PC Act | न्यायालय द्वारा संज्ञान आदेश पारित करने के बाद दी गई मंजूरी अमान्य नहीं : सुप्रीम कोर्ट

Update: 2024-07-30 04:28 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (Prevention of Corruption Act (PC Act)) की धारा 19(1) के तहत दी गई मंजूरी केवल इसलिए अमान्य नहीं हो जाती, क्योंकि यह ट्रायल कोर्ट द्वारा आरोपपत्र का संज्ञान लेने के बाद दी गई।

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि नंजप्पा बनाम कर्नाटक राज्य में पारित उसके निर्णय के अनुपात ने संज्ञान आदेश पारित करने के बाद PC Act की धारा 19(1) के तहत दी गई मंजूरी को अमान्य नहीं किया।

सुप्रीम कोर्ट ने इस उपर्युक्त निर्णय में माना कि अमान्य मंजूरी वाले लोक सेवक के विरुद्ध मुकदमा चलाना अमान्य है।

जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की खंडपीठ झारखंड हाईकोर्ट के विरुद्ध दायर आपराधिक अपील पर विचार कर रही थी, जिसमें सक्षम प्राधिकारी द्वारा मंजूरी के अभाव में पारित संज्ञान आदेश बरकरार रखा गया।

यद्यपि स्वीकृति प्राप्त की गई, लेकिन यह संज्ञान आदेश पारित होने के बाद ही प्राप्त हुई। इस पृष्ठभूमि के विरुद्ध अपीलकर्ता ने दलील दी थी कि नंजप्पा के निर्णय के मद्देनजर स्वीकृति को शून्य माना जाना चाहिए।

हालांकि, यह तर्क पीठ को पसंद नहीं आया और स्पष्ट किया:

“हम उक्त दलील को स्वीकार करने के लिए इच्छुक नहीं हैं। उक्त निर्णय का अनुपात इस आशय का है कि 1988 अधिनियम की धारा 19(1) में निहित प्रतिबंध के मद्देनजर ट्रायल कोर्ट संज्ञान नहीं ले सकता। हमें नहीं लगता कि उक्त निर्णय का अनुपात संज्ञान लेने के आदेश पारित होने के बाद दी गई स्वीकृति को अमान्य करने तक विस्तारित होता है।”

न्यायालय ने यह भी देखा कि स्वीकृति के अभाव में संज्ञान लेने में ट्रायल कोर्ट कानून की दृष्टि से सही नहीं था। इसके अलावा, इसने कहा कि CBI संबंधित न्यायालय के समक्ष इस स्वीकृति को दाखिल कर सकती है। इसकी जांच करने के बाद न्यायालय संज्ञान ले सकता है और यदि आवश्यक हो तो अपीलकर्ता के खिलाफ कार्यवाही कर सकता है।

इसे देखते हुए वर्तमान अपील को अनुमति दी गई।

उल्लेखनीय है कि हाईकोर्ट ने आरोपित निर्णय में यह उल्लेख किया कि संज्ञान का आदेश 2020 का था, अर्थात 2018 के संशोधन (जिसके माध्यम से धारा 19 (1) लाई गई) के लागू होने के बाद। इस प्रकार, इसने कहा कि अपीलकर्ता धारा 19 (संशोधित) के तहत मंजूरी के सुरक्षात्मक छत्र का हकदार है।

इसके बावजूद, हाईकोर्ट का विचार था कि मंजूरी का अभाव प्रक्रियात्मक अनियमितता थी, जिसे बाद की मंजूरी के अनुदान द्वारा ठीक किया गया।

हाईकोर्ट ने टिप्पणी की,

“इसलिए मंजूरी में केवल त्रुटि, चूक या अनियमितता को तब तक घातक नहीं माना जाता, जब तक कि इसके परिणामस्वरूप न्याय की विफलता न हुई हो या ऐसा न हुआ हो। धारा 19(1) प्रक्रिया का मामला है और यह अधिकार क्षेत्र की जड़ तक नहीं जाती है जैसा कि नरसिम्हा राव मामले [(1998) 4 एससीसी 626: 1998 एससीसी (सीआरआइ) 1108] के पैरा 95 में कहा गया।"

केस टाइटल: शिवेंद्र नाथ वर्मा बनाम भारत संघ, एसएलपी (सीआरआइ) संख्या 12708/2023 से उत्पन्न)

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