धारा 16 के तहत द्वितीयक साक्ष्य की अनुमति देना अपवाद, पक्षकार को उन परिस्थितियों को स्पष्ट करना चाहिए, जिसके तहत फोटोकॉपी तैयार की गई: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट

Update: 2024-07-26 09:43 GMT

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65 के तहत फोटोकॉपी को द्वितीयक साक्ष्य के रूप में स्वीकार करने के लिए तथ्यात्मक आधार स्थापित करने की आवश्यकता पर जोर दिया।

याचिकाकर्ता संतोष चौहान ने अनुबंध के विशिष्ट प्रदर्शन के लिए सिविल मुकदमा दायर किया और दस्तावेजों की फोटोकॉपी को द्वितीयक साक्ष्य के रूप में पेश करने की मांग की। ट्रायल कोर्ट ने इस आवेदन को खारिज कर दिया, जिससे याचिकाकर्ता को वर्तमान विविध याचिका दायर करने के लिए प्रेरित किया गया।

याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि ट्रायल कोर्ट का फैसला कानूनी रूप से त्रुटिपूर्ण और तथ्यात्मक रूप से गलत था। ट्रायल कोर्ट ने कथित तौर पर इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया कि विचाराधीन दस्तावेज स्वीकार किए गए थे और मुकदमे के उचित निर्णय के लिए महत्वपूर्ण थे।

वकील ने तर्क दिया कि प्रतिवादियों ने फोटोकॉपी की प्रामाणिकता को चुनौती नहीं दी थी। इस प्रकार ट्रायल कोर्ट को उन्हें द्वितीयक साक्ष्य के रूप में स्वीकार करना चाहिए। याचिकाकर्ता ने अपने दावे का समर्थन करने के लिए नवाब सिंह बनाम इंद्रजीत कौर (1999) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया।

प्रतिवादियों ने याचिका का विरोध करते हुए तर्क दिया कि याचिकाकर्ता ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65 के तहत निर्धारित द्वितीयक साक्ष्य के प्रवेश के लिए आवश्यक शर्तों को पूरा नहीं किया।

इंदौर में बैठे जस्टिस अनिल वर्मा ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65 और प्रासंगिक केस कानूनों के प्रावधानों का विश्लेषण किया।

अदालत ने कहा,

“यह कानून का सुस्थापित सिद्धांत है कि जब दस्तावेज़ की फोटोकॉपी पेश की जाती है, तो भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65 का लाभ पाने के लिए संबंधित पक्ष को द्वितीयक साक्ष्य देने के लिए तथ्यात्मक आधार तैयार करना आवश्यक है। संबंधित पक्ष को उन परिस्थितियों को स्पष्ट करने की आवश्यकता हो सकती है, जिनके तहत फोटोकॉपी तैयार की गई थी और इसे तैयार करने के समय मूल किसके पास था।”

न्यायालय ने एच. सिद्दीकी (मृत) बाय एलआरएस बनाम ए. रामलिंगम (2011) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का संदर्भ दिया, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि द्वितीयक साक्ष्य को मूल कॉपी की फोटोकॉपी की सटीकता को साबित करने वाले आधारभूत साक्ष्य द्वारा प्रमाणित किया जाना चाहिए।

न्यायालय ने अशोक दुलीचंद बनाम माधवलाल दुबे एवं अन्य (1975) के मामले का भी हवाला दिया, जहां यह माना गया कि मूल दस्तावेज के कब्जे और तैयारी की परिस्थितियों को स्थापित किए बिना द्वितीयक साक्ष्य अस्वीकार्य है।

जस्टिस वर्मा ने पाया कि ट्रायल कोर्ट ने आवेदन सही ढंग से खारिज किया, क्योंकि याचिकाकर्ता फोटोकॉपी के लिए तथ्यात्मक आधार स्थापित करने में विफल रहा था। न्यायालय ने नोट किया कि याचिकाकर्ता ने यह प्रदर्शित नहीं किया कि फोटोकॉपी मूल प्रति की सटीक प्रतिकृतियां थीं और न ही उन्होंने फोटोकॉपी की तैयारी की परिस्थितियों को स्पष्ट किया।

केस टाइटल- संतोष चौहान पुत्र स्वर्गीय हरिराम चौहान बनाम यशवंत पुत्र दयालदास कुर्रे एवं अन्य

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