महाराष्ट्र स्थानीय निकाय चुनाव पर सुप्रीम कोर्ट सख़्त, कहा: आगे की अधिसूचनाएं 50% आरक्षण सीमा के भीतर ही जारी हों
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को महाराष्ट्र में लंबित स्थानीय निकाय चुनावों पर सुनवाई के दौरान स्पष्ट कर दिया कि आगे से जारी होने वाली किसी भी चुनाव अधिसूचना में आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए।
अदालत ने यह टिप्पणी उस समय की, जब महाराष्ट्र सरकार ने समय मांगते हुए बताया कि वह इस मुद्दे पर राज्य निर्वाचन आयोग से विचार-विमर्श कर रही है।
इसके साथ ही अदालत ने सुनवाई शुक्रवार तक स्थगित कर दी।
चीफ जस्टिस सुर्याकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ के समक्ष राज्य निर्वाचन आयोग के लिए सीनियर एडवोकेट बलबीर सिंह ने बताया कि 242 नगर परिषदों और 42 नगर पंचायतों सहित कुल 288 स्थानीय निकायों में दो दिसंबर को चुनाव की अधिसूचना जारी हो चुकी है। इनमें से 57 निकाय ऐसे हैं जहाँ कुल आरक्षण 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा को पार कर चुका है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इन 57 निकायों में जारी अधिसूचनाएँ मामले के अंतिम परिणाम पर निर्भर रहेंगी, लेकिन आगे से जारी होने वाली किसी भी नई अधिसूचना में 50 प्रतिशत की सीमा नहीं लांघी जानी चाहिए।
चीफ जस्टिस ने स्पष्ट कहा कि अदालत ने कभी भी 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण की अनुमति नहीं दी है और पहले की व्यवस्था को गलत तरीके से समझा गया।
ओबीसी आरक्षण से जुड़ा यह विवाद 2021 से जारी है, जब सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए आरक्षण पर रोक लगा दी थी कि इसे लागू करने से पहले त्रिस्तरीय परीक्षण पूरा होना आवश्यक है। इसके बाद राज्य सरकार ने जयंत कुमार बंथिया आयोग का गठन किया जिसने जुलाई 2022 में अपनी रिपोर्ट सौंपी।
मई, 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि चुनाव चार महीने के भीतर संपन्न कराए जाएँ और आरक्षण वही रहे, जो बंथिया आयोग से पहले की स्थिति में था। अदालत ने पिछले सप्ताह ही स्पष्ट किया कि इसका यह अर्थ नहीं था कि 50 प्रतिशत की सीमा टूट सकती है।
सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने समय मांगा जिस पर सीनियर एडवोकेट विकास सिंह ने कहा कि अलग-अलग पीठों के आदेशों के चलते भ्रम की स्थिति है।
सीनियर एडवोकेट इंदिरा जयसिंग ने यह तर्क दिया कि चुनाव प्रक्रिया को बीच में रोकना उचित नहीं होगा और अदालत पहले ही यह कह चुकी है कि सभी चुनाव आगे जारी मामले के परिणाम पर निर्भर होंगे।
चीफ जस्टिस ने यह भी कहा कि यदि चुनाव कानून विरुद्ध पाए गए तो उन्हें रद्द भी किया जा सकता है। उन्होंने टिप्पणी की कि जमीनी स्तर पर लोकतंत्र को पुनर्स्थापित करना आवश्यक है और आरक्षण को लेकर 50 और 60 प्रतिशत की लड़ाई में आम नागरिकों का प्रतिनिधित्व ही रुक गया।
उन्होंने स्पष्ट किया कि अदालत चुनाव रुकवाने के पक्ष में नहीं है बल्कि केवल प्रक्रिया को कानूनी रूप से संतुलित करने का प्रयास कर रही है।
सुनवाई में यह मुद्दा भी उठा कि कुछ क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या 90 प्रतिशत से अधिक है, ऐसे में 50 प्रतिशत सीमा का पालन व्यावहारिक रूप से संभव नहीं।
जस्टिस बागची ने इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के के. कृष्णमूर्ति फैसले का उल्लेख किया, जिसमें विशेष परिस्थितियों के लिए अपवाद का सिद्धांत स्वीकार किया गया था।
इंदिरा जयसिंग ने कहा कि बंथिया आयोग की रिपोर्ट ने ओबीसी आरक्षण को काफी घटा दिया और जातिगत जनगणना के अभाव में सटीक प्रतिनिधित्व निर्धारित करना कठिन है।
चीफ जस्टिस ने जवाब दिया कि समाज को विभाजित किए बिना ही सभी वर्गों को अनुपातिक प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए।
अंत में अदालत ने राज्य निर्वाचन आयोग से कहा कि वह अगली सुनवाई पर उन क्षेत्रों में ओबीसी जनसंख्या का विवरण प्रस्तुत करे, जहां 50 प्रतिशत सीमा पार हो रही है। सुनवाई अब शुक्रवार को होगी।