यदि सर्जरी से कोई परिणाम नहीं मिलता है तो मेडिकल लापरवाही नहीं मानी जा सकती: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने नसबंदी के बाद गर्भवती हुई महिला को राहत देने से इनकार किया
पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने नसबंदी ऑपरेशन के बाद गर्भवती हुई महिला को 30,000 रुपये (ब्याज सहित) मुआवजा देने के प्रथम अपीलीय न्यायालय का आदेश खारिज कर दिया।
ऐसा करते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि सर्जरी से पहले महिला को इस तथ्य से अवगत कराया गया कि कभी-कभी ऑपरेशन विफल हो सकता है, जिसके लिए कोई चिकित्सा अधिकारी जिम्मेदार नहीं होगा। उसने इस बारे में बताते हुए एक फॉर्म पर हस्ताक्षर किए थे।
इस प्रकार हाईकोर्ट ने निचली अदालत के आदेश को बहाल कर दिया, जिसने महिला की याचिका को यह कहते हुए खारिज किया कि वह डॉक्टर की ओर से मेडिकल लापरवाही साबित करने में विफल रही है।
जस्टिस अनिल क्षेत्रपाल ने अपने आदेश में कहा,
"केवल इसलिए मेडिकल लापरवाही नहीं मानी जा सकती, क्योंकि शल्य प्रक्रिया वांछित परिणाम प्राप्त करने में विफल रही है। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि इस आरोप के अभाव में कि सर्जन सर्जरी करने में सक्षम नहीं था या सर्जन ने लापरवाही की थी, क्षतिपूर्ति के लिए मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।"
न्यायालय ने कहा कि सर्जन की लापरवाही को साबित करने के लिए कोई मेडिकल साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया। महिला ने स्वीकार किया कि उसने उस फॉर्म पर हस्ताक्षर किए, जिसमें यह निर्धारित किया गया कि नसबंदी ऑपरेशन वांछित परिणाम नहीं दे सकता है।
ये टिप्पणियां राज्य की अपील पर सुनवाई करते हुए की गईं, जिसमें प्रथम अपीलीय न्यायालय ने आदेश को चुनौती दी, जिसके तहत महिला को नसबंदी ऑपरेशन के बाद गर्भवती होने के आधार पर 6% प्रति वर्ष ब्याज के साथ 30,000 रुपये का मुआवजा दिया गया।
ट्रायल कोर्ट ने पाया कि वादी-प्रतिवादी ने नसबंदी ऑपरेशन के बाद लड़की को जन्म दिया। हालांकि, वह डॉक्टर की लापरवाही साबित करने में विफल रही।
महिला ने साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया कि वह अपनी स्वेच्छा से जांच के लिए अस्पताल गई। ऑपरेशन से पहले उसने एक फॉर्म भरा था, जिस पर उसके हस्ताक्षर हैं। फॉर्म में कहा गया कि वह ऑपरेशन की विफलता के लिए किसी डॉक्टर को जिम्मेदार नहीं ठहराएगी।
ऑपरेशन योग्य और अनुभवी सर्जन द्वारा किया गया। इसके बाद ट्रायल कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी।
प्रथम अपीलीय न्यायालय ने यह मानकर निर्णय पलट दिया कि नसबंदी ऑपरेशन के बाद प्रतिवादी महिला दूसरे बच्चे को जन्म नहीं देगी।
अपीलीय न्यायालय ने आगे कहा कि राज्य ने यह दावा नहीं किया कि प्रतिवादी को कभी भी यह देखने के लिए बुलाया गया कि ऑपरेशन सफल रहा या नहीं। इस प्रकार, प्रथम अपीलीय न्यायालय ने महिला को 6% प्रति वर्ष की दर से ब्याज सहित 30,000 रुपये दिए।
हाईकोर्ट के समक्ष अपीलकर्ता राज्य ने तर्क दिया कि शल्य चिकित्सक या उसके नियोक्ता को नसबंदी ऑपरेशन की विफलता पर अवांछित गर्भावस्था या अवांछित बच्चे के लिए मुआवजे के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि यह साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं है कि शल्य चिकित्सक की ओर से सर्जरी करने में लापरवाही थी।
हाईकोर्ट के प्रश्न पर महिला की ओर से उपस्थित वकील ने स्वीकार किया कि सर्जन की लापरवाही साबित करने के लिए कोई मेडिकल साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया।
प्रतिवादी ने स्वीकार किया कि उसने उस फॉर्म पर हस्ताक्षर किए, जिसमें यह निर्धारित किया गया कि नसबंदी ऑपरेशन वांछित परिणाम नहीं दे सकता।
प्रस्तुतियों की जांच करने के बाद हाईकोर्ट ने कहा कि मेडिकल लापरवाही से संबंधित मामलों में क्षतिपूर्ति देने के लिए महिला को उचित मामलों में विशेषज्ञ की राय सहित सकारात्मक साक्ष्य प्रस्तुत करने की आवश्यकता है।
जस्टिस क्षेत्रपाल ने कहा कि प्रथम अपीलीय न्यायालय ने केवल अनुमान के आधार पर लापरवाही मान ली।
न्यायालय ने कहा,
"निचली अदालत द्वारा पारित निर्णय को पढ़ने से यह स्पष्ट है कि ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर हरदीप शर्मा डीडब्लू 1 के रूप में उपस्थित हुए। उन्होंने कहा कि ऑपरेशन की सफलता के बारे में प्रतिवादी को कोई आश्वासन नहीं दिया गया। उन्हें इस तथ्य से अवगत कराया गया कि कभी-कभी ऑपरेशन विफल हो जाता है, जिसके लिए कोई भी मेडिकल अधिकारी जिम्मेदार नहीं होगा।"
परिणामस्वरूप हाईकोर्ट ने अपील को स्वीकार कर लिया और मुआवजा देने वाले प्रथम अपीलीय न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया। हाईकोर्ट ने निचली अदालत के आदेश को भी बहाल कर दिया।
केस टाइटल: पंजाब राज्य और अन्य बनाम XXXX