व्हाट्सऐप पोस्ट पर दर्ज FIR रद्द करने से एमपी हाईकोर्ट का इनकार, पत्रकार की याचिका खारिज
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने उस पत्रकार की याचिका खारिज की, जिसमें उसने व्हाट्सऐप ग्रुप में कथित रूप से ऐसा मैसेज साझा करने पर दर्ज FIR रद्द करने की मांग की थी, जिसमें यह दावा किया गया था कि अच्छा हिंदू होने के लिए गोमांस का सेवन आवश्यक है।
अदालत ने कहा कि प्रथम दृष्टया FIR में दर्ज आरोप संज्ञेय अपराध बनाते हैं। इस स्तर पर जांच को रोका नहीं जा सकता।
जस्टिस मिलिंद रमेश फाडके की पीठ ने टिप्पणी करते हुए कहा कि मामला धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने और सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने वाली सामग्री के प्रकाशन अथवा प्रसार से जुड़ा है।
अदालत ने स्पष्ट किया कि यह सवाल कि याचिकाकर्ता ने जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे से पोस्ट किया या नहीं, सामग्री सद्भावना में साझा की गई थी या वह केवल शैक्षणिक थी।
क्या वह सार्वजनिक शांति भंग करने की क्षमता रखती है ये सभी मुद्दे जांच से सामने आने वाले साक्ष्यों के आधार पर तय होंगे। इन विषयों पर प्रारंभिक स्तर पर फैसला नहीं किया जा सकता।
अभियोजन के अनुसार, शिकायतकर्ता राम मोहन तिवारी ने भिंड जिले के डबोह थाना में शिकायत दी थी कि 26 सितंबर 2025 की रात लगभग 10 बजे उन्हें जानकारी मिली कि “बी. पी. बौद्ध पत्रकार न्यूज ग्रुप” नामक व्हाट्सऐप ग्रुप में याचिकाकर्ता ने सात पन्नों का एक संदेश पोस्ट किया, जिसमें हिंदू धर्म और ब्राह्मण समाज के संबंध में अपमानजनक व भ्रामक टिप्पणियां की गई।
बताया गया कि उक्त ग्रुप का संचालन केवल याचिकाकर्ता स्वयं करता था और उसी को उसमें संदेश पोस्ट करने की अनुमति थी।
शिकायत में आरोप लगाया गया कि पोस्ट किए गए संदेश में प्राचीन अनुष्ठानों से जुड़े ऐसे दावे किए गए थे, जिनमें कहा गया था कि अच्छा हिंदू होने के लिए गोमांस का सेवन किया जाना आवश्यक है। कुछ अवसरों पर बैलों की बलि और मांस सेवन अनिवार्य था ब्राह्मण नियमित रूप से गौवंश का मांस खाते थे तथा धार्मिक अनुष्ठानों में गाय-बैलों का वध किया जाता था।
इसके साथ ही ब्राह्मण समुदाय के प्रति कई आपत्तिजनक टिप्पणियां भी शामिल थीं। गाय हिंदू धर्म में अत्यंत पूजनीय होने के कारण, शिकायतकर्ता एवं अन्य हिंदुओं तथा ब्राह्मण समाज की धार्मिक भावनाएं आहत होने का आरोप लगाया गया। इसी आधार पर याचिकाकर्ता के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज की गई।
पत्रकार ने हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कर प्राथमिकी को निरस्त करने की मांग की थी, जो भारतीय न्याय संहिता की धारा 196(1) (समूहों के बीच वैमनस्य फैलाना), धारा 299 (धार्मिक भावनाएं आहत करने के लिए जानबूझकर व दुर्भावनापूर्ण कृत्य), धारा 353(1) (मिथ्या वक्तव्यों द्वारा उपद्रव करना) तथा धारा 353(2) (किसी समूह में भय उत्पन्न करने वाली गतिविधि) के अंतर्गत दर्ज की गई थी।
याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी कि संदेश उनके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत सद्भावना से साझा किया गया था। यह एक पुस्तक से लिया गया अंश था जिसके लेखक डॉ. सुरेंद्र कुमार शर्मा (अज्ञात) हैं और जिस पर सरकार द्वारा कोई प्रतिबंध नहीं है।
उन्होंने कहा कि यह पोस्ट एक निजी व्हाट्सऐप ग्रुप में साझा की गई थी, जो पत्रकारिता के पेशे से जुड़े लोगों की चर्चा के लिए था और इससे न तो सामाजिक सौहार्द पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और न ही सार्वजनिक शांति भंग होती है।
याचिका में यह भी आरोप लगाया गया कि पुलिस की कार्रवाई पूर्वनियोजित थी तथा थाना प्रभारी द्वारा शिकायत दर्ज कराने के निर्देश वाला संदेश भेजना दुर्भावनापूर्ण मंशा को दर्शाता है।
यह FIR स्थानीय पुलिस के खिलाफ की गई उनकी रिपोर्टिंग के प्रतिशोध के रूप में दर्ज काउंटर-ब्लास्ट है।
राज्य की ओर से कहा गया कि FIR संज्ञेय अपराध का खुलासा करती है, इसलिए कानूनन जांच आवश्यक है।
हाईकोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा लगाए गए दुर्भावना के आरोप तथ्यात्मक हैं और उनकी पुष्टि साक्ष्यों से ही संभव है। अनुच्छेद 226 के अंतर्गत जांच के चरण में इनका निर्णायक रूप से निर्धारण नहीं किया जा सकता। केवल यह कहना कि FIR प्रतिशोध स्वरूप दर्ज की गई, अपने-आप में उसे रद्द करने का आधार नहीं बनता, जब आरोप संज्ञेय अपराध दर्शाते हों।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय स्टेट ऑफ हरियाणा बनाम भजन लाल का उल्लेख करते हुए अदालत ने दोहराया कि FIR रद्द करना केवल विरलतम मामलों में ही उचित होता है, जब आरोप किसी भी तरह से अपराध न बनाते हों या पूरी तरह असंभव प्रतीत हों।
चूंकि वर्तमान मामले में प्राथमिकी प्रथम दृष्टया अपराध को दर्शाती है, इसलिए जांच जारी रहने दी जानी चाहिए। इसी आधार पर हाईकोर्ट ने याचिका खारिज कर दी।