अपील अदालत से ऐसी अपेक्षा नहीं': एमपी हाईकोर्ट ने एक पंक्ति में दिए गए बरी आदेश रद्द कर मामला पुनः सुनवाई के लिए भेजा
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने स्वेच्छा से चोट पहुंचाने के एक मामले में अपीलीय अदालत द्वारा पारित पंक्ति के बरी आदेश रद्द करते हुए कड़ी टिप्पणी की। अदालत ने कहा कि अपीलीय न्यायालय से यह अपेक्षा नहीं की जाती कि वह बिना कारण बताए संक्षिप्त और गैर-वक्तव्य (नॉन-स्पीकिंग) आदेश पारित करे।
जस्टिस राजेंद्र कुमार वाणी की सिंगल बेंच ने कहा कि अपीलीय अदालत का दायित्व है कि वह न केवल ट्रायल कोर्ट के निष्कर्षों की समीक्षा करे, बल्कि साक्ष्यों और तर्कों की स्वतंत्र रूप से जांच करते हुए कारणयुक्त निर्णय दे। अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि केवल यह लिख देना कि अपील स्वीकार की जाती है और ट्रायल कोर्ट का फैसला निरस्त किया जाता है न्यायिक प्रक्रिया के अनुरूप नहीं है।
यह मामला उस समय हाईकोर्ट के समक्ष आया जब राज्य सरकार ने सेशन कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी जिसमें आरोपी को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 323 के तहत स्वेच्छा से चोट पहुंचाने के अपराध से बरी कर दिया गया। राज्य की ओर से दलील दी गई कि ट्रायल कोर्ट ने साक्ष्यों पर विचार करते हुए आरोपी को दोषी ठहराया और सजा भी सुनाई थी लेकिन अपीलीय अदालत ने बिना किसी कारण या चर्चा के उस फैसले को पलट दिया जो कानूनन अस्वीकार्य है।
हाईकोर्ट ने बनी सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और राजस्थान राज्य बनाम सोहन लाल मामलों का हवाला देते हुए दोहराया कि न्यायिक निर्णय में कारण देना अनिवार्य है। अदालत ने कहा कि अपीलीय न्यायालय को अपील का निपटारा गुण-दोष के आधार पर करना होता है, न कि केवल औपचारिक रूप से।
अदालत ने रिकॉर्ड का अवलोकन करते हुए पाया कि ट्रायल कोर्ट ने साक्ष्यों और तथ्यों की विस्तृत चर्चा के बाद आरोपी बाबूलाल को दोषी ठहराया और छह महीने के कठोर कारावास तथा एक हजार रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई। इसके विपरीत अपीलीय अदालत का आदेश अत्यंत संक्षिप्त, अस्पष्ट और कारण-विहीन था।
इन परिस्थितियों में हाईकोर्ट ने अपीलीय अदालत का आदेश अवैध और त्रुटिपूर्ण मानते हुए निरस्त किया और मामले को पुनः विचार के लिए उसी अदालत को वापस भेज दिया। अदालत ने निर्देश दिया कि अपील पर नए सिरे से विधि के अनुसार और कारणयुक्त निर्णय पारित किया जाए।