जांच और सुनवाई के दौरान बलात्कार पीड़िता का नाम उजागर होने का मामला: राजस्थान हाइकोर्ट ने पुलिस और न्यायिक अधिकारियों के लिए जागरूकता कार्यक्रम चलाने का निर्देश दिया
जांच और सुनवाई के दौरान बलात्कार पीड़िता की पहचान उजागर होने की स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए राजस्थान हाइकोर्ट ने पुलिस अधिकारियों और न्यायिक अधिकारियों के लिए जागरूकता अभियान चलाने का प्रस्ताव दिया, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि ऐसी घटनाएं दोबारा न हों।
जस्टिस अनूप कुमार ढांड की एकल पीठ ने आदेश में उल्लेख किया कि कई मामलों में यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम (POCSO Act) की धारा 24(5), 33(7) और भारतीय दंड संहिता की धारा 228-A की अनिवार्य आवश्यकता का पालन नहीं किया जा रहा है।
जयपुर में बैठी पीठ ने कहा,
"इस पृष्ठभूमि में न्यायालय को लगता है कि पुलिस अधिकारियों और न्यायिक अधिकारियों को संवेदनशील बनाने की कवायद की जानी चाहिए, जिससे कानून के अनिवार्य प्रावधानों और इसकी आवश्यकताओं का सख्ती से अनुपालन सुनिश्चित किया जा सके।"
मामले को उचित आदेश के लिए चीफ जस्टिस के समक्ष रखने के लिए आदेश की कॉपी रजिस्ट्रार जनरल को भेजी जाएगी। न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया कि पुलिस अधिकारियों के लिए पुलिस अकादमी के माध्यम से नियमित रूप से ऐसे अपेक्षित कार्यक्रम आयोजित करने के लिए आदेश की कॉपी एडिशनल चीफ सेक्रेटरी (गृह विभाग) और डीजीपी को भेजी जाए।
जस्टिस ढांड ने इस बात को भी अस्वीकार किया कि मामले में सीआरपीसी की धारा 161 और 164 के तहत बयान दर्ज करने के दौरान बलात्कार पीड़िता की पहचान कैसे उजागर की गई। मुकदमे के दौरान भी पीड़िता का नाम बताया गया। न्यायालय ने कहा कि जांच अधिकारी और न्यायिक अधिकारी बच्चे को मीडिया के अनावश्यक ध्यान से बचाने के लिए POCSO Act में अनिवार्य प्रावधानों का पालन करने में विफल रहे, जो बच्चे के सर्वोत्तम हित में नहीं हो सकता है।
उल्लेखनीय है कि आईपीसी की धारा 228-ए में यौन शोषण पीड़ितों की पहचान उजागर करने पर 2 साल की सजा का प्रावधान है जिसे हाइकोर्ट ने अपने आदेश में दोहराया है।
निपुण सक्सेना एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2019) में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों पर भी सिंगल जज बेंच द्वारा चर्चा की गई जिससे इस बात के औचित्य को पुष्ट किया जा सके कि ऐसे अपराधों के पीड़ितों की पहचान क्यों नहीं की जानी चाहिए, ताकि भविष्य में शत्रुतापूर्ण भेदभाव या उत्पीड़न से बचा जा सके।
निपुण सक्सेना में जस्टिस मदन बी लोकुर और दीपक शर्मा की खंडपीठ ने बलात्कार अपराधों के पीड़ितों की गोपनीयता और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण निर्देश भी जारी किए।
वर्तमान तथ्यात्मक परिदृश्य में न्यायालय ने अफसोस जताया कि पुलिस और मजिस्ट्रेट ने कानून निर्माताओं और सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित सभी सुरक्षा उपायों का उल्लंघन किया।
उपर्युक्त टिप्पणियां करने से पहले न्यायालय ने संयोगवश आरोपी को दी गई मुख्य सजा को निलंबित कर दिया, क्योंकि पीड़िता ने खुद ट्रायल कोर्ट के समक्ष जिरह में यौन उत्पीड़न के तथ्य से इनकार किया था।
जस्टिस ढांड ने कहा कि इसके अलावा घटना की पुष्टि उसके माता-पिता या अन्य गवाहों के बयानों से नहीं हुई। डीएनए रिपोर्ट ही एकमात्र आधार है, जिसके आधार पर आरोपी को दोषी पाया गया, क्योंकि अपील में निर्णय में काफी समय लगने की संभावना है। इसलिए हाइकोर्ट ने अपील के अंतिम निपटान तक सजा के निलंबन के लिए सीआरपीसी की धारा 389 के तहत आवेदन को अनुमति दी।
जमानत की शर्तों को सूचीबद्ध करने के बाद जस्टिस ढांड ने निचली अदालत को यह भी निर्देश दिया कि यदि आरोपी निर्देशानुसार हर साल के पहले महीने में उसके समक्ष उपस्थित नहीं होता है तो वह हाईकोर्ट को विधिवत सूचित करे।
केस टाइटल- रोहित बैरवा बनाम राजस्थान राज्य और अन्य।