आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधारों के बारे में संतुष्टि दर्ज करने के बाद ही मजिस्ट्रेटों को आरोपी को समन करना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मजिस्ट्रेट को सम्मन आदेश जारी करते समय आकस्मिक तरीके से कार्य नहीं करना चाहिए; बल्कि उन्हें इस बात से संतुष्ट होना चाहिए कि आरोपी के खिलाफ कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार मौजूद है।
समन जारी करते समय मजिस्ट्रेट की संतुष्टि की रिकॉर्डिंग गुप्त तरीके से नहीं होनी चाहिए, बल्कि तभी होनी चाहिए जब आरोपों से प्रथम दृष्टया मामला बनता हो।
जस्टिस अनिरुद्ध बोस और जस्टिस संजय कुमार की बेंच ने हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट के समवर्ती निष्कर्षों को खारिज करते हुए कहा कि समन जारी करते समय मजिस्ट्रेट से विस्तृत तर्क की आवश्यकता नहीं है, लेकिन मजिस्ट्रेट को इस बात की संतुष्टि भी दर्ज करनी होगी कि कार्यवाही के लिए किसी मामले में पर्याप्त आधार मौजूद है।
खंडपीठ ने आगे कहा,
"हालांकि यह सच है कि समन जारी करने के चरण में मजिस्ट्रेट को संज्ञान लेने के लिए केवल प्रथम दृष्टया मामले से संतुष्ट होने की आवश्यकता होती है, मजिस्ट्रेट का कर्तव्य यह भी संतुष्ट होना है कि आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार है या नहीं।"
सुप्रीम कोर्ट की उक्त टिप्पणी आपराधिक मामले में आई, जहां शिकायतकर्ता द्वारा व्यावसायिक विवाद को आपराधिक रंग देने का आरोप लगाया गया।
शिकायत की याचिका दर्शाती है कि पार्टियों के बीच विवाद उस दर के आसपास केंद्रित था जिस पर सौंपा गया कार्य किया जाना था।
शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि आरोपी-अपीलकर्ता ने खरीद आदेश की राशि का भुगतान नहीं किया था।
मजिस्ट्रेट ने शिकायतकर्ता और उसके पिता के बयान दर्ज करने के बाद अपीलकर्ता-अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) की धारा 406, 504 और 506 के तहत मुकदमे का सामना करने के लिए समन जारी किया।
समन से व्यथित होकर अपीलकर्ता ने आपराधिक शिकायत रद्द करने के लिए हाईकोर्ट के समक्ष आवेदन प्रस्तुत किया। हालांकि, हाईकोर्ट ने यह कहते हुए आवेदन खारिज कर दिया कि शिकायत की विषय वस्तु में तथ्य के विवादित प्रश्नों का निर्णय शामिल है, इसलिए इसमें निर्णय की आवश्यकता है।
यह हाईकोर्ट के आक्षेपित आदेश के विरुद्ध है, कि अभियुक्त ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपील दायर की।
शिकायत में आरोपी के खिलाफ लगाए गए आरोपों पर गौर करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरोपी के खिलाफ प्रथम दृष्टया कोई मामला नहीं है, जिसके लिए मजिस्ट्रेट ने आरोपी को मुकदमे के लिए उपस्थित होने के लिए समन जारी किया है।
अदालत के अनुसार, मजिस्ट्रेट इस संतुष्टि को दर्ज न करके समन जारी करने में अपना विवेक लगाने में विफल रहे कि शिकायतकर्ता द्वारा लगाए गए आरोप उन अपराधों को जन्म नहीं देते, जिनके लिए अपीलकर्ता को सुनवाई के लिए बुलाया गया है।
अदालत ने पेप्सी फूड्स लिमिटेड और अन्य बनाम विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट और अन्य, (1998) 5 एससीसी 749 के मामले में अपने फैसले पर भरोसा करते हुए कहा,
“मजिस्ट्रेट के समन जारी करने के आदेश में मामले की पृष्ठभूमि को काफी लंबे विवरण में दर्ज किया गया, लेकिन गुप्त तरीके से उनकी संतुष्टि को दर्शाया गया। हालांकि, सम्मन जारी करने के चरण में मजिस्ट्रेट सम्मन क्यों जारी कर रहा है, इसका विस्तृत तर्क आवश्यक नहीं है। लेकिन इस मामले में हम संतुष्ट हैं कि शिकायतकर्ता द्वारा लगाए गए आरोप उन अपराधों को जन्म नहीं देते, जिनके लिए अपीलकर्ता को मुकदमे के लिए बुलाया गया।''
कोर्ट के अनुसार,
"व्यावसायिक विवाद, जिसे सिविल कोर्ट के प्लेटफॉर्म के माध्यम से हल किया जाना चाहिए था, उसको दंड संहिता से कुछ शब्दों या वाक्यांशों को हटाकर और उन्हें आपराधिक शिकायत में शामिल करके आपराधिक रंग दे दिया गया।"
अदालत ने कहा कि आरोपी पर आईपीसी की धारा 405 और 406 के तहत अपराध का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।
अदालत ने दीपक गाबा और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य 2023 लाइव लॉ (एससी) 3 के मामले में अपने फैसले पर भरोसा जताया, जहां यह इस प्रकार था:
“सौंपना, बेईमानी से दुरुपयोग, रूपांतरण, उपयोग या निपटान को स्थापित करने के लिए साक्ष्य के अभाव में महज गलत मांग या दावा आईपीसी की धारा 405 द्वारा निर्दिष्ट शर्तों को पूरा नहीं करेगा, जो कार्रवाई कानून के किसी भी निर्देश या कानूनी अनुबंध को छूने वाले उल्लंघन में होनी चाहिए।”
अदालत ने दीपक गाबा पर भरोसा जताते हुए कहा,
“हमें प्रथम दृष्टया इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए कोई सामग्री नहीं मिली कि प्रतिवादी नंबर 2 द्वारा किए गए गैस आपूर्ति कार्य के संबंध में अपीलकर्ता के व्यक्तिगत उपयोग के लिए किसी भी सामग्री का बेईमानी से दुरुपयोग या रूपांतरण किया गया। उक्त कार्य नियमित वाणिज्यिक लेनदेन के क्रम में किया गया। यह नहीं कहा जा सकता कि विषय संपत्ति का दुरुपयोग या रूपांतरण हुआ। यह विवाद चल रहे वाणिज्यिक लेनदेन में प्रति यूनिट दर के संशोधन से संबंधित है। शिकायत की याचिका और उसके समर्थन में किए गए प्रारंभिक बयान से जो सामने आया, वह यह है कि आरोपी-अपीलकर्ता दर में बदलाव चाहता है और पूरा विवाद अपीलकर्ता के ऐसे रुख से उत्पन्न हुआ। इन सामग्रियों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि आईपीसी की धारा 405/406 के तहत अपराध होने का सबूत है।''
जहां तक अपीलकर्ता द्वारा दिए गए शिकायती बयानों में आरोपी के खिलाफ आपराधिक धमकी का आरोप लगाया गया, अदालत ने कहा कि शिकायतकर्ता द्वारा इसका कोई विवरण नहीं दिया गया।
अदालत ने कहा,
“शिकायत याचिका और गवाहों में से एक के प्रारंभिक बयान दोनों में वैधानिक प्रावधान के केवल एक हिस्से का पुनरुत्पादन है, जो आपराधिक धमकी के अपराध को जन्म देता है। यह महज झूठा आरोप होगा, जिसमें धमकी देने के तरीके के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं होगी।''
अदालत ने दलीप कौर और अन्य बनाम जगनार सिंह और अन्य (2009) 14 एससीसी 696 के मामले में प्रस्तावित परीक्षण लागू नहीं करने के लिए हाईकोर्ट की भी आलोचना की, जहां अदालत ने इस प्रकार फैसला सुनाया:
“इसलिए हाईकोर्ट को यह सवाल उठाना चाहिए कि क्या अपीलकर्ता की ओर से किसी प्रलोभन का कार्य दूसरे प्रतिवादी द्वारा उठाया गया और क्या अपीलकर्ता का शुरू से ही उसे धोखा देने का इरादा था। यदि पक्षकारों के बीच विवाद अनिवार्य रूप से सिविल विवाद है, जो अग्रिम राशि वापस न करने पर अपीलकर्ताओं की ओर से अनुबंध के उल्लंघन के परिणामस्वरूप हुआ है तो यह धोखाधड़ी का अपराध नहीं होगा। इसमें आईपीसी की धारा 405 में निहित परिभाषा को ध्यान में रखते हुए आपराधिक विश्वास हनन के अपराध के संबंध में कानूनी स्थिति भी ऐसी ही है।”
उपरोक्त टिप्पणियों के आलोक में सुप्रीम कोर्ट ने आक्षेपित फैसला रद्द किया और आपराधिक शिकायत मामले और आरोपी अपीलकर्ता के खिलाफ जारी समन आदेश भी रद्द किया।
केस टाइटल: सचिन गर्ग बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य
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