के दौर से शुरु नहीं हुई। जजों को अधिक्रमित करने की इच्छा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरू के दौर में ही पनप चुकी थी। यह माना जाता है कि पं नेहरू जस्टिस एचजे कनिया को भारत के पहले मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने के पक्ष में नहीं थे। पंडित नेहरू का मानना था कि जस्टिस कानिया की कुछ कार्रवाइयों से सांप्रदायिकता की बू आती है। नेहरू ने गृहमंत्री सरदार पटेल के आश्वासन के बाद ही अपना मत वापस लिया था। सरदार पटेल ने उन्हें आश्वस्त किया था कि उन्होंने कनिया से बात की है।
स्वतंत्रता के बाद, नेहरू की अगुवाई में संसद ने कई सामाजिक कल्याणकारी कानून पेश किए, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर खारिज कर दिया था। उस समय नेहरू की प्रसिद्ध टिप्पणी थी कि 'हाथी दांत के बने महलों में बैठे जजों को देश की वास्तविक जरूरतों और समस्याओं की जानकारी नहीं हैं।'
उसी की रोशनी में, भारत ने जस्टिस पतंजलि शास्त्री के रूप में पहला अधिक्रमण देखा होता। पं नेहरू अटॉर्नी जनरल एमसी सेतलवाड या जस्टिस एमसी छागला या जस्टिस बीके मुखर्जी को जस्टिस शास्त्री के स्थान पर मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करना चाहते थे। हालांकि, जब सुप्रीम कोर्ट के अन्य छह जजों ने इस बारे में सुना तो उन्होंने इस्तीफा देने की धमकी दी, जिसके बाद योजना पर अमल नहीं किया गया।
1954 में नेहरू जस्टिस एमसी महाजन को अधिक्रमित कर जस्टिस बीके मुखर्जी को मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करना चाहते थे, हालांकि सहयोगी जजों ने एक बार फिर इस्तीफा देने की धमकी दी और पं नेहरू का इरादा बदल गया।
जस्टिस हेगड़े को अधिक्रमित करने के तीन साल पहले श्रीमती गांधी जस्टिस जेसी शाह को अधिक्रमित करना चाहती थीं, जिन्हें जस्टिस हिदायतुल्ला के बाद मुख्य न्यायाधीश बनना था। हालांकि, जस्टिस हिदायतुल्ला ने अन्य सहयोगी जजों (जस्टिस रे को छोड़कर) के साथ इस्तीफा देने की धमकी दी। ऐसा माना जाता है कि जस्टिस हिदायतुल्ला ने श्रीमती गांधी को भी धमकी दी थी कि भारत जल्द ही वकीलों के एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन की मेजबानी करेगा और अगर जस्टिस शाह को अधिक्रमित किया गया तो पूरी दुनिया को पता चल जाएगा कि क्या हुआ है।
श्रीमती गांधी की सरकार जस्टिस शाह के उत्तराधिकारी जस्टिस एसएम सीकरी को भी अधिक्रमित करना चाहती थी, हालांकि योजना आगे नहीं बढ़ी सकी, क्योंकि सरकार उस समय कांग्रेस पार्टी के भीतर के विवादों को सुलझाने में उलझी रही। जजों को अधिक्रमित किए जाने पर संसद के एक सदस्य ने टिप्पणी की थी कि, 'जिस बच्चे ने सबसे अच्छा निबंध लिखा था, उसे ही पुरस्कार मिला।'
सुप्रीम कोर्ट आजादी के बाद पहले 23 वर्षों में चीफ जस्टिस की नियुक्तियों में कार्यकारी हस्तक्षेप को रोकती रही, अधिक्रमण की कोशिशों को सामूहिक इस्तीफे की धमकी देकर विफल करती रही। हालांकि, 1973 में कोर्ट की एकता टूट गई। जस्टिस रे ने जस्टिस हेगड़े की कीमत पर भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद स्वीकार कर लिया। न्यायपालिका में कार्यकारी हस्तक्षेप शक्तियों के पृथक्करण के आधारभूत सिद्धांत का उल्लांघन हैं। सौभाग्य से, बाद में अधिक्रमण के प्रयास नहीं हुए, वरिष्ठता की परंपरा का बरकरार रखा गया।
(लेखक नई दिल्ली में वकील हैं। यह आलेख उनके निजी ब्लॉग "द बेसिक 'स्ट्रक्चर" पर प्रकाशित हो चुका है। आलेख का उद्देश्य कानून बिरादरी के किसी भी सदस्य को आहत करना नहीं है। आलेख में दिए गए तथ्य और घटनाएं सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं।)