सुप्रीम कोर्ट ने डीके शिवकुमार के खिलाफ जांच सहमति वापस लेने को चुनौती देने वाली CBI की याचिका पर नोटिस जारी किया

Update: 2024-11-09 04:17 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने आय से अधिक संपत्ति के मामले में कांग्रेस नेता और उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार के खिलाफ जांच के लिए कर्नाटक सरकार द्वारा सहमति वापस लेने को चुनौती देने वाली केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) की याचिका पर नोटिस जारी किया।

जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्जल भुइयां की खंडपीठ ने यह आदेश पारित किया। इस मामले को सहमति वापस लेने के खिलाफ BJP विधायक बसंगौड़ा पाटिल यतनाल द्वारा दायर अन्य याचिका के साथ जोड़ते हुए यह आदेश पारित किया।

मामले की अगली सुनवाई 13 दिसंबर को होगी।

बता दें कि यह मामला कर्नाटक हाईकोर्ट द्वारा CBI और यतनाल द्वारा सहमति वापस लेने को चुनौती देने वाली दो याचिकाओं को खारिज करने से उत्पन्न हुआ है। इस याचिका में कहा गया कि चूंकि यह विवाद राज्य और संघ के बीच का है, इसलिए इस पर संविधान के अनुच्छेद 131 के तहत ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्णय लिया जा सकता है।

हाईकोर्ट ने कहा,

“हमारा मानना ​​है कि वर्तमान रिट याचिकाएं सुनवाई योग्य नहीं हैं। यह विवाद केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाली CBI और राज्य सरकार के बीच है। ऐसे विवाद जिनमें केंद्र सरकार का अधिकार और राज्य सरकार की स्वायत्तता शामिल है, उन्हें सुप्रीम कोर्ट के मूल अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत अधिक उचित तरीके से निपटाया जाता है। तदनुसार, रिट याचिकाओं को सुनवाई योग्य न मानते हुए खारिज कर दिया जाता है। याचिकाकर्ताओं को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष उचित उपाय करने की स्वतंत्रता दी जाती है।"

CBI द्वारा उठाए गए तर्क

CBI ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने केवल "जटिल प्रश्नों" का रंग दिया। इस मुद्दे को अनुच्छेद 131 के अंतर्गत आने दिया, जबकि यह केवल कर्नाटक सरकार द्वारा सहमति वापस लेने (जिसे उसने पहले दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 की धारा 6 के अनुसार प्रदान किया) और जांच को कर्नाटक लोकायुक्त को हस्तांतरित करने से संबंधित था।

यह आग्रह किया जाता है कि केंद्र और राज्य सरकारों की शक्तियों के बीच संघर्ष का कोई मामला नहीं है। बल्कि मुख्य मुद्दा "28.11.2023 और 22.12.2023 के सरकारी आदेश में अवैधता और मनमानी है, जिसमें पहले दी गई सहमति... वापस ले ली गई थी।"

CBI ने स्पष्ट रूप से कहा है कि अनुच्छेद 131 वर्तमान मामले पर लागू नहीं होता है।

"वर्तमान मामले में शामिल मुद्दा केंद्र और राज्य के बीच कोई संवैधानिक विवाद नहीं है, जिसके लिए केंद्र और राज्य के बीच संवैधानिक विवाद की आवश्यकता है। संविधान के अनुच्छेद 131 के अनुसार निर्णय लेना, बल्कि यह DSPE Act के तहत वैधानिक व्याख्या से संबंधित है।"

विनीत नारायण बनाम भारत संघ पर भरोसा करते हुए याचिका में कहा गया कि हाईकोर्ट ने गैर-संवैधानिक विवाद में अनुच्छेद 131 को लागू करके गलती की और आरोप लगाया कि विवादित सरकारी आदेश(ओं) के परिणामस्वरूप, CBI जांच रुकी हुई थी और एजेंसी आरोप पत्र दाखिल नहीं कर सकी।

CBI के अनुसार, सहमति आदेश दिए जाने के बाद उसे वापस लेने का कानून में कोई प्रावधान नहीं है। फिर भी यदि ऐसा किया जाता है तो सहमति का निरसन केवल भावी हो सकता है। किसी भी मामले को प्रभावित नहीं कर सकता, जिसमें निरसन से पहले कार्रवाई शुरू की गई है।

"सामान्य खंड अधिनियम की धारा 21 पूर्वव्यापी संचालन वाले आदेश जारी करने की शक्ति प्रदान नहीं करती। DSPE Act की धारा 6 के तहत दिए गए सहमति आदेश का निरसन केवल भावी संचालन हो सकता है। यह ऐसे मामलों को प्रभावित नहीं करेगा, जिसमें निरसन के आदेश जारी होने से पहले कार्रवाई शुरू की गई है।"

CBI ने सहमति वापस लेने में "अत्यधिक देरी" (लगभग 4 साल बीत जाने के बाद) के लिए हाईकोर्ट की अनदेखी पर भी हमला किया।

"सहमति वापस लेना प्रतिवादी के लाभ के लिए किया गया और यह दुर्भावना से भरा है, तथा चल रही जांच में हस्तक्षेप करता है।"

इसके अलावा, यह भी आग्रह किया गया कि यदि किसी लोक सेवक पर आय के ज्ञात स्रोत से अधिक संपत्ति रखने के लिए मुकदमा चलाया जा रहा है तो भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 17ए के तहत मंजूरी देने का सवाल ही नहीं उठता तथा पीसी अधिनियम की धारा 19 के तहत मंजूरी देने का सवाल केवल आरोपपत्र दाखिल करने के चरण में ही उठता है।

केस टाइटल: केंद्रीय जांच ब्यूरो बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य, एसएलपी (सीआरएल) नंबर 14992/2024

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