अनिल धीरूभाई अंबानी ग्रुप से जुड़े बैंक घोटाले की स्वतंत्र जांच पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से मांगा जवाब
सुप्रीम कोर्ट ने देश के कथित सबसे बड़े बैंक घोटालों में से एक की जांच को लेकर दायर जनहित याचिका पर केंद्र सरकार, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय, अनिल धीरूभाई अंबानी समूह और अनिल अंबानी को नोटिस जारी किया। यह याचिका पूर्व केंद्रीय सचिव ई.ए.एस. शर्मा द्वारा दाखिल की गई थी।
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) बी आर गवई और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की खंडपीठ ने संक्षिप्त सुनवाई के बाद नोटिस जारी किया। याचिकाकर्ता का आरोप है कि रिलायंस संचार तथा समूह की अन्य कंपनियों में लंबे समय तक भारी धन हेराफेरी, फर्जी खाते, शेल कंपनियों का उपयोग, बनावटी लेन-देन और सुनियोजित वित्तीय कदाचार हुआ।
याचिकाकर्ता की ओर से एडवोकेट प्रशांत भूषण ने कहा कि यह भारत के इतिहास का सबसे बड़ा औद्योगिक घोटाला हो सकता है। उनका कहना था कि वर्ष 2007-08 से अनियमित्ताएं जारी थीं पर FIR वर्ष 2025 में दर्ज की गई। भूषण ने आरोप लगाया कि केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) और प्रवर्तन निदेशालय (ED) की जांच सीमित है और बैंक अधिकारियों की भूमिका की जांच नहीं की जा रही जबकि कई सामग्री उनकी संलिप्तता की ओर संकेत करती है। उन्होंने अदालत से दोनों एजेंसियों से विस्तृत स्टेटस रिपोर्ट मंगाने का आग्रह किया। हालांकि अदालत ने कहा कि पहले संबंधित पक्षों का उत्तर आने दिया जाएगा।
याचिका में कहा गया कि राज्य बैंक के नेतृत्व में गठित बैंकों के समूह ने वर्ष 2013 से 2017 के बीच रिलायंस संचार तथा समूह की कंपनियों को कुल 31,580 करोड़ रुपये के ऋण प्रदान किए। अक्टूबर 2020 में प्रस्तुत की गई जांच रिपोर्ट में हजारों करोड़ रुपये के कथित दुरुपयोग, शेल कंपनियों के माध्यम से धन चक्रण और फर्जी लेन-देन का खुलासा हुआ। इसके बावजूद, शिकायत दर्ज करने में पाँच वर्ष की देरी हुई, जिसे याचिकाकर्ता ने संदिग्ध बताया।
इसके बाद CBI ने 2,929 करोड़ रुपये की कथित धोखाधड़ी को लेकर साजिश, छल और आपराधिक विश्वासघात के आरोपों में FIR दर्ज की। याचिका में कहा गया कि यह बड़ी गड़बड़ी का केवल एक छोटा हिस्सा है और कई गंभीर अनियमितताओं, जैसे अस्तित्वहीन खातों से धन का स्थानांतरण, ऋणों को कृत्रिम रूप से बनाए रखना, फर्जी प्रविष्टियां और आड़ी-तिरछी कंपनियों के माध्यम से धन का प्रवाह, को जांच में शामिल नहीं किया गया।
याचिकाकर्ता ने रिलायंस समूह की कई इकाइयों की जांच रिपोर्टों का हवाला दिया, जिनमें भारी धन हेरफेर, लेन-देन की परतदार संरचना और कंपनी कानून, विदेशी मुद्रा नियमों, बाज़ार नियामक मानकों तथा बैंकिंग दिशानिर्देशों के उल्लंघन का उल्लेख है। इसके अनुसार, ऋण मंजूरी, निगरानी और अनियमितताओं को अनदेखा करने में शामिल बैंक अधिकारियों की भूमिका की जांच आवश्यक है, क्योंकि वे लोक सेवक की श्रेणी में आते हैं।
याचिका में कोबरा पोस्ट की हालिया पड़ताल का भी हवाला दिया गया, जिसमें कहा गया कि समूह की विभिन्न कंपनियों में लगभग 41,921 करोड़ रुपये का धन एक स्थान से दूसरे स्थान पहुंचाया गया। इसमें से 28,874 करोड़ रुपये देश के भीतर लिए गए ऋणों से और 13,047 करोड़ रुपये विदेशों में स्थित संस्थाओं के माध्यम से भारत में लाए गए।
वर्ष 2022 में की गई रिलायंस पूंजी की जांच रिपोर्ट में लगभग 16,000 करोड़ रुपये तक की संदिग्ध अंतर-निगम जमा, संपत्तियों का मनमाना अवमूल्यन और उधारी संबंधी नियमों के बार-बार उल्लंघन का उल्लेख है। दिवाला प्रक्रिया के दौरान तैयार रिपोर्टों में भी पक्षपातपूर्ण और मूल्यहीन सौदों का विवरण दिया गया।
याचिका में कहा गया कि 35 से अधिक स्थानों पर छापेमारी के बावजूद अब तक न कोई गिरफ्तारी हुई और न ही बड़े पैमाने पर संपत्तियां जब्त हुईं। यह दर्शाता है कि न्यायिक निगरानी के बिना निष्पक्ष जांच संभव नहीं है।
जनहित याचिका में सुप्रीम कोर्ट से पूरे मामले की अदालत-निगरानी में जांच कराने और भविष्य में इस प्रकार की वित्तीय अनियमितताओं को रोकने के लिए विशेषज्ञ समिति गठित करने का अनुरोध किया गया।