'टीजर बहुत आपत्तिजनक': सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म 'हमारे बारह' की रिलीज पर रोक लगाई

Update: 2024-06-13 07:19 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (13 जून) को बॉम्बे हाईकोर्ट में इसकी रिलीज को लेकर लंबित मामले के गुण-दोष के आधार पर निपटारे तक फिल्म 'हमारे बारह' की स्क्रीनिंग पर रोक लगा दी। 14 जून को रिलीज होने वाली इस फिल्म पर कथित तौर पर इस्लामी आस्था और भारत में विवाहित मुस्लिम महिलाओं के प्रति अपमानजनक टिप्पणी करने का आरोप है।

जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की वेकेशन बेंच ने बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा फिल्म की रिलीज की अनुमति दिए जाने के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर यह आदेश पारित किया।

वेकेशन बेंच ने याचिका का निपटारा करते हुए आदेश दिया,

"हाईकोर्ट में याचिका के निपटारे तक संबंधित फिल्म की स्क्रीनिंग पर रोक रहेगी।"

सुनवाई के दौरान जजों ने कहा कि उन्होंने फिल्म का टीजर देखा और पाया कि यह आपत्तिजनक है।

जस्टिस मेहता को यह कहते हुए सुना गया,

"सुबह हमने टीजर देखा। इसमें सभी आपत्तिजनक सामग्री है। टीजर यूट्यूब पर उपलब्ध है।"

जस्टिस नाथ ने फिल्म की रिलीज पर रोक लगाने वाले हाईकोर्ट द्वारा पारित पहले अंतरिम आदेश का हवाला देते हुए कहा,

"टीजर इतना आपत्तिजनक है कि हाईकरो्ट ने अंतरिम आदेश दिया है।"

संक्षेप में कहें तो शुरू में याचिकाकर्ता अजहर बाशा तंबोली ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (CBFC) के खिलाफ बॉम्बे हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर की, जिसमें फिल्म "हमारे बारह" को दिए गए सर्टिफिकेट को रद्द करने और इसकी रिलीज पर रोक लगाने की मांग की गई।

याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि फिल्म, जिसे पहले 7 जून को रिलीज किया जाना था, सिनेमैटोग्राफ अधिनियम, 1952 के प्रावधानों और इससे जुड़े नियमों और दिशानिर्देशों का उल्लंघन कर रही है। उन्होंने दावा किया कि ट्रेलर इस्लामी आस्था और भारत में विवाहित मुस्लिम महिलाओं के लिए अपमानजनक है। फिल्म की रिलीज संविधान के अनुच्छेद 19(2) और अनुच्छेद 25 का उल्लंघन करेगी।

याचिकाकर्ता के अनुसार, ट्रेलर में विवाहित मुस्लिम महिलाओं को समाज में व्यक्तियों के रूप में कोई स्वतंत्र अधिकार नहीं होने के रूप में दर्शाया गया और यह कुरान की आयत "आयत 223" की गलत व्याख्या पर आधारित है। यह दावा किया गया कि फिल्म की रिलीज से पहले किए जाने वाले संशोधनों के बावजूद, ट्रेलर में CBFC द्वारा दिए गए प्रमाणन के बारे में कोई अस्वीकरण या संदर्भ नहीं है।

दूसरी ओर, CBFC ने तर्क दिया कि सभी आवश्यक प्रक्रियाओं का पालन करने के बाद फिल्म के लिए प्रमाणन दिया गया। इसने दावा किया कि आपत्तिजनक दृश्य और संवाद हटा दिए गए और यूट्यूब और बुकमायशो (याचिकाकर्ता द्वारा संदर्भित) पर जारी किए गए फिल्म के ट्रेलर प्रमाणित ट्रेलर नहीं हैं।

पक्षकारों की सुनवाई के बाद बॉम्बे हाईकोर्ट ने पहली नज़र में याचिकाकर्ता के पक्ष में मामला पाया और प्रतिवादियों को 14 जून तक फिल्म को सार्वजनिक डोमेन में रिलीज़ करने से रोक दिया। इसके बाद, अदालत ने फिल्म देखने और अपनी अप्रभावित टिप्पणियां देने के लिए 3-सदस्यीय समीक्षा समिति के गठन का निर्देश दिया। जब समिति टिप्पणी देने में विफल रही और इसके बजाय विस्तृत जवाब दाखिल करने के लिए समय मांगा तो न्यायालय ने फिल्म निर्माताओं की कुछ विवादास्पद संवादों को बिना किसी पूर्वाग्रह के हटाने की उनकी स्वेच्छा को ध्यान में रखते हुए फिल्म को रिलीज करने की अनुमति दे दी।

फिल्म को रिलीज करने की अनुमति देने वाले और CBFC द्वारा समिति गठित करने का निर्देश देने वाले हाईकोर्ट के आदेश की आलोचना करते हुए याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सुनवाई के दौरान, एडवोकेट फौजिया शकील (याचिकाकर्ता के लिए) ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने CBFC को समिति नियुक्त करने के लिए कहकर गलती की, क्योंकि वह इच्छुक पक्षकार है।

वकील से सहमत होते हुए जस्टिस मेहता ने कहा कि याचिकाकर्ता ने CBFC के खिलाफ विवाद उठाया था और यह स्पष्ट रूप से इच्छुक पक्षकार है।

दूसरी ओर एडवोकेट मनीष श्रीवास्तव (कुछ प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व करते हुए) ने प्रस्तुत किया कि फिल्म निर्माताओं को फिल्म रिलीज करने का अधिकार है, क्योंकि CBFC प्रमाणन मौजूद है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि याचिकाकर्ता की शिकायत टीज़र पर आधारित है, जिसे बाद में सार्वजनिक प्लेटफार्मों से हटा दिया गया।

अंत में, पीठ ने मामले का गुण-दोष के आधार पर निर्णय लेने का काम हाईकोर्ट पर छोड़ दिया और तब तक फिल्म की स्क्रीनिंग पर रोक लगा दी। इसके अलावा, याचिकाकर्ता को हाईकोर्ट के समक्ष CBFC द्वारा समिति के गठन के बारे में आपत्ति उठाने की स्वतंत्रता दी गई।

न्यायालय ने स्पष्ट किया,

"दोनों पक्ष मुख्य याचिका के निपटारे में पूर्ण सहयोग करेंगे और कोई स्थगन नहीं मांगेंगे।"

हालांकि श्रीवास्तव द्वारा अनुरोध किया गया कि हाईकोर्ट को एक सप्ताह के भीतर मामले का निर्णय करने और निपटान करने का निर्देश दिया जाए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में कुछ भी कहने से इनकार कर दिया।

जस्टिस मेहता ने टिप्पणी की,

"हम केवल हाईकोर्ट से अनुरोध कर सकते हैं, हम पर्यवेक्षी [प्राधिकरण] नहीं हैं।"

केस टाइटल: अजहर बाशा तंबोली बनाम रवि एस. गुप्ता और अन्य, एसएलपी (सी) नंबर 13061-13062/2024

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