निजी भूमि पर धर्मशाला होने मात्र से संपत्ति दान या धर्मार्थ नहीं मानी जा सकती: राजस्थान हाईकोर्ट
राजस्थान हाईकोर्ट ने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में कहा कि केवल निजी भूमि पर धर्मशाला का निर्माण हो जाने मात्र से यह नहीं माना जा सकता कि वह संपत्ति धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए समर्पित कर दी गई या उसे हमेशा उसी प्रयोजन के लिए उपयोग में लाना आवश्यक है।
जस्टिस रेखा बोराना की एकल पीठ ने यह टिप्पणी एक याचिका पर सुनवाई के दौरान की, जिसमें एक ट्रस्ट के विधिक उत्तराधिकारियों ने देवस्थान विभाग के आयुक्त के आदेश को चुनौती दी थी। उक्त आदेश में उनकी पैतृक संपत्ति को सार्वजनिक ट्रस्ट की संपत्ति घोषित कर दिया गया था।
अदालत ने रिकॉर्ड का अवलोकन करते हुए पाया कि यह भूमि वर्ष 1916 में याचिकाकर्ताओं के पूर्वजों द्वारा पूर्ण मूल्य चुकाकर खरीदी गई थी। भूमि के पट्टे (पत्ता) में कहीं भी यह उल्लेख नहीं था कि उसका उपयोग केवल धर्मार्थ या दान कार्यों के लिए ही किया जाएगा।
इस आधार पर न्यायालय ने आयुक्त के उस निष्कर्ष को अस्वीकार कर दिया कि यह भूमि रियायती दर पर धर्मशाला निर्माण के लिए आवंटित की गई थी।
न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले लकुलदीप चंद बनाम एडवोकेट जनरल, हिमाचल प्रदेश का हवाला देते हुए कहा कि यदि किसी भूमि को सार्वजनिक ट्रस्ट या धर्मार्थ प्रयोजन के लिए समर्पित करने का कोई औपचारिक या लिखित दस्तावेज उपलब्ध नहीं है तो यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि मालिक ने अपनी स्वामित्व अधिकार त्यागकर भूमि को सार्वजनिक दान के रूप में अर्पित कर दिया।
अदालत ने स्पष्ट किया कि संपत्ति का केवल वह भाग जो वास्तव में धर्मशाला के रूप में उपयोग में है और जिसके लिए एक अलग ट्रस्ट डीड पहले से मौजूद है, वही भाग धर्मार्थ प्रयोजन के लिए समर्पित माना जाएगा।
हाईकोर्ट ने देवस्थान आयुक्त का आदेश रद्द करते हुए याचिकाकर्ताओं की याचिका स्वीकृत कर ली।