रजिस्ट्रेशन मात्र से वसीयत वैध नहीं हो जाएगी, जब तक कि उसका निष्पादन साक्ष्य अधिनियम के अनुसार साबित न हो जाए: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में ( तीन जनवरी को दिए निर्णय में) दोहराया कि वसीयत का पंजीकरण मात्र से वह वैध नहीं हो जाती, जब तक कि उसे भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 63 और साक्ष्य अधिनियम की धारा 68 की आवश्यकताओं के अनुसार साबित न किया जाए। उल्लेखनीय है कि पहला प्रावधान गैर-विशेषाधिकार प्राप्त वसीयत के निष्पादन से संबंधित है, जबकि दूसरा दस्तावेज के निष्पादन के प्रमाण के बारे में बात करता है।
जस्टिस सीटी रविकुमार और जस्टिस राजेश बिंदल की बेंच ने आगे कहा कि धारा 68 के अनुसार, वसीयत के निष्पादन को साबित करने के लिए कम से कम एक सत्यापनकर्ता गवाह की जांच की जानी चाहिए। निर्णय में मोटूरू नलिनी कंठ बनाम गेनेडी कालीप्रसाद और डेरेक ए.सी. लोबो बनाम उलरिक एम.ए. लोबो के हालिया मामलों पर भरोसा किया गया।
तथ्य
मौजूदा मामला बालासुब्रमण्य थंथिरियार (वसीयतकर्ता) की ओर से की गई एक संपत्ति के विभाजन से जुड़ा है। पूरी संपत्ति को चार अनुसूचियों में विभाजित किया गया था। इसमें से तीन अनुसूचियां पहली पत्नी और बच्चों को आवंटित की गईं। विवाद का मुख्य मुद्दा वसीयत की वैधता थी। ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट दोनों ने ही वसीयत पर आधारित अपीलकर्ताओं के दावे को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। इस प्रकार, मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
शुरू में ही, कोर्ट ने वसीयत में थंथिरियार के स्वास्थ्य के संबध में विरोधाभासी बयानों को रेखांकित किया।
कोर्ट ने कहा, “वसीयत के एक हिस्से में कहा गया है, “पूरी चेतना के साथ, अच्छी याददाश्त के साथ और किसी के उकसावे के बिना” और साथ ही दूसरे हिस्से में कहा गया है, “मैं हृदय रोग से पीड़ित हूं और कई डॉक्टरों से इलाज करवाया है”।
कोर्ट ने इस तथ्य पर भी ध्यान दिया कि प्रतिवादी नंबर एक ने खुद कहा था कि उसके पति की तबीयत खराब थी और चूंकि उनकी जान को खतरा था, इसलिए उन्होंने मदुरै में वसीयत निष्पादित की और वसीयत तैयार करने में उनकी कोई भूमिका नहीं थी।
कोर्ट ने आगे कहा कि प्रस्तावक (स्वीकृति के लिए कोर्ट के समक्ष वसीयत पेश करने वाला व्यक्ति) को संतोषजनक साक्ष्य द्वारा दो बातें स्थापित करनी होंगी। पहली, कि वसीयत पर वसीयतकर्ता द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे। दूसरा, वसीयतकर्ता मानसिक रूप से स्वस्थ था और वह वसीयत की प्रकृति को समझता था।
इसके आधार पर, न्यायालय ने नोट किया कि अपीलकर्ता संख्या एक ने दावा किया कि वसीयत के निष्पादन में उसकी कोई भूमिका नहीं थी और इसे किसी के कहने पर निष्पादित किया गया था। हालांकि, उसने यह उल्लेख नहीं किया कि स्टाम्प पेपर पर दो पृष्ठ जिस पर वसीयत टाइप की गई थी, उसके नाम पर खरीदे गए थे।
कोर्ट ने आगे कहा,
"अब, एक और परिस्थिति जिसे निचली अदालतों ने ध्यान में रखा, वह यह है कि ऐसा कुछ भी रिकॉर्ड पर नहीं है जो यह दर्शाता हो कि वसीयतकर्ता ने इसकी सामग्री को समझने के बाद वसीयत को निष्पादित किया था। हालांकि डीडब्ल्यू 2 (प्रथम अपीलकर्ता के भाई) ने गवाही दी कि नोटरी पब्लिक ने वसीयत को पढ़ा और फिर बालासुब्रमण्यम ने उस पर हस्ताक्षर किए। निचली अदालतों ने वसीयत से ही प्रकट इस तथ्य पर सही ढंग से ध्यान दिया कि वसीयत को वसीयतकर्ता को पढ़कर सुनाए जाने का कोई उल्लेख नहीं है।"
न्यायालय की ओर से रेखांकित की गई एक और कमी यह थी कि यदि वसीयतकर्ता के स्वस्थ होने का दावा किया गया था, तो वह स्वयं वसीयत लिख सकता था, बजाय इसके कि उसे नोटरी पब्लिक द्वारा पढ़कर सुनाया जाता। इसके अलावा, न्यायालय ने विवादित निर्णय का हवाला देते हुए टिप्पणी की कि वसीयत मदुरै में निष्पादित की गई थी, जो उस स्थान से बहुत दूर है, जहां वसीयतकर्ता रहता था। इसके अलावा, सत्यापन करने वाले गवाह उसे नहीं जानते थे।
कोर्ट ने कहा, “जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, वसीयतकर्ता का स्वास्थ्य खराब था और यदि ऐसा है, तो यह मामला कि वसीयत का निष्पादन मदुरै से बहुत दूर हुआ, यह भी संदेह पैदा करने वाला मामला है। जाहिर है, यह उपरोक्त सभी और ऐसी अन्य परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए हाईकोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि वसीयत का निष्पादन स्वयं सिद्ध नहीं हुआ था। वसीयत से जुड़ी परिस्थितियों को भी एक साथ संदिग्ध माना गया।”
इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि वसीयत की वैधता और वास्तविकता को साबित करने के लिए सबूत पर्याप्त नहीं थे। उन्होंने कहा कि अपीलकर्ता इस तथ्य को साबित करने में विफल रहे कि वसीयत की सामग्री को समझने के बाद वसीयतकर्ता द्वारा इसे निष्पादित किया गया था।
कोर्ट ने कहा, “ऐसी परिस्थितियों में, जब निष्कर्ष एक साथ हैं, तो विचारण न्यायालय और हाईकोर्ट द्वारा विचाराधीन वसीयत की वैधता और वास्तविकता पर निष्कर्षों में हस्तक्षेप कैसे किया जा सकता है। अपील खारिज करने से पहले न्यायालय ने कहा, "यह मानने का कोई कारण नहीं है कि मूल्यांकन और निष्कर्ष पूरी तरह से गलत हैं, जिसके लिए इस न्यायालय द्वारा अपीलीय हस्तक्षेप की आवश्यकता है।"
केस टाइटलः लीला एवं अन्य बनाम मुरुगनंथम एवं अन्य, सिविल अपील संख्या 7578/2023
साइटेशन: 2025 लाइवलॉ (एससी) 8