धारा 498A IPC | सुनिश्चित करें कि पति के दूर के रिश्तेदार अतिरंजित मामलों में न फंसें: सुप्रीम कोर्ट ने अदालतों को चेताया
सुप्रीम कोर्ट ने अदालतों को चेतावनी देते हुए कहा कि वे सुनिश्चित करें कि पति के दूर के रिश्तेदारों को भारतीय दंड संहिता की धारा 498A के तहत घरेलू क्रूरता का आरोप लगाने वाली पत्नी के कहने पर दर्ज आपराधिक मामलों में अनावश्यक रूप से न फंसाया जाए।
जस्टिस सीटी रविकुमार और जस्टिस राजेश बिंदल की पीठ ने आरोपी पति के चचेरे भाई और उक्त चचेरे भाई की पत्नी के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही रद्द करते हुए यह टिप्पणी की, जिन्हें पत्नी के पिता द्वारा दर्ज कराई गई FIR में आरोपी के रूप में नामित किया गया था।
पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट द्वारा उनके खिलाफ मामला रद्द करने से इनकार करने के बाद याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
हाईकोर्ट के दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट का यह कर्तव्य है कि वह इस बात की जांच करे कि क्या पति के दूर के रिश्तेदारों को आरोपित करना अतिशयोक्तिपूर्ण था।
इस संदर्भ में, पीठ ने प्रीति गुप्ता एवं अन्य बनाम झारखंड राज्य एवं अन्य (2010) 7 एससीसी 667 में की गई टिप्पणियों को उद्धृत किया कि आपराधिक मुकदमों से सभी संबंधित लोगों को बहुत कष्ट उठाना पड़ता है। यहां तक कि मुकदमे में अंतिम रूप से बरी होने पर भी अपमान की पीड़ा के गहरे निशान नहीं मिट सकते।
न्यायालय ने कहा कि उपरोक्त टिप्पणी वास्तव में इस प्रकार के वैवाहिक विवादों में पति के परिवार के करीबी रिश्तेदार न होने वाले व्यक्ति को आरोपित करना अतिशयोक्तिपूर्ण है या किसी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ आरोप अतिशयोक्तिपूर्ण है, यह देखने के कर्तव्य का निर्वहन न करने के खिलाफ एक चेतावनी थी।
न्यायालय ने कहा कि रिश्तेदार शब्द को कानून में परिभाषित नहीं किया गया, इसलिए इसे सामान्य रूप से समझे जाने वाले अर्थ में ही परिभाषित किया जाना चाहिए। इसलिए सामान्य रूप से इसमें किसी व्यक्ति के पिता, माता, पति या पत्नी, पुत्र, पुत्री, भाई, बहन, भतीजा, भतीजी, पौत्र या पौत्री या किसी व्यक्ति के जीवनसाथी को शामिल किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में रक्त, विवाह या गोद लेने से संबंधित व्यक्ति।
जब आरोप किसी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ होते हैं, जो रक्त, विवाह या गोद लेने से संबंधित नहीं है तो न्यायालयों का कर्तव्य है कि वे जांच करें कि क्या आरोप बढ़ा-चढ़ाकर लगाए गए।
जस्टिस रविकुमार द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया कि ऐसी परिस्थितियों में सामान्य रूप से किसी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ जो उपर्युक्त श्रेणियों में से किसी के अंतर्गत नहीं आता है, जब आरोप लगाए जाते हैं, तो प्रीति गुप्ता के मामले (सुप्रा) में की गई टिप्पणियों के आलोक में संबंधित न्यायालय का यह देखना अपरिहार्य कर्तव्य है कि क्या इस तरह के निहितार्थ अतिरंजित हैं या क्या ऐसे व्यक्ति के खिलाफ आरोप अतिरंजित संस्करण हैं।
गीता मेहरोत्रा एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2012) 10 एससीसी 741 में दिए गए फैसले का भी संदर्भ दिया गया, जिसमें कहा गया कि मामले में सक्रिय भागीदारी के आरोप के बिना वैवाहिक विवाद में परिवार के सदस्यों के नामों का केवल आकस्मिक उल्लेख उनके खिलाफ संज्ञान लेने का औचित्य नहीं होगा, क्योंकि इसमें अतिशय निहितार्थ की प्रवृत्ति को नजरअंदाज किया जाता है जैसे घरेलू झगड़े में घर के सभी सदस्यों को शामिल करना, जिसके परिणामस्वरूप वैवाहिक विवाद होता है। खासकर जब यह शादी के तुरंत बाद होता है।
इस तथ्य पर विचार करते हुए कि याचिकाकर्ता शिकायतकर्ता की बेटी (जालंधर) के निवास स्थान से अलग शहर (मोहाली) में रह रहे थे।
न्यायालय ने आगे कहा,
"ऐसे मामलों में जब कथित पीड़िता जिस घर में रहती है, वहां रिश्तेदार नहीं रहते हैं तो न्यायालय को केवल इस प्रश्न पर विचार करके विचार करना बंद नहीं करना चाहिए कि आरोपी व्यक्ति धारा 498-A IPC के प्रयोजन के लिए रिश्तेदार अभिव्यक्ति के दायरे में आता है या नहीं, बल्कि यह भी विचार करना चाहिए कि क्या यह केवल मुख्य आरोपी पर दबाव डालने के लिए ऐसे व्यक्ति (व्यक्तियों) को फंसाने के लिए अतिशयोक्ति या अतिशयोक्ति का मामला है।"
न्यायालय ने कहा कि आरोप सामान्य और सर्वव्यापी प्रकृति के थे। ऐसा कोई प्रथम दृष्टया साक्ष्य नहीं था जो यह दर्शाता हो कि अपराध सिद्ध होते हैं।
पीठ ने कहा,
"यह स्पष्ट है कि ऊपर उल्लिखित आरोपों या अभियोग के आधार पर उन्हें मुकदमे का सामना कराना न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग करने के अलावा और कुछ नहीं होगा।"
पति द्वारा पत्नी के खिलाफ तलाक की कार्यवाही शुरू करने के तुरंत बाद FIR दर्ज की गई थी। पति और उसके माता-पिता के अलावा शिकायतकर्ता (पत्नी के पिता) ने अपने चचेरे भाई और पत्नी के खिलाफ भी दहेज उत्पीड़न और क्रूरता से संबंधित आरोप लगाए। हाईकोर्ट ने हस्तक्षेप करने से मना कर दिया यह देखते हुए कि फाइनल रिपोर्ट दाखिल की जा चुकी है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फाइनल रिपोर्ट दाखिल करना हस्तक्षेप करने से मना करने का एकमात्र कारण नहीं हो सकता।
न्यायालय ने कहा कि यह स्पष्ट है कि ऊपर उल्लिखित आरोपों या अभियोग के आधार पर उन्हें मुकदमे का सामना करने के लिए मजबूर करना न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग करने के अलावा और कुछ नहीं होगा।
केस टाइटल: पायल शर्मा बनाम पंजाब राज्य