राजस्थान हाईकोर्ट का बड़ा फैसला: अनावश्यक पक्षकार न जोड़े जाने का मुद्दा तब तक महत्वहीन, जब तक वह अनिवार्य न हो
राजस्थान हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट का आदेश बरकरार रखा, जिसमें प्रतिवादी द्वारा दायर संशोधन याचिका (Order 6 Rule 17 CPC के तहत) को खारिज कर दिया गया था।
हाईकोर्ट ने साथ ही यह स्पष्ट किया कि मुकदमे का स्वामी वादी होता है। उसे यह निर्णय लेने का अधिकार होता है कि वह किसके खिलाफ मुकदमा दायर करना चाहता है। प्रतिवादी इस निर्णय को वादी की ओर से नहीं ले सकता।
जस्टिस अरुण मोंगा की पीठ ने यह टिप्पणी उस याचिका की सुनवाई के दौरान की, जो ट्रायल कोर्ट के आदेश को चुनौती देने के लिए दायर की गई थी।
वादी ने एक संपत्ति को अपनी पत्नी से खरीदने का दावा करते हुए बेदखली, किराया बकाया और कब्जा दिलाने के लिए मुकदमा दायर किया। साथ ही यह कहा कि उसके और याचिकाकर्ता (प्रतिवादी) के बीच मौखिक किरायेदारी का संबंध है।
प्रतिवादी ने इस दावे को नकारते हुए किरायेदारी के अस्तित्व से इनकार किया और वादी की मालिकाना हैसियत को भी चुनौती दी। बाद में प्रतिवादी ने अपने लिखित उत्तर में संशोधन की अर्जी दायर की ताकि यह जोड़ा जा सके कि वादी द्वारा पूर्व स्वामी बंशीलाल को पक्षकार नहीं बनाया गया, यह त्रुटिपूर्ण है।
इस संशोधन याचिका के खारिज होने पर प्रतिवादी ने हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की।
हाईकोर्ट ने सुनवाई के बाद कहा कि संशोधन केवल उसी बात को विस्तार देने के लिए किया गया, जो पहले ही लिखित उत्तर में कही गई कि वादी को पूर्व स्वामी बंशीलाल को पक्षकार बनाना चाहिए था।
अदालत ने दोहराया कि वादी मुकदमे का “मालिक” (master of the lis) होता है। वह तय करता है कि किसे मुकदमे में शामिल करना है। प्रतिवादी वादी को किसी विशेष व्यक्ति को शामिल करने या हटाने के लिए मजबूर नहीं कर सकता।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि जब तक कोई पक्ष आवश्यक पक्ष (indispensable party) न हो, तब तक उसे मुकदमे में शामिल न किए जाने (non-joinder) का कोई महत्व नहीं है—जैसा कि CPC के आदेश 1 नियम 10 में प्रावधान है, जो किसी नागरिक वाद में पक्षकारों के जोड़ने, स्थानापन्न करने या हटाने से संबंधित है।
इसके अतिरिक्त, कोर्ट ने यह भी कहा कि ऐसी संशोधन याचिका मुकदमे की शुरुआत में दाखिल की जानी चाहिए थी, न कि तब जब मुकदमे का ट्रायल अपने अंतिम चरण में पहुंच चुका है।
कोर्ट ने CPC के आदेश 6 नियम 17 के परिशिष्ट प्रावधान का हवाला भी दिया, जिसमें कहा गया कि यदि ट्रायल शुरू हो चुका हो तो संशोधन केवल तभी स्वीकार्य है, जब यह दर्शाया जाए कि पूरी सतर्कता के बावजूद यह मुद्दा पहले नहीं उठाया जा सका।
कोर्ट ने याचिकाकर्ता की संशोधन याचिका को मुकदमे में देरी करने की चाल (delay tactic) मानते हुए उसे खारिज कर दिया।