S. 482 CrPC | FIR रद्द करने से मना करते हुए हाईकोर्ट को 'गिरफ्तारी नहीं' की सुरक्षा नहीं देनी चाहिए: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का आदेश रद्द किया, जिसमें FIR रद्द करने से इनकार किया था। साथ ही जांच पूरी करने के लिए एक तय समय सीमा तय की गई थी और आरोपी को संज्ञान लिए जाने तक गिरफ्तारी से सुरक्षा दी गई थी।
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस एन. कोटिश्वर सिंह की बेंच ने नीहारिका इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड बनाम महाराष्ट्र राज्य, (2021) 19 SCC 401 के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि FIR रद्द करने की याचिका खारिज करते समय "गिरफ्तारी नहीं" या "कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं" के आदेश देना, बिना सख्त कानूनी जांच किए अग्रिम जमानत देने जैसा है। ऐसे आदेश "अकल्पनीय और सोचने से परे" हैं।
जस्टिस करोल द्वारा लिखे गए फैसले में नीहारिका इंफ्रास्ट्रक्चर (उपरोक्त) के अवलोकन का हवाला देते हुए कहा गया,
"यह बिल्कुल अकल्पनीय और सोचने से परे है कि जांच में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए या यह राय व्यक्त करते हुए कि जांच पर रोक लगाना उचित नहीं है, पुलिस को जांच पूरी होने तक गिरफ्तार न करने का आदेश दिया जाए।"
यह मामला मई 2024 में आगरा में STF जांच के बाद दर्ज की गई FIR से जुड़ा है। आरोपियों पर फर्जी आधार कार्ड, पैन कार्ड और हलफनामे जमा करके और जन्मतिथि में हेरफेर करके खुद को कुशल निशानेबाज के रूप में पेश करके धोखाधड़ी से कई हथियार लाइसेंस प्राप्त करने का आरोप है। आरोपियों में से एक सेवानिवृत्त आर्म्स क्लर्क है, जो कथित तौर पर इस प्रक्रिया में मदद करने में शामिल था। FIR में IPC की गंभीर धाराओं, जिसमें धारा 420, 467, 468 और 471 शामिल हैं, उसके साथ-साथ आर्म्स एक्ट के प्रावधानों के तहत अपराध शामिल हैं।
FIR को चुनौती देते हुए आरोपियों ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत इलाहाबाद हाईकोर्ट का रुख किया। हालांकि हाईकोर्ट ने FIR रद्द करने से इनकार किया, लेकिन उसने एक जैसे शब्दों वाले आदेश पारित किए, जिसमें जांच अधिकारी को 90 दिनों के भीतर जांच पूरी करने और आरोपी को ट्रायल कोर्ट द्वारा संज्ञान लिए जाने तक गिरफ्तारी से सुरक्षा देने का निर्देश दिया गया। ये निर्देश हाईकोर्ट के शोभित नेहरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के पहले के फैसले पर आधारित थे।
इससे व्यथित होकर राज्य ने नीहारिका इंफ्रास्ट्रक्चर (उपरोक्त) का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। विवादित आदेश रद्द करते हुए कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट FIR रद्द करने से इनकार करते समय "गिरफ्तारी नहीं" या "कोई ज़बरदस्ती कदम नहीं" जैसे निर्देश नहीं दे सकते। कोर्ट ने कहा कि ऐसे आदेश CrPC की धारा 438 के तहत कानूनी ज़रूरतों को पूरा किए बिना अग्रिम ज़मानत देने के बराबर हैं। साथ ही यह नीहारिका इंफ्रास्ट्रक्चर मामले में तय सिद्धांत के खिलाफ है।
जांच के लिए हाईकोर्ट द्वारा तय समय-सीमा के बारे में बेंच ने कहा कि शुरुआत में ही बिना किसी देरी के सबूत के समय-सीमा तय करना जल्दबाजी और कार्यकारी कार्यों में दखल माना गया। कोर्ट ने साफ किया कि न्यायिक रूप से तय समय-सीमा केवल असाधारण परिस्थितियों में ही दी जा सकती है, जब रिकॉर्ड में ऐसा सबूत हो जो जांच में बेवजह देरी या रुकावट दिखाए।
कोर्ट ने आगे कहा,
"जांचकर्ताओं/कार्यकारी अधिकारियों द्वारा शुरू से ही पालन करने के लिए कोर्ट समय-सीमा तय नहीं करता, क्योंकि ऐसा करना साफ तौर पर उनके काम में दखल देना होगा। इसलिए समय-सीमा उस समय तय की जाती है जब ऐसा न करने पर बुरे नतीजे हो सकते हैं, यानी रिकॉर्ड में ऐसा सबूत हो जो बेवजह देरी, रुकावट या ऐसी ही कोई और बात दिखाए। संक्षेप में, समय-सीमा प्रतिक्रिया के तौर पर तय की जाती है, न कि पहले से बचाव के तौर पर। इसलिए हाईकोर्ट द्वारा तय की गई समय-सीमा में दखल देने और उसे रद्द करने की ज़रूरत है।"
इसके अनुसार, अपील स्वीकार कर ली गई और हाईकोर्ट द्वारा दी गई 90-दिन की जांच की समय-सीमा और गिरफ्तारी से मिली पूरी सुरक्षा दोनों रद्द कर दी गई।
Cause Title: STATE OF U.P. & ANR. Versus MOHD ARSHAD KHAN & ANR