केवल अपराधी के ठिकाने की जानकारी 'शरण देना' नहीं मानी जा सकती, जब तक यह साबित न हो कि आरोपी ने उसे गिरफ्तारी से बचाने में मदद की: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

Update: 2025-06-10 07:10 GMT

पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा कि केवल अपराधी के ठिकाने की जानकारी होना अपराधी को शरण देना (धारा 212 आईपीसी) के अपराध को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त नहीं है, जब तक यह साबित न हो कि आरोपी ने उसे गिरफ्तारी से बचाने के लिए कोई सहायता दी।

यह टिप्पणी अदालत ने FIR रद्द करते हुए की, जिसमें आईपीसी की धारा 212 (अपराधी को शरण देना) और धारा 216 (ऐसे अपराधी को शरण देना जो हिरासत से फरार हो गया हो या जिसकी गिरफ्तारी का आदेश दिया गया हो) के तहत मामला दर्ज किया गया था।

आरोप है कि एक पिता ने अपने बेटे को क्रूरता के मामले में गिरफ्तारी से बचाने के लिए उसे आश्रय दिया।

जस्टिस मनीषा बत्रा ने कहा,

"IPC की धारा 212 के प्रावधानों को लागू करने के लिए यह आवश्यक है कि यह स्थापित किया जाए कि आरोपी ने किसी ऐसे व्यक्ति को छिपाया या शरण दी, जिसे वह अपराधी जानता था या मानता था। ऐसा करना आरोपी की मंशा थी कि अपराधी को कानूनी सजा से बचाया जा सके या उसकी गिरफ्तारी टाली जा सके।"

अदालत ने आगे कहा,

"किसी व्यक्ति को सह-अपराधी के रूप में दोषी ठहराने से पहले यह दिखाना होगा कि उसने अपराधी की स्पष्ट या अप्रत्यक्ष रूप से सहायता की है। केवल यह जानना कि अपराधी कहां है, शरण देने के बराबर नहीं है, जब तक कि आरोपी ने उसे गिरफ्तारी से बचाने के लिए कुछ किया न हो।"

प्रॉसिक्यूशन के अनुसार एक पुलिस अधिकारी वैवाहिक विवाद के मामले में वारंट की तामील के लिए पहुंचा, जहां बताया गया कि आरोपी अजीब समय पर अपने पिता के घर आता-जाता था।

शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि याचिकाकर्ता (अर्थात पिता और भाई) आरोपी को शरण दे रहे थे।

याचिकाकर्ता की ओर से वकील ने कहा कि आरोपी (हरिश कंडा) जो याचिकाकर्ता नंबर 1 का बेटा है, उसकी पत्नी के बीच 2006 से वैवाहिक विवाद चल रहा है।

दलील दी गई कि आपराधिक कार्यवाही केवल कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग करने के लिए शुरू की गई। आरोप अगर सतही तौर पर सही भी माने जाएं, तब भी यह IPC की जिन धाराओं के तहत आरोप लगाया गया, उनका कोई मामला नहीं बनता।

सुनवाई के बाद कोर्ट ने यह नोट किया कि याचिकाकर्ताओं पर IPC की धारा 212 और 216 के तहत मामला दर्ज किया गया। यह आरोप लगाकर कि उन्होंने आरोपी हरिश कंडा को शरण दी, जिसके खिलाफ उसकी पत्नी की याचिका पर गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया था।

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि IPC की धारा 212 के तहत दोषसिद्धि के लिए निम्नलिखित अनिवार्य तत्व सिद्ध होने चाहिए:

(i) कोई व्यक्ति हो, जिसने वास्तव में कोई अपराध किया हो।

(ii) आरोपी द्वारा उस व्यक्ति को छिपाना या शरण देना।

(iii) आरोपी को यह ज्ञात हो या ऐसा विश्वास हो कि वह व्यक्ति अपराधी है।

(iv) आरोपी की मंशा हो कि अपराधी को कानूनी सजा से बचाया जाए।

जस्टिस बत्रा ने यह स्पष्ट किया कि किसी व्यक्ति को धारा 212 के तहत दोषी ठहराने के लिए यह सिद्ध होना चाहिए कि कोई अपराध हुआ है। साथ ही अभियोजन पक्ष को यह दिखाना होगा कि आरोपी ने जानबूझकर उसे छिपाया या शरण दी या आरोपी को यह विश्वास था कि वह अपराधी है। वहीं IPC की धारा 216 उन अपराधियों को शरण देने पर सजा का प्रावधान करती है, जो हिरासत से भागे हों या जिनकी गिरफ्तारी के आदेश दिए गए हों।

इस मामले में कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ताओं द्वारा आरोपी को शरण देने के कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं।

"जहां तक प्रस्तुत दस्तावेज़ की बात है, यह केवल यह दिखाता है कि याचिकाकर्ता नंबर 1 और हरिश कंडा संयुक्त बैंक खाता चलाते थे। हालांकि यह लेन-देन वर्ष 2007-2008 के हैं। इस दस्तावेज़ से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि याचिकाकर्ता नंबर 1 अपने बेटे की 2023 या उसके बाद किसी प्रकार की सहायता कर रहा था।"

कोर्ट ने पाया कि रिकॉर्ड में ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है, जिससे यह साबित हो सके कि याचिकाकर्ता ने अपने बेटे को शरण दी, छिपाया, या उसे सजा से बचाने के लिए कोई कदम उठाया।

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए याचिका स्वीकार की गई और FIR रद्द कर दी गई।

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