IBC स्थगन घोषित होने के बाद कंपनी के पूर्व निदेशक के खिलाफ NI Act की धारा 138 के तहत कोई मामला नहीं: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 (NI Act) की धारा 138 के तहत चेक अनादर के अपराध के लिए कार्रवाई का कारण दिवाला और दिवालियापन संहिता, 2016 (IBC) के अनुसार कंपनी के संबंध में स्थगन की घोषणा के बाद उत्पन्न हुआ है तो कंपनी के पूर्व निदेशक के खिलाफ NI Act की धारा 138 के तहत कार्यवाही जारी नहीं रखी जा सकती।
कोर्ट ने तर्क दिया कि स्थगन लागू होने पर निदेशक मंडल की शक्तियां निलंबित हो जाती हैं और कॉर्पोरेट देनदार का प्रबंधन दिवाला समाधान पेशेवर (IRP) द्वारा अपने हाथ में ले लिया जाता है। परिणामस्वरूप, निदेशकों को उन कार्यों के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है, जिन्हें करने के लिए वे अब अधिकृत नहीं हैं।
न्यायालय ने कहा,
“जब अपीलकर्ता (निदेशक) को नोटिस जारी किया गया, तब वह कॉर्पोरेट देनदार का प्रभारी नहीं था, क्योंकि 25.07.2018 को IRP की नियुक्ति होते ही उसे कॉर्पोरेट देनदार के निदेशक के पद से निलंबित कर दिया गया। इसलिए निदेशक मंडल में निहित शक्तियों का प्रयोग IBC के प्रावधानों के अनुसार IRP द्वारा किया जाना था। कॉर्पोरेट देनदार के सभी बैंक अकाउंट्स IRP के निर्देशों के तहत संचालित हो रहे थे, इसलिए अपीलकर्ता के लिए IBC की धारा 17 के आलोक में राशि चुकाना संभव नहीं था।”
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की खंडपीठ ने पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट से उत्पन्न मामले की सुनवाई की, जहां हाईकोर्ट ने NI Act के तहत अपीलकर्ता के खिलाफ शुरू की गई कार्यवाही रद्द करने से इनकार कर दिया लिमिटेड (2021) 6 एससीसी 258 में हाईकोर्ट ने माना कि IBC की धारा 14 के तहत स्थगन केवल कॉर्पोरेट देनदार पर लागू होता है, न कि उसके निदेशकों पर।
हाईकोर्ट के निर्णय को दरकिनार करते हुए जस्टिस धूलिया द्वारा लिखित निर्णय ने पी. मोहन राज के मामले को वर्तमान मामले के तथ्यों से अलग किया।
न्यायालय ने नोट किया कि पी. मोहन राज के मामले में चेक बाउंस की कार्यवाही शुरू करने के लिए कार्रवाई का कारण स्थगन लागू होने से पहले उत्पन्न हुआ था, इसलिए पी. मोहन राज के मामले में निदेशक को NI Act के तहत अपने दायित्व से मुक्त नहीं किया गया था।
हालांकि, इस मामले में चेक अनादर की कार्यवाही शुरू करने के लिए कार्रवाई का कारण स्थगन लागू होने के बाद उत्पन्न हुआ, जिसने अपीलकर्ता-निदेशक को कंपनी की कोई भी देनदारी लेने से रोक दिया, क्योंकि IRP ने कॉर्पोरेट देनदार का पूरा प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया था।
अदालत ने कहा,
“पी. मोहन राज में अपीलकर्ताओं द्वारा निकाले गए कुछ चेक 03.03.2017 और 28.04.2017 को बाउंस हो गए। इसके बाद शिकायतकर्ता द्वारा 31.03.2017 और 05.05.2017 की तारीखों के डिमांड नोटिस जारी किए गए। 06.06.2017 को स्थगन लगाया गया, जो स्पष्ट रूप से डिमांड नोटिस की तारीख से 15 दिन बीत जाने के बाद है। दूसरे शब्दों में, उस मामले में NI Act की धारा 138 के तहत कार्रवाई का कारण स्थगन लागू होने से पहले उत्पन्न हुआ। इन तथ्यों पर इस न्यायालय ने माना कि IBC की धारा 14 केवल कॉर्पोरेट देनदार के खिलाफ कार्यवाही को रोकती है और प्राकृतिक व्यक्तियों के खिलाफ कार्यवाही जारी रखी जा सकती है या शुरू की जा सकती है। वर्तमान मामला पी. मोहन राज से पूरी तरह से अलग है, क्योंकि वर्तमान मामले में कार्रवाई का कारण दिवालियापन प्रक्रिया शुरू होने के बाद उत्पन्न हुआ है।”
NI Act की धारा 138 के तहत कार्रवाई का कारण मांग नोटिस के पंद्रह दिन बीत जाने के बाद उत्पन्न होता है।
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि NI Act की धारा 138 के तहत कार्रवाई का कारण चेक के अनादर पर नहीं बल्कि मांग नोटिस के पंद्रह दिन बीत जाने के बाद भी राशि का भुगतान न किए जाने पर उत्पन्न होता है।
इस मामले में स्थगन 25.07.2018 को घोषित किया गया। चेक जारी किया गया और स्थगन की घोषणा से पहले ही अनादरित हो गया। हालांकि, स्थगन के बाद 06.08.2018 को मांग नोटिस जारी किया गया। इसलिए NI Act की धारा 138 के तहत अपराध के लिए कार्रवाई का कारण 06.08.2018 से गणना की गई 15 दिनों की अवधि के बाद शुरू होगा। यह 21.08.2018 होगा, लेकिन इस समय तक 25.07.2018 को स्थगन लगाया जा चुका था।
न्यायालय ने कहा,
"अस्वीकृत चेकों की वापसी से NI Act की धारा 138 के तहत कोई अपराध नहीं बनता। दूसरे शब्दों में कार्रवाई का कारण तभी बनता है, जब मांग नोटिस प्राप्त होने की तिथि से पंद्रह दिन बीत जाने के बाद भी राशि का भुगतान नहीं किया जाता है।"
तदनुसार, न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली और अपीलकर्ता के खिलाफ चेक अनादर मामले को खारिज कर दिया।
न्यायालय ने कहा,
"उपर्युक्त टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए और इस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को पी. मोहन राज के मामले से अलग करते हुए हमारा विचार है कि हाईकोर्ट को CrPC की धारा 482 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करके अपीलकर्ता के खिलाफ मामले को खारिज कर देना चाहिए था।"
केस टाइटल: विष्णु मित्तल बनाम मेसर्स शक्ति ट्रेडिंग कंपनी