नियोक्ता-कर्मचारी संबंध साबित करने के लिए हलफनामे या स्वयं-सेवा दस्तावेज दाखिल करना अपर्याप्त: एमपी हाईकोर्ट
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की जस्टिस मिलिंद रमेश फड़के की एकल पीठ ने अशोक सिंह तोमर द्वारा दायर याचिका खारिज की। तोमर ने लेबर कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी, जिसमें उसे नौकरी से निकाले जाने के बाद उसकी बहाली और पिछले वेतन के लिए उसके दावे को खारिज कर दिया गया था।
हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि तोमर ने नियोक्ता-कर्मचारी संबंध स्थापित करने के लिए अपर्याप्त सबूत पेश किए। इसने नोट किया कि केवल एक हलफनामा या पार्टी द्वारा स्वयं-सेवा दस्तावेज ऐसे संबंध स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं होंगे।
पूरा मामला
अशोक सिंह तोमर ने कहा कि वह सोई बीट में वन रेंज में सुरक्षा गार्ड के रूप में काम करता था। उसने आरोप लगाया कि औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 (आईडी अधिनियम) की धारा 25 (f) में निर्धारित उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना प्रतिवादी द्वारा उसे मौखिक रूप से नौकरी से निकाल दिया गया।
नतीजतन, उसने लेबर कोर्ट में शिकायत दर्ज कराई, जिसमें बहाली और पिछले वेतन की मांग की गई।
तोमर ने तर्क दिया कि उन्होंने पिछले वर्ष में 240 दिन की निरंतर सेवा पूरी कर ली थी। उन्होंने कहा कि इससे उन्हें धारा 25 (एफ) के तहत बर्खास्तगी से सुरक्षा मिली। हालांकि लेबर कोर्ट ने उनके दावे को खारिज कर दिया। इसने माना कि तोमर द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य नियोक्ता-कर्मचारी संबंध स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं थे।
तर्क
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि लेबर कोर्ट को पक्षों के बीच नियोक्ता-कर्मचारी संबंध को मान्यता देनी चाहिए थी। उन्होंने अपने दावे का समर्थन करने के लिए एक पहचान पत्र और एक गवाह का बयान प्रस्तुत किया। तोमर ने तर्क दिया कि उन्होंने 240 दिनों से अधिक लगातार रोजगार पूरा कर लिया था और इस प्रकार आईडी अधिनियम के तहत छंटनी से सुरक्षित थे।
उन्होंने आगे तर्क दिया कि प्रतिवादी न्यायालय द्वारा निर्देशित रोजगार रिकॉर्ड प्रस्तुत करने में विफल रहे हैं; इसलिए उनके खिलाफ एक प्रतिकूल निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए।
दूसरी ओर प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि तोमर को वन सुरक्षा सोसायटी द्वारा नियुक्त किया गया था जो वन संरक्षण के लिए गठित एक निजी संस्था है। उन्हें वन विभाग द्वारा नियुक्त नहीं किया गया था।
उन्होंने तर्क दिया कि सोसायटी का अपने श्रम और वित्त पर पूरा नियंत्रण था जिससे वन विभाग के साथ किसी भी प्रत्यक्ष नियोक्ता-कर्मचारी संबंध को नकार दिया गया। उन्होंने आगे कहा कि तोमर ने अपने रोजगार के ठोस सबूत पेश नहीं किए, जैसे कि वेतन पर्ची या औपचारिक नियुक्ति रिकॉर्ड - जिससे उनके दावे नकार दिए गए।
अदालत का तर्क
अदालत ने सबसे पहले देखा कि तोमर अपने रोजगार के कोई विश्वसनीय सबूत पेश करने में विफल रहे। इसने नोट किया कि प्रस्तुत किए गए पहचान पत्र में वन विभाग से जुड़ने वाले आधिकारिक हस्ताक्षर या बाहरी नंबर नहीं थे।
अदालत ने तोमर के गवाहों की गवाही को भी अविश्वसनीय घोषित किया खासकर इसलिए कि उपलब्ध रिकॉर्ड सह-रोजगार के उनके दावों का खंडन करते हैं।
इसके अलावा रेंज फॉरेस्ट ऑफिसर बनाम एसटी हदीमनी (2002 (3) एससीसी 25) और नगर निगम, फरीदाबाद बनाम सिरी निवास (2004 (8) एससीसी 195) पर भरोसा करते हुए अदालत ने दोहराया कि 240 दिनों तक लगातार सेवा साबित करने का भार याचिकाकर्ता पर था।
उन्होंने कहा कि हलफनामा दाखिल करना या स्वयं-सेवा दस्तावेज प्रस्तुत करना इस दायित्व को पूरा करने के लिए अपर्याप्त है।
अदालत ने यह भी कहा कि वन सुरक्षा सोसायटी की स्थापना वन संरक्षण के लिए एक सरकारी संकल्प के तहत की गई थी और यह स्वतंत्र रूप से संचालित होती थी।
इसने यह भी देखा कि सोसायटी के प्रतिनिधियों की गवाही ने तोमर के रोजगार के दावों का पूरी तरह से खंडन किया।
प्रतिकूल निष्कर्ष निकालने के मुद्दे पर अदालत ने स्पष्ट किया कि जबकि प्रतिवादियों ने कोई रिकॉर्ड प्रस्तुत नहीं किया था रोजगार साबित करने का प्रारंभिक भार याचिकाकर्ता पर था। इसलिए इसे पूरा किए बिना अदालत द्वारा कोई प्रतिकूल निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता था।
अंत में अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि रोजगार के सबूत के अभाव में मौखिक समाप्ति जैसी प्रक्रियात्मक चूक अप्रासंगिक थी। चूंकि तोमर नियोक्ता-कर्मचारी संबंध को साबित नहीं कर सका, इसलिए आईडी अधिनियम की धारा 25 (एफ) का उल्लंघन करने का कोई सवाल ही नहीं था। इस प्रकार, हाईकोर्ट ने लेबर कोर्ट के निर्णय को बरकरार रखा। इसने माना कि याचिकाकर्ता अपने रोजगार के दावों को साबित करने में विफल रहा। इसलिए याचिका खारिज कर दी गई।