BREAKING| 'राज्य सरकार किसी को भी अपना नाम प्रदर्शित करने के लिए बाध्य नहीं कर सकती': सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड सरकारों के निर्देश पर रोक लगाई
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड सरकार द्वारा जारी निर्देशों पर रोक लगा दी, जिसमें कहा गया था कि कांवड़ यात्रा मार्ग पर स्थित भोजनालयों को ऐसी दुकानों के बाहर मालिकों के नाम प्रदर्शित करने चाहिए।
जस्टिस ऋषिकेश रॉय और जस्टिस एसवीएन भट्टी की खंडपीठ ने सरकार के निर्देशों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर नोटिस जारी करते हुए अंतरिम आदेश पारित किया।
हालांकि खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि भोजनालयों को परोसे जा रहे भोजन के प्रकार को प्रदर्शित करना चाहिए।
याचिकाकर्ताओं ने इन निर्देशों को धार्मिक भेदभाव का कारण बताते हुए चुनौती दी और ऐसे निर्देश जारी करने के लिए अधिकारियों की शक्ति के स्रोत पर सवाल उठाया।
जस्टिस ऋषिकेश रॉय और जस्टिस एसवीएन भट्टी की सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने कांवड़ यात्रा के दौरान भोजनालयों पर मालिकों के नाम प्रदर्शित करने के निर्देश पर रोक लगाते हुए अंतरिम आदेश जारी किया।
मूल निर्देश मुजफ्फरनगर पुलिस द्वारा पारित किया गया था। इन निर्देशों को चुनौती देने वाली प्रोफेसर अपूर्वानंद सहित कई याचिकाएं दायर की गई थीं।
न्यायालय ने कहा कि कांवड़ियों को उनकी पसंद के अनुसार भोजन परोसे जाने की अनुमति है, लेकिन मानक स्वच्छता बनाए रखी जानी चाहिए।
निर्देशों का कोई तर्कसंगत संबंध नहीं
शुरुआत में याचिकाकर्ता की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी ने निर्देशों के पीछे के "तर्कसंगत संबंध" पर सवाल उठाया।
उन्होंने कहा कि स्थिति चिंताजनक है, क्योंकि इन निर्देशों को जारी करने वाले पुलिस अधिकारियों ने खुद ही विभाजन पैदा करने का बीड़ा उठा लिया।
डॉ. सिंघवी का दावा है कि इन निर्देशों से मालिकों की पहचान हो जाएगी और उनका आर्थिक बहिष्कार किया जाएगा। उन्होंने तर्क दिया कि इससे अन्य राज्यों में "डोमिनो प्रभाव" पड़ेगा।
खंडपीठ ने पूछा कि क्या ये प्रेस बयान में जारी किए गए 'आदेश' या 'निर्देश' हैं। इस पर डॉ. सिंघवी ने स्पष्ट किया कि पहले निर्देश प्रेस बयानों के माध्यम से जारी किए गए। हालांकि, अधिकारियों ने इसे सख्ती से लागू किया, उन्होंने बताया।
डॉ. सिंघवी ने कहा,
"ऐसा पहले कभी नहीं किया गया। इसका कोई वैधानिक समर्थन नहीं है। कोई भी कानून पुलिस आयुक्तों को ऐसा करने का अधिकार नहीं देता है। यह निर्देश हर हाथगाड़ी, चाय की दुकान वालों के लिए है। कर्मचारियों और मालिकों के नाम देने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होता।''
जस्टिस रॉय ने फिर पूछा कि क्या सरकार ने कोई औपचारिक आदेश जारी किया।
डॉ. सिंघवी ने जवाब दिया कि यह "छिपा हुआ आदेश" है।
जस्टिस रॉय ने बताया कि कुछ निर्देश स्वैच्छिक प्रकृति के हैं।
इस पर डॉ. सिंघवी ने कहा,
"माई लॉर्ड उन लोगों के लिए कठोर है, जो उल्लंघन करते हैं, और जब लोग बहुत चालाक होते हैं और छलावरण करते हैं तो और भी कठोर होते हैं।"
खंडपीठ ने पूछा कि क्या निर्देशों में किसी तरह की जबरदस्ती है।
डॉ. सिंघवी ने अदालत को बताया कि इनमें से कुछ निर्देशों का पालन न करने पर उल्लंघनकर्ताओं पर जुर्माना लगाया जाता है। उन्होंने आगे तर्क दिया कि ये निर्देश एक बड़ा मुद्दा उठाते हैं, जो यह है कि पहचान के आधार पर बहिष्कार होगा।
हालांकि, जस्टिस भट्टी ने कहा कि इस मुद्दे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की जरूरत नहीं है। उन्होंने संक्षेप में कहा कि इन निर्देशों के तीन आयाम हैं: सुरक्षा, मानक और धर्मनिरपेक्षता।
दशकों से कांवड़ यात्रा होती आ रही है
डॉ. सिंघवी ने कोर्ट को बताया कि देश में दशकों से कांवड़ यात्रा होती आ रही है।
उन्होंने कहा कि कोर्ट को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि सभी धर्मों के लोग - मुस्लिम, ईसाई और बौद्ध - कांवड़ियों की मदद करते आ रहे हैं।
शाकाहारी और मांसाहारी भोजन के मुद्दे पर डॉ. सिंघवी ने कोर्ट को बताया कि मांसाहारी भोजन परोसने के मामले में सख्त कानून हैं।
उन्होंने कहा,
“हिंदुओं द्वारा चलाए जाने वाले कई शुद्ध शाकाहारी रेस्टोरेंट हैं, लेकिन उनमें मुस्लिम कर्मचारी हैं। क्या मैं कह सकता हूं कि मैं वहां जाकर नहीं खाऊंगा? क्योंकि भोजन को किसी तरह से वे [मुस्लिम कर्मचारी] छूते हैं?”
जस्टिस भट्टी ने दिलचस्प कहानी सुनाई। उन्होंने बताया कि केरल में एक होटल हिंदू द्वारा चलाया जाता है और दूसरा मुस्लिम द्वारा। लेकिन वे अक्सर मुस्लिम के स्वामित्व वाले शाकाहारी होटल में जाते हैं, क्योंकि वे स्वच्छता के अंतरराष्ट्रीय मानकों को बनाए रखते हैं।
क्या निर्देश स्वैच्छिक हैं?
डॉ. सिंघवी ने बताया कि निर्देश में “स्वेच्छा से” लिखा है। उन्होंने तर्क दिया कि ये निर्देश इसलिए छिपाए गए हैं, क्योंकि अगर नाम उजागर किए गए तो व्यक्ति को आर्थिक रूप से वंचित होना पड़ेगा। अगर नाम उजागर नहीं किए गए तो व्यक्ति को जुर्माना भरना पड़ेगा।
डॉ. सिंघवी ने स्पष्ट किया कि हालांकि ये स्वैच्छिक निर्देश हो सकते हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बयान जारी किया कि ये निर्देश सामान्य रूप से सभी जिलों पर लागू होंगे।
शुरू में ये निर्देश मुजफ्फरनगर पुलिस ने जारी किए। अब अलीगढ़ नगर निगम और अन्य जिलों में भी इसी तरह के निर्देश जारी किए गए, जिससे अन्य राज्यों में भी इसका असर देखने को मिल रहा है।
इसी तरह की याचिका की पैरवी कर रहे सीनियर एडवोकेट सीयू सिंह ने बताया कि समाचार रिपोर्टों से पता चला है कि नगर निगमों के निर्देशों का पालन न करने पर 2000 से 5000 रुपये का जुर्माना लगेगा।
डॉ. सिंघवी ने कहा कि अल्पसंख्यक समुदाय के कई लोगों ने कथित तौर पर अपनी नौकरी खो दी है।
कानून में केवल कैलोरी और भोजन की प्रकृति को प्रदर्शित करने का प्रावधान
डॉ. सिंघवी ने खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006 के तहत खाद्य सुरक्षा मानक (लेबलिंग और प्रदर्शन) विनियम, 2020 का हवाला दिया और तर्क दिया कि कानून मालिकों को अपने भोजनालयों का नाम उनके नाम से रखने का निर्देश नहीं देता है।
उन्होंने अदालत को बताया कि कानून में खाद्य पदार्थों पर केवल दो शर्तें निर्धारित की गई, यानी खाद्य पदार्थों पर केवल कैलोरी और शाकाहारी या मांसाहारी लेबलिंग का उल्लेख किया जाना चाहिए।
संक्षेप में मामला
कांवड़ यात्रा शिव भक्तों द्वारा की जाने वाली वार्षिक तीर्थयात्रा है, जिन्हें कांवड़िए या "भोले" के रूप में जाना जाता है, जिसके दौरान वे गंगा नदी से पवित्र जल लाने के लिए उत्तराखंड में हरिद्वार, गौमुख और गंगोत्री और बिहार के भागलपुर के सुल्तानगंज में अजगैबीनाथ जैसे प्रमुख हिंदू तीर्थ स्थलों की यात्रा करते हैं।
18 जुलाई, 2024 को मुजफ्फरनगर के सीनियर पुलिस अधीक्षक ने निर्देश जारी किया, जिसमें कांवड़ मार्ग के साथ सभी भोजनालयों को मालिकों के नाम प्रदर्शित करने की आवश्यकता है। इस निर्देश को 19 जुलाई, 2024 को पूरे राज्य में लागू कर दिया गया। बताया जा रहा है कि अब उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के सभी जिलों में इस निर्देश का सख्ती से पालन किया जा रहा है।
इस निर्देश के खिलाफ दो अन्य याचिकाएं भी दायर की गई । इनमें से एक TMC सांसद महुआ मोइत्रा की है। दूसरी याचिका जाने-माने राजनीतिक टिप्पणीकार और दिल्ली यूनिवर्सिटी के शिक्षाविद अपूर्वानंद झा और स्तंभकार आकार पटेल की है।
याचिकाकर्ताओं ने अन्य बातों के साथ-साथ यह भी तर्क दिया कि ये निर्देश असंगत हस्तक्षेप करते हैं और अनुच्छेद 14, 15 और 17 के तहत गारंटीकृत नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।
यह भी दावा किया गया कि ये दुकानों और भोजनालयों के मालिकों और कर्मचारियों की निजता के अधिकार का उल्लंघन करते हैं, उन्हें खतरे में डालते हैं और उन्हें निशाना बनाते हैं।
केस टाइटल: नागरिक अधिकार संरक्षण संघ (एपीसीआर) बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य, डब्ल्यू.पी.(सी) नंबर 463/2024