बंद दुकान के भीतर कथित जातिसूचक गाली 'सार्वजनिक दृष्टि' में नहीं मानी जा सकती: राजस्थान हाईकोर्ट ने 31 साल पुरानी SC/ST Act के तहत सजा रद्द की
राजस्थान हाईकोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसले में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC/ST Act) के तहत वर्ष 1994 में दी गई सजा को निरस्त कर दिया। अदालत ने स्पष्ट किया कि यदि कथित जातिसूचक अपमान किसी बंद दुकान या चारदीवारी के भीतर हुआ हो, जहां आम जनता की मौजूदगी या दृश्यता न हो, तो उसे कानून की दृष्टि में “सार्वजनिक दृष्टि में” किया गया कृत्य नहीं माना जा सकता।
यह फैसला जस्टिस फरजंद अली की पीठ ने सुनाया। मामला एक वाहन शोरूम संचालक से जुड़ा था, जिस पर आरोप था कि उसने एक ग्राहक को उसकी जाति के आधार पर अपशब्द कहे और मारपीट की। ट्रायल कोर्ट ने उसे SC/ST Act की धारा 3(1)(x) के तहत दोषी ठहराया था, जिसे अब हाईकोर्ट ने अपील में खारिज कर दिया।
अदालत ने अपने फैसले में कहा कि एक्ट की धारा 3(1)(x) में प्रयुक्त शब्द किसी भी ऐसे स्थान पर जो सार्वजनिक दृष्टि में हो का अर्थ केवल इतना नहीं है कि घटना में एक से अधिक व्यक्ति मौजूद हों। इसका तात्पर्य यह है कि कथित अपमान या धमकी ऐसे स्थान पर होनी चाहिए, जहां उसे आरोपी और शिकायतकर्ता के अलावा आम लोग देख या सुन सकें। यदि घटना पूरी तरह निजी स्थान के भीतर सीमित है, तो इस धारा के आवश्यक तत्व पूरे नहीं होते।
मामले के तथ्य बताते हैं कि शिकायतकर्ता ने आरोपी के शोरूम से ऋण पर मोटरसाइकिल खरीदी थी। भुगतान के लिए दिए गए चेक बाउंस हो गए। करीब एक साल बाद मोटरसाइकिल का एक्सीडेंट हुआ, जिसे शोरूम द्वारा मरम्मत कर दिया गया। इसके बाद जब शिकायतकर्ता बाइक लेने पहुंचा और बकाया भुगतान डिमांड ड्राफ्ट के जरिए करना चाहा तो शोरूम संचालक ने उसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया। इसी बात को लेकर दोनों के बीच कहासुनी हुई, जिसके दौरान जातिसूचक गाली और मारपीट के आरोप लगाए गए।
हाईकोर्ट ने गौर किया कि अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर सका कि घटना के समय कोई स्वतंत्र सार्वजनिक गवाह मौजूद था। स्वयं शिकायत के अनुसार कथित घटना शोरूम के भीतर हुई थी। अदालत ने कहा कि अधिनियम का उद्देश्य सार्वजनिक रूप से की जाने वाली जातिगत अपमानजनक हरकतों पर रोक लगाना है ताकि समाज में भय और हीनता की भावना न फैले। निजी स्थान के भीतर हुई कथित घटना, भले ही गंभीर हो इस विशेष प्रावधान के दायरे में नहीं आती।
अदालत ने यह भी कहा कि जब किसी कथित कृत्य की सार्वजनिक दृश्यता या श्रव्यता ही स्थापित नहीं हो पाती तो SC/ST Act की धारा 3(1)(x) को लागू नहीं किया जा सकता। ऐसे मामलों में यदि कोई अपराध बनता भी है तो वह अन्य सामान्य कानूनों के तहत विचारणीय हो सकता है।
इसके अलावा, हाईकोर्ट ने यह भी नोट किया कि विवाद का मूल स्वरूप व्यावसायिक और अनुबंधात्मक था। अभियोजन पक्ष डिमांड ड्राफ्ट या कथित मारपीट के संबंध में भी ठोस साक्ष्य प्रस्तुत करने में असफल रहा, जिससे शिकायतकर्ता के कथन की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होते हैं।