मूल राहत के मूल्य को कम आंककर कोर्ट फीस बचाने की कोशिश पर कोर्ट को हस्तक्षेप करना चाहिए: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट

Update: 2025-05-08 10:49 GMT

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की ग्वालियर खंडपीठ ने कहा कि किसी वाद (Suit) का मूल्यांकन उस राहत के आधार पर किया जाना चाहिए, जो वादी द्वारा मांगी गई, न कि केवल वादपत्र में प्रयुक्त शब्दों के आधार पर किया जाना चाहिए।

जस्टिस मिलिंद रमेश फडके ने निर्णय में कहा कि यदि कोई वादी वादपत्र और उसमें मांगी गई राहत का मूल्य कम करके प्रस्तुत करता है तो अदालत का यह दायित्व बनता है कि वह हस्तक्षेप कर यह जांच करे कि मांगी गई राहत का कोई वास्तविक मौद्रिक मूल्य (Real Money Value) है या नहीं।

वादकर्ता (Plaintiff) ने घोषणा (Declaration) और स्थायी निषेधाज्ञा (Permanent Injunction) के लिए वाद दायर किया। उन्होंने आरोप लगाया कि प्रतिवादी नंबर 1 ने उन्हें एक दुकान किराए पर दी थी। बाद में उसी दुकान को 11,05,000 में बेचने के लिए समझौता किया गया। 8,55,000 पहले ही अदा कर दिए गए और बाकी 2,50,000 बही खातेदारी के बाद देने की सहमति थी। बाद में प्रतिवादियों के पारिवारिक विवाद के समाधान के बाद दुकान प्रतिवादी नंबर 1 के हिस्से में आई, लेकिन खातेदारी दर्ज नहीं हो सकी।

इसके बाद प्रतिवादी उक्त दुकान को किसी और को बेचने की कोशिश कर रहे थे, जिससे वादी ने घोषणा और निषेधाज्ञा के लिए वाद दायर किया। प्रतिवादी नंबर 1 ने CPC के आदेश 7 नियम 11 के तहत आवेदन दायर कर वादी को 11,05,000 के मूल्य पर कोर्ट फीस जमा करने के लिए कहा।

वादी ने कहा कि यह वाद अनुबंध प्रवर्तन (Specific Performance) के लिए नहीं बल्कि केवल घोषणा और निषेधाज्ञा के लिए है, इसलिए कोई विशेष कोर्ट फीस नहीं बनती। लेकिन ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादी की याचिका मंजूर करते हुए वादी को 11,05,000 के मूल्य पर कोर्ट फीस जमा करने का आदेश दिया।

वादी के वकील ने तर्क दिया कि वाद में Relief केवल इतना है कि प्रतिवादी दुकान किसी और को न बेचें, इसलिए इसे अनुबंध प्रवर्तन के वाद के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। लेकिन ट्रायल कोर्ट ने इसको अनुबंध प्रवर्तन का मामला मान लिया और कोर्ट फीस का निर्देश दे दिया।

प्रत्युत्तर में प्रतिवादी के वकील ने कहा कि केवल वादपत्र में प्रयुक्त शब्दों से यह निर्धारित नहीं किया जा सकता कि कितना कोर्ट फीस लगेगी। इसके लिए वाद की वास्तविक प्रकृति और राहत की वास्तविकता देखनी जरूरी है।

कोर्ट के निष्कर्ष:

न्यायालय ने Subhash Chand Jain Vs MPEB (2001) के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि जहां वादी राहत और वाद के मूल्य को कम करने की कोशिश करता है, वहां कोर्ट को हस्तक्षेप करना चाहिए।

न्यायालय ने कहा कि यदि वादी द्वारा मांगी गई राहत में वास्तविक मौद्रिक मूल्य जुड़ा हो तो उस आधार पर कोर्ट फीस देनी होगीबभले ही वादी ने उसे "घोषणा" और निषेधाज्ञा कहकर पेश किया हो।

“ऐसी घोषणा के लिए राहत स्वतंत्र होती है। वह अधिकार (Title) से जुड़ी होती है। इसका मतलब है कि वादी द्वारा अनुबंध के आधार पर मांगी गई राहत, स्वतः ही टाइटल और कब्जे के प्रश्न को शामिल करती है। ऐसी स्वतंत्र राहत के लिए वादी को अनुबंध में उल्लेखित राशि के आधार पर कोर्ट फीस देनी होगी।”

इस प्रकार कोर्ट ने सिविल जज द्वारा पारित आदेश को सही ठहराया और याचिका खारिज कर दी।

केस टाइटल: रामचरण गोयल बनाम कमलरानी वर्मा एवं अन्य, मिक्स. याचिका संख्या: 6624/2023

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