धर्मांतरण के अधिकार से इंकार करने वाला सुप्रीम कोर्ट का फैसला सुधारा जाए: जस्टिस आर.एफ. नरिमन
पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज जस्टिस आर.एफ. नरिमन ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट को 1977 के रेव. स्टेनिस्लॉस केस के फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए। उस फैसले में कहा गया था कि अनुच्छेद 25 के तहत “धर्म का प्रचार” (propagate) करने का अधिकार, धर्मांतरण का अधिकार शामिल नहीं करता। नरिमन के अनुसार, प्रचार का अर्थ बिना दबाव किसी को अपने धर्म में शामिल करने के लिए राज़ी करना भी है, और 1977 का फैसला इस शब्द को लगभग संविधान से हटा देता है। उन्होंने कहा कि कई राज्यों के एंटी-कन्वर्ज़न कानून इसी फैसले से समर्थित हैं।
उन्होंने याद दिलाया कि संविधान सभा में के.एम. मुंशी के आग्रह पर “propagate” शब्द जोड़ा गया था और इसे 1977 के फैसले ने गलत तरीके से सीमित कर दिया। नरिमन ने कहा कि धर्मांतरण का अधिकार व्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा है और यह संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार घोषणा (अनुच्छेद 18) में भी मान्यता प्राप्त है। अगर धर्मांतरण डर, धमकी या लालच से हो तो रोका जाना चाहिए, लेकिन केवल उपदेश या शिक्षा के आधार पर धर्म परिवर्तन को अपराध नहीं ठहराया जा सकता।
उन्होंने यह भी कहा कि धर्मनिरपेक्षता (Secularism) संविधान में शुरू से ही अंतर्निहित थी और 42वें संशोधन से पहले भी मौलिक अधिकारों के जरिये मौजूद थी। उन्होंने धर्मनिरपेक्षता के तीन पहलू बताए:
- राज्य का अपना कोई धर्म न होना (अनुच्छेद 28)।
- धर्म के आधार पर भेदभाव न करना (अनुच्छेद 15,16,29(2),30)।
- व्यक्तियों के सकारात्मक अधिकार जैसे सार्वजनिक स्थानों पर बिना भेदभाव पहुँच और अनुच्छेद 25-26 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता।
स्वास्थ्य के संदर्भ में उन्होंने मस्जिदों के लाउडस्पीकर और मंदिरों की घंटियों को रोकने की वकालत की, क्योंकि यह शोर प्रदूषण है। उन्होंने कहा कि सभी राज्यों को इसे समान रूप से प्रतिबंधित करना चाहिए।
नरिमन ने इतिहास की किताबों में सांप्रदायिक विकृतियों पर चिंता जताई और सुझाव दिया कि अनुच्छेद 51A के तहत अदालतें विशेषज्ञ समितियों से पाठ्यक्रम की शुद्धि का निर्देश दे सकती हैं।
उन्होंने अपने व्याख्यान में चेताया कि कट्टरपंथ भाईचारे को तोड़ता है और कहा—“सरकारें आती-जाती रहेंगी, लेकिन संवैधानिक मूल्य और व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र की एकता व अखंडता हमेशा बनी रहनी चाहिए।”