CrPC की धारा 319: घायल व्यक्ति ने नाम नहीं लिया तो अन्य गवाहों का बयान पर्याप्त नहीं: राजस्थान हाईकोर्ट
राजस्थान हाईकोर्ट ने एक हमले के मामले में तीन अतिरिक्त व्यक्तियों को समन करने के लिए CrPC की धारा 319 के तहत दायर याचिका खारिज करने के ट्रायल कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली अपील को खारिज कर दिया। हाईकोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा कि जब घायल व्यक्ति स्वयं उन तीनों की संलिप्तता और भूमिका के बारे में चुप है, तो अन्य गवाहों के बयान मुश्किल से कोई फर्क डालते हैं।
पूरा मामला
याचिकाकर्ता का दावा था कि तीन प्रतिवादियों ने मामले में पहले से नामजद दो सह-आरोपियों के साथ मिलकर घायल व्यक्ति पर हमला किया था। इस संबंध में IPC की धारा 143 (गैरकानूनी सभा), 341 (सदोष अवरोध) और 323 (स्वेच्छा से चोट पहुंचाना) के तहत FIR दर्ज की गई।
याचिकाकर्ता ने बताया कि ट्रायल के दौरान घायल, शिकायतकर्ता और अन्य प्रत्यक्षदर्शियों के बयान दर्ज किए गए, जिन्होंने विशेष रूप से इन प्रतिवादियों की अपराध में सक्रिय भागीदारी का आरोप लगाया। इस प्रथम दृष्टया साक्ष्य के आलोक में याचिकाकर्ता ने CrPC की धारा 319 के तहत इन प्रतिवादियों को समन करने के लिए आवेदन दिया, जिसे ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया था। इसके बाद पुनर्विचार याचिका हाईकोर्ट में दायर की गई।
जस्टिस अनूप कुमार ढांड की पीठ ने कहा,
"मामले के समग्र तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करते हुए चार्जशीट केवल दो आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ प्रस्तुत की गई, जिनका नाम घायल व्यक्ति के बयान में लिया गया। जब घायल व्यक्ति आरोपियों-प्रतिवादियों की संलिप्तता और भूमिका के बारे में चुप है तो ऐसी परिस्थितियों में अन्य गवाहों के बयान मुश्किल से कोई फर्क डालते हैं।"
हाईकोर्ट ने रिकॉर्ड्स का अवलोकन किया और इस बात पर जोर दिया कि घायल व्यक्ति ने अपने बयान में केवल दो सह-आरोपियों को हमलावर के रूप में नामित किया और प्रतिवादियों का कोई उल्लेख नहीं किया।
कोर्ट ने यह भी कहा कि CrPC की धारा 319 के तहत समन करने की शक्ति विवेकाधीन प्रकृति की है। इसलिए ट्रायल कोर्ट के इस विवेक में तब तक हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता, जब तक कि इसे मनमाना या विकृत साबित न किया जाए।
जज ने कहा,
"CrPC की धारा 319 के तहत कोर्ट को जो विवेकाधीन शक्ति दी गई, वह असाधारण है। इसका प्रयोग विरले (Sparingly) और केवल उन्हीं मामलों में किया जाना आवश्यक है, जहां मामले की परिस्थितियां इसकी मांग करती हों। यह शक्ति केवल तभी प्रयोग की जानी चाहिए, जब ट्रायल कोर्ट के समक्ष पेश किए गए साक्ष्यों से किसी व्यक्ति के खिलाफ मजबूत और अकाट्य प्रमाण सामने आए हों, न कि लापरवाही भरे तरीके से।"
तदनुसार, हाईकोर्ट ने पुनर्विचार याचिका खारिज की।