S.138 NI Act | चेक बाउंस मामलों के निपटारे के लिए लगने वाले खर्च पर 'दामोदर प्रभु फैसले' में दिशानिर्देश बाध्यकारी नहीं: सुप्रीम कोर्ट

Update: 2025-11-14 06:00 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 (NI Act) की धारा 138 के तहत दोषी ठहराए गए व्यक्ति पर बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा लगाया गया जुर्माना रद्द कर दिया। कोर्ट ने यह भी कहा कि शिकायतकर्ता को समझौते पर कोई आपत्ति नहीं थी और अपीलकर्ता राशि का भुगतान करने में असमर्थ था।

जस्टिस एम.एम. सुंदरेश और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने कहा कि दामोदर एस. प्रभु बनाम सैयद बाबालाल एच. फैसले में दिए गए दिशानिर्देश, जो NI Act में मामले के निपटारे के चरण के आधार पर जुर्माने लगाने का प्रावधान करते हैं, बाध्यकारी नहीं माने जा सकते।

कोर्ट ने कहा,

"उपर्युक्त फैसले में निर्धारित कानून को बाध्यकारी मिसाल नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्रत्येक मामले पर उसके अपने तथ्यों के आधार पर विचार किया जाना चाहिए।"

दामोदर एस. प्रभु मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसे मामले में, जहां पक्षकारों के बीच समझौता हो गया, परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत अपराधों के शमन की अनुमति दी थी।

उस निर्णय में कोर्ट ने विलंबित शमन को हतोत्साहित करने के लिए जुर्मानों की श्रेणीबद्ध योजना का समर्थन किया था।

इन दिशानिर्देशों के तहत यदि पहली या दूसरी सुनवाई में शमन हो जाता है तो कोई जुर्माना नहीं लगाया जाएगा।

मजिस्ट्रेट के समक्ष बाद में किए गए आवेदनों पर चेक राशि का 10%, सेशन कोर्ट या हाईकोर्ट के समक्ष किए गए आवेदनों पर 15% और सुप्रीम कोर्ट के समक्ष किए गए आवेदनों पर 20% राशि संबंधित विधिक सेवा प्राधिकरण के पास जमा करनी होगी।

इसने एक ही लेनदेन से उत्पन्न होने वाली कई शिकायतों का अनिवार्य प्रकटीकरण करने का भी निर्देश दिया और ऐसी शिकायतों को जुर्मानों के साथ स्थानांतरित करने की अनुमति दी।

कोर्ट ने कहा था कि ये दिशानिर्देश विधायी शून्यता में बनाए गए और शीघ्र शमन का समर्थन करने के लिए अनुच्छेद 142 का प्रयोग किया।

वर्तमान मामला उस व्यक्ति द्वारा दायर एक अपील थी, जिसकी दोषसिद्धि सेशन कोर्ट द्वारा पुष्टि की गई। इसके बाद उसने पुनर्विचार हेतु हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। पुनर्विचार के लंबित रहने के दौरान, अपीलकर्ता और शिकायतकर्ता के बीच समझौता हुआ। इस आधार पर हाईकोर्ट ने उसे बरी कर दिया, लेकिन दामोदर एस. प्रभु मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुरूप उसे राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण में जुर्माना जमा करने का निर्देश दिया।

अपीलकर्ता ने केवल जुर्माना लगाए जाने को चुनौती दी। सीनियर एडवोकेट नवीन पाहवा ने तर्क दिया कि दामोदर एस. प्रभु मामले में न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 142 का हवाला दिया, इसलिए उस फैसले के निर्देशों को कानून नहीं माना जा सकता। उन्होंने दलील दी कि उन निर्देशों को बाध्यकारी मानने से पुनरीक्षण के चरण में समझौते हतोत्साहित होंगे।

उन्होंने यह भी कहा कि अपीलकर्ता आदेश का पालन करने की स्थिति में नहीं है। किसी भी स्थिति में निर्देश शिकायतकर्ता को भुगतान के लिए नहीं, बल्कि विधिक सेवा प्राधिकरण को भुगतान के लिए था। चूंकि शिकायतकर्ता को कोई आपत्ति नहीं थी, इसलिए किसी और राशि के भुगतान की आवश्यकता वाला कोई आदेश नहीं हो सकता।

कोर्ट ने इन दलीलों को स्वीकार कर लिया। इसने नोट किया कि प्रतिवादी ने उचित आदेश पारित किए जाने पर कोई आपत्ति नहीं की। कोर्ट ने पाया कि अपीलकर्ता पर लगाया गया जुर्माना उचित नहीं ठहराया जा सकता, खासकर इसलिए क्योंकि शिकायतकर्ता ने कोई अतिरिक्त राशि नहीं मांगी थी और अपीलकर्ता ने भुगतान करने में असमर्थता व्यक्त की थी, जिस पर कोई विवाद नहीं था।

उल्लेखनीय है कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने संजाबीज तारी बनाम किशोर एस. बोरकर मामले में निपटान पर भुगतान किए जाने वाले जुर्मानों के संबंध में दामोदर प्रभु मामले के निर्णय में दिशानिर्देशों को संशोधित किया था।

Case Title – Rajeev Khandelwal v. State of Maharashtra & Anr.

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