सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत आवेदन के साथ शपथ पत्र आवश्यक; 'प्रियंका श्रीवास्तव बनाम यूपी राज्य' में निर्देश अनिवार्य: सुप्रीम कोर्ट

Update: 2024-03-08 10:45 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया आदेश में कहा कि प्रियंका श्रीवास्तव और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2015) 6 एससीसी 287 के फैसले में उसके द्वारा पारित निर्देश अनिवार्य हैं।

जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दीपांकर दत्ता की खंडपीठ तेलंगाना हाईकोर्ट के आदेश से उत्पन्न आपराधिक अपील पर सुनवाई कर रही थी। हाईकोर्ट ने आरोपियों के खिलाफ दर्ज एफआईआर रद्द करने से इनकार कर दिया था। आरोपियों के खिलाफ धोखाधड़ी सहित भारतीय दंड संहिता 1860 (आईपीसी) के कई प्रावधान लागू किए गए। ऐसा करते समय हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि हलफनामा दाखिल न करने से पूरी शिकायत रद्द करने की कार्यवाही प्रभावित नहीं होती है।

जब मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष आया तो यह देखा गया कि सूचना देने वाले ने हलफनामा 'देर से' प्रस्तुत किया था।

उसके आलोक में न्यायालय ने अपने आदेश में दर्ज किया:

“हमारी राय है कि इस न्यायालय द्वारा प्रियंका श्रीवास्तव और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य के मामले में दिए गए निर्देश अनिवार्य हैं। हालांकि, वर्तमान मामले के तथ्यों में हम पाते हैं कि सूचना देने वाले ने हलफनामा प्रस्तुत किया, भले ही देर से।

चूंकि मामले की जांच लंबित है, इसलिए अदालत ने मामले की योग्यता पर कोई टिप्पणी किए बिना याचिका का निपटारा कर दिया।

प्रियंका श्रीवास्तव में क्या हुआ?

जस्टिस दीपक मिश्रा द्वारा लिखित इस फैसले (प्रियंका श्रीवास्तव) में यह माना गया कि सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत आवेदन को उस आवेदक के हलफनामे द्वारा समर्थित किया जाना चाहिए, जो मजिस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र का आह्वान करना चाहता है। गौरतलब है कि कोई भी न्यायिक मजिस्ट्रेट अपराध पर संज्ञान लेने से पहले सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत जांच का आदेश दे सकता है।

कोर्ट ने कहा कि इस तरह के आवेदन नियमित रूप से बिना किसी जिम्मेदारी के और केवल कुछ व्यक्तियों को परेशान करने के लिए दायर किए जा रहे हैं। इसलिए फैसले में मजिस्ट्रेटों को आरोपों की सच्चाई और सत्यता की जांच करने की सलाह दी गई। कोर्ट ने कहा कि यह हलफनामा आवेदक को अधिक जिम्मेदार बना सकता।

स्थिति की गंभीरता पर प्रकाश डालते हुए न्यायालय ने दर्ज किया:

“इसके अलावा, यह तब और अधिक परेशान करने वाला और चिंताजनक हो जाता है, जब कोई ऐसे लोगों को पकड़ने की कोशिश करता है, जो वैधानिक प्रावधान के तहत आदेश पारित कर रहे हैं, जिसे उक्त अधिनियम के ढांचे के तहत या भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत चुनौती दी जा सकती है। लेकिन आपराधिक अदालत में अनुचित लाभ लेने के लिए ऐसा नहीं किया जा सकता है, जैसे कि कोई हिसाब-किताब बराबर करने के लिए कृतसंकल्प हो।

अपने निर्णयों में न्यायालय ने सीआरईएफ फाइनेंस लिमिटेड बनाम शांति होम्स (पी) लिमिटेड के मामले का भी उल्लेख किया। उस मामले में न्यायालय, अपराधों का संज्ञान लेने की मजिस्ट्रेट की शक्ति से निपटते समय राय दी गई कि बाद वाला पुलिस जांच के लिए शिकायत भेजने पर विचार कर सकता है।

कोर्ट ने आगे कहा,

“जब मजिस्ट्रेट को कोई शिकायत मिलती है तो वह उस पर संज्ञान लेने के लिए बाध्य नहीं है, यदि शिकायत में कथित तथ्य किसी अपराध के घटित होने का खुलासा करते हैं। मामले में मजिस्ट्रेट के पास विवेकाधिकार है। यदि शिकायत को पढ़ने पर उसे पता चलता है कि उसमें लगाए गए आरोप संज्ञेय अपराध का खुलासा करते हैं और धारा 156(3) के तहत जांच के लिए पुलिस को शिकायत अग्रेषित करना न्याय के लिए अनुकूल होगा और मजिस्ट्रेट का बहुमूल्य समय बर्बाद होने से बचाएगा। जिस मामले की जांच करना मुख्य रूप से पुलिस का कर्तव्य है, उसकी जांच करने में बर्बाद होने के बाद अपराध का संज्ञान लेने के विकल्प के रूप में उस रास्ते को अपनाना उचित होगा।''

केस टाइटल: रमेश कुमार बंग और अन्य, तेलंगाना राज्य और अन्य, डायरी नंबर- 42984 - 2023

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