Motor Accident Claims - उचित रूप से प्रस्तुत किए जाने पर ही आय निर्धारित करने के लिए टैक्स रिटर्न स्वीकार किए जा सकते हैं, : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने मोटर दुर्घटना मुआवजा दावे के मामले का निर्णय करते हुए कहा कि टैक्स रिटर्न को ध्यान में रखते हुए मासिक आय तय की जा सकती है। हालांकि, टैक्स भुगतान का विवरण उचित रूप से साक्ष्य में लाया जाना चाहिए, जिससे न्यायाधिकरण/न्यायालय आय की गणना कर सके।
जस्टिस सी.टी. रविकुमार और जस्टिस संजय करोल की खंडपीठ बीमाकर्ता और दावेदार दोनों द्वारा प्रस्तुत अपीलों के एक समूह पर निर्णय ले रही थी। जबकि दावेदार ने मुआवजे में वृद्धि के लिए प्रार्थना की, बीमाकर्ता ने कमी के लिए अनुरोध किया।
संक्षिप्त तथ्य इस प्रकार थे कि दावेदार (अपीलकर्ता भी) ने दुर्घटना में अपने माता-पिता और छोटे भाई को खो दिया। प्रतिवादी द्वारा अपने चालक द्वारा तेज और लापरवाही से चलाए जा रहे बीमाकृत वाहन ने उस स्थिर ऑटो को टक्कर मार दी, जिसमें मृतक व्यक्ति यात्रा कर रहे थे। न्यायाधिकरण ने अपीलकर्ता को मुआवजा दिया, जिसे हाईकोर्ट ने अपील में बढ़ा दिया। राशि से असंतुष्ट होकर अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हालांकि, प्रतिवादी ने राशि में कमी की मांग की।
न्यायालय ने पाया कि अपीलकर्ता के माता-पिता स्वरोजगार करते हैं। साक्ष्य के उद्देश्य से अपीलकर्ता ने अपने माता-पिता के आयकर रिटर्न की केवल ज़ेरॉक्स कॉपी प्रस्तुत कीं। न तो न्यायाधिकरण और न ही हाईकोर्ट ने इसे स्वीकार्य साक्ष्य के रूप में लिया और उनके आधार पर आकलन किया।
सुप्रीम कोर्ट ने इस दृष्टिकोण में हस्तक्षेप नहीं किया और कहा कि यह कानूनी रूप से अनुचित नहीं है।
इसने तर्क दिया,
"मासिक आय को टैक्स रिटर्न को ध्यान में रखते हुए तभी तय किया जा सकता है, जब कर के भुगतान का विवरण उचित रूप से साक्ष्य में लाया जाए, जिससे न्यायाधिकरण/न्यायालय कानून के अनुसार आय की गणना कर सके।"
न्यायालय ने कहा,
"टैक्स रिटर्न की ज़ेरॉक्स प्रतियों को स्वीकार न करने और अपीलकर्ता के माता-पिता की मासिक आय की गणना करने के लिए परिस्थितियों पर भरोसा करते हुए अनुमान लगाने में न्यायाधिकरण को कोई गलती नहीं कहा जा सकता।"
आगे बढ़ते हुए न्यायालय ने यह भी माना कि गणना के दौरान, हाईकोर्ट व्यक्तिगत व्यय के लिए आय का एक तिहाई हिस्सा काटने में विफल रहा था। इस बारे में सिद्धांत पहले ही सरला वर्मा और अन्य बनाम दिल्ली परिवहन निगम और अन्य, (2009) 6 एससीसी 121 में न्यायालय द्वारा निर्धारित किया जा चुका है। हालांकि, साथ ही न्यायालय ने यह भी ध्यान में रखा कि हाईकोर्ट ने आय की गणना करते समय भविष्य की संभावनाओं पर विचार नहीं किया था।
न्यायालय ने कहा,
“इस स्थिति के संबंध में कोई संदेह नहीं हो सकता कि स्व-नियोजित व्यक्तियों के मामले में भी भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए मासिक आय का निर्धारण करने से इनकार नहीं किया जा सकता। स्थिति यह है कि 40 वर्ष से कम आयु वर्ग के स्वरोजगार वाले व्यक्तियों के मामले में निर्धारण के लिए निर्धारित आय का 40% भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए दिया जा सकता है और 40 से 50 वर्ष की आयु वर्ग के व्यक्तियों के मामले में प्रणय सेठी के मामले (सुप्रा) में दिए गए निर्णय के अनुसार, उस आधार पर 25% की वृद्धि दी जा सकती है।''
इसके आधार पर न्यायालय ने कहा कि भले ही मुआवजे की राशि में फिर से बदलाव किया जाए, लेकिन यह राशि बहुत अधिक या अत्यधिक नहीं होनी चाहिए। खंडपीठ ने यह तथ्य दर्ज करना नहीं भूला कि अपीलकर्ता केवल 14 वर्ष की थी जब उसने मृतक व्यक्तियों को खो दिया। चार व्यक्तियों के परिवार में केवल वह जीवित बची थी। इसने यह भी नोट किया कि मोटर वाहन अधिनियम के तहत 'उचित मुआवजा' देने का प्रावधान है।
उपरोक्त आधार पर न्यायालय ने हाईकोर्ट द्वारा दिए गए बढ़े हुए मुआवजे की पुष्टि की और न्याय के हित में विवादित निर्णय बरकरार रखा।
केस टाइटल: न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम सोनीग्रा जूही उत्तमचंद, एसएलपी (सी) नंबर 30491/2018