हाईकोर्ट ने कथित छेड़छाड़ की जांच का निर्देश दिया तो धारा 195 CrPC के तहत रोक लागू नहीं होती : सुप्रीम कोर्ट
साक्ष्यों से छेड़छाड़ के मामले में केरल के विधायक एंटनी राजू के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही बहाल करने का निर्देश देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आज कहा कि इस मामले में धारा 195(1)(बी) CrPC के तहत संज्ञान लेने पर रोक लागू नहीं होती, क्योंकि राजू के खिलाफ कार्यवाही न्यायिक आदेश के तहत शुरू की गई।
जस्टिस सीटी रविकुमार और जस्टिस संजय करोल की खंडपीठ ने टिप्पणी की,
"वर्तमान मामले में वर्तमान कार्यवाही की शुरुआत, 5 फरवरी, 1991 को केरल हाईकोर्ट द्वारा आपराधिक अपील नंबर 20/1991 में दिए गए निर्णय और आदेश से हुई, जिसमें एंड्रयू साल्वाटोर को बरी करते हुए निर्देश दिया गया कि Mo2 के रोपण के मामले की सकारात्मक रूप से जांच की जाए। इसके बाद न्यायालय के सतर्कता अधिकारी द्वारा जांच की गई। इसलिए आरोपित आदेश में हाईकोर्ट ने गलत तरीके से टिप्पणी की कि वर्तमान कार्यवाही के संबंध में कोई न्यायिक आदेश नहीं है।"
जस्टिस करोल द्वारा लिखित निर्णय में सीबीआई बनाम शिवमणि (2017) से इस प्रकार उद्धृत किया गया:
"एक बार जब हाईकोर्ट धारा 195 में उल्लिखित किसी निर्दिष्ट अपराध की जांच का निर्देश देता है तो धारा 195(1)(ए) के तहत रोक को लागू नहीं किया जा सकता।"
तथ्यात्मक पृष्ठभूमि
संक्षेप में कहा जाए तो 1990 में जूनियर वकील राजू पर ड्रग्स मामले में अंडरवियर सबूतों से छेड़छाड़ करने का आरोप लगाया गया, जिसमें आरोपी को बरी कर दिया गया, लेकिन केरल हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि छेड़छाड़ किए गए सबूतों (राजू और एक क्लर्क के बीच आपराधिक साजिश के तहत) को प्लांट करने के मामले की जांच की जाए। इस आरोप पर मामला दर्ज किया गया कि क्लर्क ने सबूत के तौर पर खरीदे गए अंडरवियर को राजू को सौंप दिया, जिसने उसमें बदलाव किए (जिससे यह ड्रग्स मामले के आरोपी को फिट न हो) और उसे वापस हिरासत में ले लिया।
2006 में मामले में आरोपपत्र दाखिल किया गया। आखिरकार, न्यायिक प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट ने इसका संज्ञान लिया। 2022 में क्लर्क और राजू ने आपराधिक कार्यवाही रद्द करने के लिए हाईकोरर्ट के समक्ष अलग-अलग याचिकाएं दायर कीं, जिसमें दावा किया गया कि JFCM द्वारा संज्ञान नहीं लिया जा सकता, क्योंकि धारा 195(1)(b) CrPC के तहत रोक थी। इन याचिकाओं को हाईकोर्ट ने स्वीकार कर लिया और आपराधिक कार्यवाही रद्द कर दिया। हालांकि, लगाए गए आरोपों के आधार पर नए सिरे से कदम उठाने का निर्देश दिया गया।
हाईकोर्ट के आदेश की आलोचना करते हुए राजू और एमआर अजयन (संपादक, ग्रीन केरल न्यूज़) ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। न्यायालय के समक्ष रखे गए मुद्दों में से एक यह था कि क्या धारा 195(1)(बी) न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार और संजय करोल की पीठ ने टिप्पणी की।, जो कुछ स्थितियों में संज्ञान लेने पर प्रतिबंध लगाती है (न्यायालय द्वारा शिकायत के अलावा), मामले में लागू होती है।
यह प्रावधान इस प्रकार है:
“195. लोक सेवकों के वैध अधिकार की अवमानना, लोक न्याय के विरुद्ध अपराध और साक्ष्य में दिए गए दस्तावेजों से संबंधित अपराधों के लिए अभियोजन।
(1) कोई भी न्यायालय निम्नलिखित का संज्ञान नहीं लेगा-
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(ख) (i) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की निम्नलिखित धाराओं अर्थात् धारा 193 से 196 (दोनों सम्मिलित), 199, 200, 205 से 211 (दोनों सम्मिलित) और 228 के अंतर्गत दंडनीय किसी अपराध का, जब ऐसा अपराध किसी न्यायालय में किसी कार्यवाही में या उसके संबंध में किया गया हो।
(ii) उक्त संहिता की धारा 463 में वर्णित या धारा 471, धारा 475 या धारा 476 के अंतर्गत दंडनीय किसी अपराध का, जब ऐसा अपराध किसी न्यायालय में किसी कार्यवाही में प्रस्तुत या साक्ष्य में दिए गए किसी दस्तावेज के संबंध में किया गया हो।
(iii) उप-खंड (I) या उप-खंड (ii) में निर्दिष्ट किसी अपराध को करने या करने का प्रयास करने या उसे बढ़ावा देने के लिए किसी आपराधिक षड्यंत्र का।
शिकायत के सिवाय उस न्यायालय द्वारा या न्यायालय के ऐसे अधिकारी द्वारा जिसे वह न्यायालय इस संबंध में लिखित रूप में प्राधिकृत करे, या किसी अन्य न्यायालय द्वारा जिसके अधीन वह न्यायालय हो, लिखित रूप में किया जाएगा।"
न्यायालय की टिप्पणियां
न्यायिक उदाहरणों पर विचार करते हुए न्यायालय ने पाया कि धारा 195(1)(बी) के तहत प्रतिबंध लगाने के लिए अपराध तब किया जाना चाहिए था, जब दस्तावेज़ “कस्टोडिया लेजिस” में था या संबंधित न्यायालय की हिरासत में था। इसके अलावा, हाईकोर्ट धारा 195 के तहत उल्लिखित अधिकार क्षेत्र और शक्ति का प्रयोग कर सकते हैं, जब भी न्याय के हित की मांग हो। ऐसे मामले में, जहां हाईकोर्ट एक हाईकोर्ट के रूप में धारा 195(1)(बी)(आई) के तहत आने वाले अपराध के संबंध में शिकायत दर्ज करने का निर्देश देता है, संज्ञान लेने पर प्रतिबंध लागू नहीं होगा।
मामले के तथ्यों पर यह देखा गया कि राजू के खिलाफ कार्यवाही केरल हाईकोर्ट और जिला जज, त्रिवेंद्रम द्वारा लिखे गए पत्र से उत्पन्न हुई थी, न कि किसी निजी व्यक्ति की शिकायत से। इस प्रकार, धारा 195(1)(बी) सीआरपीसी के तहत प्रतिबंध नहीं लगाया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की इस टिप्पणी से भी असहमति जताई कि वर्तमान मामले में आरोपपत्र प्रशासनिक आदेश के जवाब में दाखिल किया गया, न कि न्यायिक आदेश के।
इसके अलावा, शिवमणि (सुप्रा) में इस न्यायालय के फैसले और वैधानिक प्रावधान के अवलोकन से, “जिस न्यायालय के अधीनस्थ वह न्यायालय है” द्वारा न्यायिक या प्रशासनिक आदेश के बीच कोई अंतर नहीं है।
जहां तक राजू का तर्क था कि हाईकोर्ट उसके खिलाफ नए सिरे से मुकदमा चलाने का आदेश नहीं दे सकता, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि परिस्थितियों को देखते हुए हाईकोर्ट को निर्देश पारित करने के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
इस संबंध में सुनीता देवी बनाम बिहार राज्य और अन्य से निम्नलिखित टिप्पणी:
"अपील न्यायालय को पुनः सुनवाई का निर्देश देने का पर्याप्त अधिकार है। हालांकि, इस अधिकार का प्रयोग अपवादस्वरूप मामलों में ही किया जाना चाहिए। पाई गई अनियमितताएं इतनी महत्वपूर्ण होनी चाहिए कि पुनः सुनवाई ही एकमात्र विकल्प हो। दूसरे शब्दों में कानून के आदेश का पालन न करने से गंभीर पूर्वाग्रह उत्पन्न होना चाहिए, जिससे संपूर्ण सुनवाई प्रभावित हो, जिसका समाधान पुनः सुनवाई के अलावा किसी अन्य तरीके से नहीं किया जा सकता।"
इस मामले में हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देने के लिए मिस्टर अजयन के अधिकार के बारे में भी एक मुद्दा उठा था। उक्त पहलू पर नवीन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के निर्णय से प्रेरणा लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अजयन का अधिकार हाईकोर्ट द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण की शुद्धता की जांच करने के आड़े नहीं आ सकता, खासकर तब जब मामला न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप के आरोपों से जुड़ा हो।
"एस.एल.पी.(सीआरएल.) नंबर 4887/2024 में अपीलकर्ता का अधिकार इस न्यायालय द्वारा इस पर सुनवाई के आड़े नहीं आता। वर्तमान मामला, जिसे हाईकोर्ट ने खारिज किया है, में न्यायिक प्रक्रियाओं में हस्तक्षेप के गंभीर आरोप शामिल हैं, जो न्याय व्यवस्था और प्रशासन दोनों की बुनियाद पर प्रहार करते हैं। इसलिए पहले मुद्दे का उत्तर सकारात्मक रूप से दिया जाता है, क्योंकि हाईकोर्ट द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण की सत्यता की जांच करना इस न्यायालय का दायित्व है और अपीलकर्ता का अधिकार इसके आड़े नहीं आएगा।"
केस टाइटल: अजयन बनाम केरल राज्य और अन्य, एस.एल.पी.(सीआरएल.) नंबर 4887/2024 (और संबंधित मामला)