एक गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को कानून ने क्या संरक्षण दिए हैं

Update: 2021-11-29 04:31 GMT

किसी भी अपराध में गिरफ्तारी करना उस अपराध से संबंधित अन्वेषण करने के लिए आवश्यक होता है। कुछ अपराध ऐसे हैं जिन्हें जमानती अपराध बनाया गया है उनमे जमानत उपलब्ध हो जाती है। कुछ अपराध ऐसे हैं जो अजमानतीय होते हैं और उनमे जमानत उपलब्ध नहीं होती है। ऐसे अपराधों में व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है। ऐसी गिरफ्तारी एक मजिस्ट्रेट प्राइवेट व्यक्ति और पुलिस द्वारा की जाती है।

आमतौर पर यह गिरफ्तारी पुलिस द्वारा ही की जाती है तथा ऐसी गिरफ्तारी में यातनाएं देखी जाना एक आम बात हो चली है। कानून में ऐसे अनेक प्रावधान किए गए हैं जो एक गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को यथेष्ट और युक्तियुक्त संरक्षण देते हैं। इस आलेख के अंतर्गत ऐसे ही संरक्षणों का उल्लेख किया जा रहा है जो एक गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को प्राप्त होते हैं।

यह विदित है कि संविधान का अनुच्छेद 21 प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार को प्रत्येक व्यक्ति का मूल अधिकार के रूप प्रदान करता है। अनुच्छेद 21 के अनुसार किसी व्यक्ति को उसके प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं। अतः अनुच्छेद 21 प्रत्येक व्यक्ति को मानव गरिमा के साथ जीने का अधिकार प्रदान करती है और यह अधिकार एक गिरफ्तार व्यक्ति को भी प्राप्त है।

इस प्रकार संविधान का अनुच्छेद 20 के अधीन भी एक अपराधी को दोषसिद्धि के विरुद्ध संरक्षण प्रदान किया गया है। अनुच्छेद 22 के अधीन भी एक गिरफ्तार व्यक्ति का क्या अधिकार होता है अर्थात् गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तार करने से पूर्व गिरफ्तारी का कारण बताये जाने चाहिए तथा उसको वकील से मिलने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, आदि के सम्बन्ध में उल्लेख किया गया है।

अपराधों के लिए दोषसिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण: -

(1) कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए तब तक सिद्धदोष नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि उसने ऐसा कोई कार्य करने के समय जो अपराध के रूप में आरोपित है, किसी प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है या उससे अधिक शास्ति का भागी नहीं होगा जो उस अपराध के किये जाने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन शास्ति का भागी नहीं होगा जो उस अपराध के किए जाने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन अधिरोपित की जा सकती है।

(2) किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और नहीं किया जाएगा।

(3) किसी अपराध के लिए अभियुक्त किसी व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध साथी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।

दोषसिद्धि के सम्बन्ध में अनुच्छेद 20 तीन प्रकार संरक्षण प्रदान करता है:-

कार्योत्तर विधियों से संरक्षण [अनुच्छेद 20 (1)]

दोहरे दण्ड से संरक्षण [अनुच्छेद 20 (2) ]

स्वयं साक्षी बनने के विरुद्ध संरक्षण [अनुच्छेद 20 (3)]

कार्योत्तर विधियों से संरक्षण अनुच्छेद 20 (1) निम्न दो प्रकार का संरक्षण प्रदान करता है:-

(1) किसी व्यक्ति को किसी कार्य के लिए उसी समय दण्डित किया जाएगा जबकि वह कार्य करने की तिथि पर अपराध रहा हो। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि "क" द्वारा कोई कार्य 10 दिसम्बर, सन् 1999 ई० को किया जाता है एवं वह कार्य 10 जनवरी, सन् 2000 ई० को किसी अधिनियमित विधि के अधीन अपराध घोषित किया जाता है तो "क" को किए गए कार्य के लिए दण्डित नहीं किया जाएगा, चूंकि उसके द्वारा किया गया कार्य, कार्य करने की तिथि पर दण्डनीय नहीं था एवं इसके पश्चात् अर्थात् 10 जनवरी, सन् 2000 ई० से दण्डनीय बनाया गया।"

(2) कोई भी व्यक्ति जो किसी अपराध को करने का दोषी है वह उस अपराध के सम्बन्ध में उस दण्ड से अधिक दण्ड का भागी नहीं होगा, जो दण्ड या शास्ति अपराध को किए जाने की तिथि पर विधिक रूप से उपवर्णित थी।

उदाहरणार्थ यदि "क" 10 जनवरी सन् 1999 ई० को चोरी का अपराध करता है जो उ तिथि को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 379 के अधीन तीन वर्ष के कारावास से दण्डित है, और किए गए आवश्यक विधिक संशोधन के अधीन 20 जनवरी, सन् 2000 ई० को उक्त अपराध को चार वर्ष के कारावास से दण्डित कर दिया जाता है तो वह दोषी ठहराये जाने पर केवल तीन वर्ष के ही कारावास से दण्डित किया जाएगा न कि उससे अधिक कारावास से, जिस दण्ड को पाश्चिक संशोधन द्वारा बढ़ा दिया गया है।"

दोहरे दण्ड से संरक्षण:-

अनुच्छेद 20 (2) के अनुसार "किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक दण्डित नहीं किया जाएगा।' से अधिक अभियोजित और इस तरह से खण्ड (2) पूर्णतया इस बात को स्पष्ट कर देता है कि कोई व्यक्ति जो किसी अपराध को करता है उसे एक हो अपराध के लिए एक से अधिक बार अभियोजित व दण्डित नहीं किया जाएगा।

कहने का अभिप्राय यह है कि इस खण्ड की सुरक्षा अभियुक्त को तभी प्राप्त होगी, जबकि उसे किसी आपराधिक अभियोग में अभियोजित करके दण्डित किया गया हो अर्थात् यदि वह किए गए अभियोजन के उपरान्त दण्डित न करके दोषमुक्त कर दिया जाता है तो उक्त दशा में उसे अनुच्छेद 20 (2) में प्रदत्त संवैधानिक संरक्षण नहीं प्राप्त होगा।

इस बात का समर्थन कुलवन्त सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य के बाद में किया गया।

इस वाद में माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि अभियुक्त द्वारा किए गए अपराध की दशा में उसके अभियोजन पर उसे दोषसिद्ध न करके उसे दोषमुक्त कर दिया गया हो तो, की गयी उक्त दोषमुक्ति पर अभियुक्त अनुच्छेद 20 (2) का संरक्षण नहीं प्राप्त कर सकेगा एवं पुनः उसे उसी अपराध के सम्बन्ध में अभियोजित किया जा सकेगा।

यह बात पूर्णतया अनुच्छेद 20 (2) में प्रयुक्त अभियोजित एवं दण्डित शब्दावली में स्पष्ट हो जाती है। इसका तात्पर्य है कि अनुच्छेद का संरक्षण अभियुक्त को केवल उसी दशा में प्राप्त होगा जबकि उसे एक बार किसी अपराध के लिये दण्डित किया गया हो।

स्वयं साक्षी बनने के विरुद्ध संरक्षण:-

अनुच्छेद 20 उपखण्ड (3) इस बात का अधिकार अभियुक्त के पक्ष में प्रत्याभूतित करता है कि उसे स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा. अर्थात् यह अधिकार इंग्लिश लॉ की उस सुभिन्न मान्यता पर आधारित है जो यह प्रतिपादित करती है कि अपराध का कोई भी अभियुक्त स्वयं को किसी भी अपराध में फंसाने के लिए बाध्य नहीं है।

अनुच्छेद 20 (3) में बाध्य शब्द का प्रयोग किया गया है, उक्त शब्द का तात्पर्य उत्पीड़न दबाव तथा बाध्यता से है इस तरह की बाध्यता शारीरिक एवं मानसिक दोनों ही हो सकती है।

किन्तु अभियुक्त को स्वयं अपने विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए विवश नहीं किया जा सकेगा, जैसा संवैधानिक संरक्षण निम्न स्थितियों में उपलब्ध नहीं होगा;-

(क) जहां पर विवेचना के अनुक्रम में अभियुक्त ने विवेचक के समक्ष कोई भी ऐसा वचन किया हो जिससे अपराध में प्रयुक्त किए गए किसी भौतिक वस्तु या भौतिक पदार्थ की बरामदगी का भान होता हो तो, उक्त दशा में वचन का वह भाग जिसके अग्रसरण में किसी तरह से अपराध में प्रयुक्त वस्तुओं या अपराध से अभिप्रेत चीजों की बरामदगी होती हो, अभियुक्त के विरुद्ध साक्ष्य में प्रयोज्य होगी एवं उक्त दशा में अभियुक्त को अनुच्छेद 20 (3) का संवैधानिक लाभ नहीं प्राप्त होगा है

(ख) ऐसा साक्ष्य जो कि किसी भी तरह के दबाव या बाध्यता के अन्तर्गत न दिया गया हो।

(ग) हस्तलिपि की नकल, पद चिन्ह, शिनाख्त या शरीर के किसी भी अंग का चिकित्सीय परीक्षण।

प्रस्तुत बाद में अभियुक्त द्वारा किया गया कथन टेप कर लिया गया। हालांकि कि उसे इस बात की जानकारी नहीं थी। लेकिन अभियुक्त द्वारा किया गया कथन बिना किसी दबाव में किया गया था। न्यायालय द्वारा मामले के सम्बन्ध में यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियुक्त द्वारा किया गया ऐसा कथन साक्ष्य में ग्राह्य था।

कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण:-

(1) किसी व्यक्ति को, जो गिरफ्तार किया गया है, ऐसी गिरफ्तारी के कारणों से यथाशीघ्र अवगत कराए बिना अभिरक्षा में निरुद्ध नहीं रखा जाएगा या अपनी रुचि के विधि व्यवसायों से परामर्श करने और प्रतिरक्षा कराने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जाएगा।

(2) प्रत्येक व्यक्ति को, जो गिरफ्तार किया गया है और अभिरक्षा में निरुद्ध रखा गया है, गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट के न्यायालय तक यात्रा के लिए आवश्यक समय को छोड़कर किसी ऐसी गिरफ्तारी से चौबीस घण्टे की अवधि में निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाएगा और ऐसे किसी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के प्राधिकार के बिना उक्त अवधि से अधिक अवधि के लिए अभिरक्षा में निरुद्ध नहीं रखा जाएगा।

(3) खण्ड (1), खण्ड (2) की कोई बात किसी ऐसे व्यक्ति को लागू नहीं होगी

(क) तत्समय शत्रु अन्यदेशीय है, या

(ख) निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन गिरफ्तार या निरुद्ध किया गया है।

(4) निवारक निरोध का उपबंध करने वाली कोई विधि किसी व्यक्ति के तीन मास से अधिक अवधि के लिए तब तक निरुद्ध किया जाना प्राधिकृत नहीं करेगी जब तक कि (क) ऐसे व्यक्तियों से, जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हैं या न्यायाधीश रहे हैं और न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए अर्हत हैं, मिलकर बने सलाहकार बोर्ड ने तीन मास के उक्त अवधि की समाप्ति से पहले यह प्रतिवेदन नहीं दिया है कि उसकी राय में ऐसे निरोध के लिए पर्याप्त कारण हैं : परन्तु इस उपखण्ड की कोई बात किसी व्यक्ति का उस अधिकतम अवधि से अधिक अवधि के लिए निरुद्ध किया जाना प्राधिकृत नहीं करेगी जो खण्ड (7) के उपखण्ड (ख) के अधीन संसद द्वारा बनाई गई विधि द्वारा विहित की गई है। या

(ख) ऐसे व्यक्ति को खण्ड (7) के उपखण्ड (क) और उपखण्ड (ख) के अधीन संसद द्वारा बनाई गई विधि के उपबंधों के अनुसार निरुद्ध नहीं किया जाता है।

(5) निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन किए गए आदेश अनुसरण में जब किसी व्यक्ति को निरुद्ध किया जाता है तब आदेश करने वाला प्राधिकारी यथाशक्य शीघ्र उस व्यक्ति को यह संसूचित करेगा कि वह आदेश किन आधारों पर किया गया है और उस आदेश के विरुद्ध अभ्यावेदन करने के लिए उसे शीघ्रताशीघ्र अवसर देगा।

(6) खण्ड (5) की किसी बात से ऐसा आदेश, जो उस खण्ड वाले प्राधिकारी के लिए ऐसे तथ्यों को प्रकट करना आवश्यक नहीं होगा जिन्हें प्रकट करना ऐसा प्राधिकारी लोकहित के विरुद्ध समझता है।

(7) संसद विधि द्वारा विहत कर सकेगी कि

(क) किन परिस्थितियों के अधीन और किस वर्ग या वर्गों के मामलों में किसी व्यक्ति को निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन तीन मास के अधिक अवधि के लिए खण्ड (4) के उपखण्ड (क) के उपखण्डों के अनुसार सलाहकार बोर्ड की राय प्राप्त किए बिना निरुद्ध किया जा सकेगा; (ख) किसी वर्ग या वर्गों के मामले में कितनी अधिकतम अवधि के लिए किसी व्यक्ति को निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन निरुद्ध किया जा सकेगा; और

(ग) खण्ड (4) के उपखण्ड (क) के अधीन की जाने वाली जांच में सलाहकार बोर्ड द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया क्या होगी।

निरोध का आदेश अंग्रेजी भाषा में दिया जाय:-

अनुच्छेद 22 (3) (ख) के अधीन यह स्पष्ट है कि जब कोई व्यक्ति निवारक निरोध अधिनियम के अधीन बन्दी बनाया जाता है। और निरोध में रखा जाता है उसे अपनी रुचि के विधि व्यवसायी से परामर्श करने तथा प्रतिरक्षा करने के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है।

निवारक निरोध के मामले में यह विचारण के बिना निरुद्ध किया जाता है और इस कारण से स्वतः संविधान में पर्याप्त सुरक्षा के उपबन्ध किए गए हैं। जब किसी व्यक्ति पर, जो अंग्रेजी भाषा में लिखित आधारों की तामील की जाती है, तो यह प्रत्याशा नहीं की जा सकती कि वह उन आधारों को समझ सकेगा जिससे कि वह उनके विरुद्ध प्रभावी अभ्यावेदन कर सके। आधारों की संसूचना होनी चाहिए।

याचिका में उल्लिखित किए गए अभिकथनों का प्रतिवाद न होने से न्यायालय को यह समाधान हो गया है कि इस मामले में याची उस भाषा को न जानने से, जिसमें आधार संसूचित किए गए थे, प्रभावी अभ्यावेदन कर सकने के लिए वह आधारों का अर्थ और उनको विषय वस्तु समुचित रीति में जानने में असमर्थ था। इसलिए, इस मामले में संविधान के उपबन्धों का स्पष्ट रूप से ही अतिक्रमण हुआ है, क्योंकि इस मामले में संविधान के अनुच्छेद 22 (5) की उपेक्षा की गई है।

हरिकिशन बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय में इसी प्रकार का प्रश्न विचार के लिए उद्भूत हुआ था। इस मामले में निरुद्ध किया गया व्यक्ति उस आदेश के अनुसरण में निरुद्ध किया गया था, जिसकी उस पर 10 अप्रैल, 1968 को तामील की गई थी और उसी दिन आधारों को भी तामील की गई थी। उस पर अंग्रेजी लिखित आधारों को भी तामीली की गई थी और उससे जिला मजिस्ट्रेट को इस आशय का पत्र लिखा था कि इस भाषा को नहीं समझता हूं और आधारों के हिन्दी पाठ के लिए उसने निवेदन किया।

उसने यह प्रार्थना 19 अप्रैल, 1961 को की थी और उसे जिला मजिस्ट्रेट ने प्रार्थना स्वीकार करने में असमर्थ है। निरुद्ध व्यक्ति इस मामले को उच्च न्यायालय में से गया जहां उसे सफलता नहीं मिली, किन्तु उच्चतम न्यायालय ने उसकी दलील को मान लिया।

उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने यह अभिनिधारित किया कि क्योंकि निरुद्ध व्यक्ति को अंग्रेजी भाषा की पर्याप्त रूप से जानकारी नहीं है इसलिए उस भाषा में आधारों को संसूचना देना संविधान के अनुच्छेद 22 (5) के अर्थ में पर्याप्त संसूचना देना नहीं समझा जाएगा।

राज्य की ओर से उपसंजात होने वाले अधिवक्ता ने यह चाहा कि उसके उस कथन को कार कर लिया जाये कि विरुद्ध व्यक्ति ने स्वतः उन आधारों के विरुद्ध अभ्यावेदन किया था। तथापि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रति-शपथपत्र न होने के कारण विभिन्न वर्ग को ओर से किए गए निवेदन को स्वीकार नहीं कर सकते. विशिष्ट रूप से इसलिए कि संविधानिक सुरक्षा को अवहेलना की गई है, जैसा कि एकमात्र शपथपत्र से प्रकट होता है।

यदि राज्य यह चाहता था कि न्यायालय उस प्रकृति के निवेदन पर विचार करे, तो राज्य के अधिवक्ता का यह कर्तव्य था कि वह शपथ-पत्र द्वारा समर्थित लिखित अभ्यावेदन पेश करता है और ऐसे अन्य निवेदन भी करता है जिनके करने का विधि के अधीन उसे हक है।

उस बारे में शपथ पत्रके न होने की दशा में न्यायालय नागरिक को स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाले जैसे म्भीर मामले में मौखिक निवेदन को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है इसलिए न्यायालय का यह समाधान हो गया है कि इस मामले में निरुद्ध व्यक्ति को कोई प्रभावी संसूचना नहीं दी गयी थी और इसलिए वह मामले में समुचित और प्रभावी अभ्यावेदन नहीं कर सकता।

जैसा कि ऊपर निष्कर्ष निकाला गया है, संविधान के अनुच्छेद 22 (5) का स्पष्ट रूप से अतिक्रमण हुआ है।

निरुद्ध व्यक्ति को तात्विक दस्तावेज की प्रति उपलब्ध करायी जाय:-

प्रस्तुत याचिका, स्वयं निरुद्ध व्यक्ति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन, बन्दी प्रत्यक्षीकरण को रिट जारी करने के लिए दाखिल की गई है।

हालांकि याची की ओर से हाजिर होने वाले अधिवक्ता ने निरोध आदेश को विभिन्न आधारों पर चुनौती दी है, किन्तु उन्होंने अपनी दलीलों के आधार (1) पर हो सोमित किया है, जिसमें निम्नलिखित कथन किया गया है:-

"अन्वेषण के दौरान पुलिस निरीक्षक ने तारीख 21.10 1991 को चिकित्सा अधिकारी डा० प्रकाशम से पूछताछ की थी। डाक्टर ने यह कथन किया था कि कोलोरल हाइड्रेट को 3 से 5 ग्राम अरक के साथ मिश्रित करने के बाद यदि उसका उपयोग किया जाए तो उससे मृत्यु तक हो सकती है। डाक्टर ने यह और कथन किया है कि यदि किसी व्यक्ति द्वारा अरक कोलोरल हाइड्रेट के मिश्रण का उपयोग किया जाता है तो उससे उसका हृदय, रक्त वाहिकाएं, यकृत, गुर्दे और अन्य महत्वपूर्ण अंग प्रभावित हो सकते हैं। डाक्टर ने यह और भी कथन किया है कि सेना द्वारा बेचे गए अरक को तारीख 13.10.1991 और 14.10.1991 को अनालमाई और सुन्दरम द्वारा उपभोग करने के पश्चात् उन्हें कोलोरल हाइड्रेट के जहर के कारण उनमें अभिकथित चिन्ह और लक्षण डाक्टर ने पाए थे।"

अधिवक्ता ने यह दलील दी है कि डाक्टरी राय पर निरोध प्राधिकारी द्वारा अपना व्यक्तिनिष्ठ समाधान करने के लिए डाक्टर की रिपोर्ट का अधिक अवलंब लिया गया था. किन्तु इस महत्वपूर्ण दस्तावेज की प्रति निरुद्ध व्यक्ति को नहीं दी गई थी। जिसके कारण निरोध आदेश दूषित हो गया है।

गिरफ्तारी से चौबीस घण्टे के भीतर किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत होने का अभियुक्त का अधिकार:-

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 57 के अनुसार कोई पुलिस अधिकारी वारण्ट के बिना गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को उससे अधिक अवधि के लिए अभिरक्षा में निरुद्ध नहीं रखेगा जो उस मामले की सब परिस्थितियों में उचित है तथा ऐसी अवधि, मजिस्ट्रेट की धारा 167 के अधीन विशेष आदेश के अभाव में गिरफ्तारी के स्थान मजिस्ट्रेट के न्यायालय तक यात्रा के लिए आवश्यक समय को छोड़कर, चौबीस घण्टे से अधिक नहीं होगी।

गिरफ्तारी के उपरांत गिरफ्तार किए गए अभियुक्त व्यक्ति को गिरफ्तारी की तिथि से 24 घण्टे की अवधि के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करने का मूल उद्देश्य अभियुक्त की न्यायिक रिमांड पर लेना है। इस तरह रिमांड की स्थिति के प्रश्न पर दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 57 को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 के साथ पढ़ा जाएगा।

इस तरह से गिरफ्तार किया गया व्यक्ति यदि 24 घण्टे की अवधि के भीतर जिसे निकटवर्ती मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया गया वह अभियुक्त को 15 दिनों को न्यायिक अभिरक्षा स्वीकार करने हेतु रिमांड पर जेल भेज सकेगा। किन्तु इस तरह के रिमांड की स्थिति अपराध की विहित स्थिति के अनुसार कुल मिलाकर 60 दिन व 90 दिनों की अवधि से अधिक की नहीं होगी। किन्तु मूल गिरफ्तारी पर अभियुक्त को किसी भी निकटवर्ती मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा, भले ही उस मजिस्ट्रेट को मामले के विचारण का क्षेत्राधिकार हो अथवा न हो।

एम० एच० हासकोट बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के वाद में उच्चतम न्यायालय ने विचार व्यक्त किया कि उचित प्रक्रिया के लिये नैसर्गिक न्याय एक महत्वपूर्ण तथ्य है। न्यायालय ने अपील के अधिकार पर विचार व्यक्त करते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि दो अपेक्षायें नं० (1) अपील फाइल करने के लिए निर्णय की प्रति कारावासित व्यक्ति को युक्तियुक्त समय के भीतर दी जाये, तथा (2) जहां न्याय के उद्देश्य के लिये आवश्यक हो कारावासित व्यक्ति के अंकिचन होने की दशा में निःशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध कराया जाता का पूरा किया जाना आवश्यक है। न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि वास्तव में ये दोनों अपेक्षायें अनुच्छेद 21 के अधीन राज्य का दायित्व है।

विधिक सहायता मात्र कागज पर एक प्रतिज्ञा है परन्तु वह अपने प्रयोजन के लिये उचित होगी। खत्री बनाम बिहार राज्यों के बाद में न्यायालय ने अभिमत व्यक्त किया कि मजिस्ट्रेट अथवा सत्र न्यायाधीश के समक्ष कोई अभियुक्त उपस्थिति होता है अपने दायित्व के अधीन उसे सूचित करें कि यदि वह अपनी गरीबी और अकिचनता के कारण विधिक सहायता का हकदार है।

न्यायालय को यह दुख है कि मामले जहां कि अन्धे कारावासित थे वहां मजिस्ट्रेट अपने कर्तव्य पालन में असफल रहा और यह सम्प्रेक्षित किया कि अन्धे कारावासित व्यक्ति द्वारा किसी विधिक सहायता की मांग नहीं की गयी और इसलिये उसे उपलब्ध नहीं करायी गयी।

दैहिक स्वतंत्रता तथा अनुच्छेद 32 एवं अनुच्छेद 226:-

गिरफ्तारी से व्यक्ति की दैहिक स्वतंत्रता प्रभावित होती है, चूंकि गिरफ्तारकर्ता प्राधिकारी भौतिक रीति से इस तरह की गिरफ्तारी से आशायित व्यक्ति को स्पर्श करता है। दूसरे शब्दों में व्यक्ति की गिरफ्तारी पर उसका निरोध स्वाभाविक या सहज हो जाता है। अतः गिरफ्तारी के कारण भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा प्रदत्त दैहिक स्वतंत्रता का अतिलंघन न हो इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि गिरफ्तारी विधि सम्मत रीति से, संवैधानिक रीति से हो।

यदि गिरफ्तारी प्रक्रियात्मक या संवैधानिक संरक्षण के विपरीत किया गया है तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपनी गिरफ्तारी की चुनौती भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 या अनुच्छेद 226 के अधीन यथास्थित उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में दे सकेगा और इस तरह की चुनौती पर यदि उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय यह पाता है कि गिरफ्तारी अवैध रीति से की गई है तो वह बंदी प्रत्यक्षीकरण लेख जारी कर सकेगा। विशिष्टतया जब व्यक्ति की दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 के अधीन गिरफ्तारी किया जाए तो पुलिस का यह बाध्यकारी कर्तव्य होगा कि गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को जमानत सम्बन्धी अधिकार से सूचित करे।

गिरफ्तार व्यक्ति को विधिक संरक्षण देने पर उच्चतम न्यायालय का दिशा निर्देश:-

के० एम० कुमारी बनाम स्टेट, 2002 क्रिमिनल लॉ जनरल के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया कि पुलिस अभिरक्षा में मृत्यु होना विधि शासन द्वारा शासित सभ्य समाज में सबसे खराब अपराध है और निम्न सिद्धान प्रतिपादित किया-

(1) वह पुलिस अधिकारी जो गिरफ्तारी कर रहा है उसका नाम, पद आदि स्पष्ट होना चाहिए।

(2) गिरफ्तार व्यक्ति से पूछताछ करने वाले पुलिस अधिकारी विवरण रजिस्टर में दर्ज होना चाहिए।

(3) गिरफ्तारी दो साक्षियों द्वारा प्रमाणित होगी जो गिरफ्तार व्यक्ति के परिवार या मोहल्ले के प्रतिष्ठित व्यक्ति होंगे।

(4) गिरफ्तार या निरुद्ध व्यक्ति द्वारा इच्छित व्यक्ति को गिरफ्तारी की सूचना देनी चाहिए।

(6) गिरफ्तारी का समय, स्थान अभिरक्षा आदि की सूचना पुलिस द्वारा गिरफ्तार व्यक्ति के सम्बन्धी को देनी होगी।

(7) गिरफ्तारी की सूचना किस व्यक्ति को दी गई है, इसकी जानकारी गिरफ्तार व्यक्ति को यथाशीघ्र दी जानी चाहिए।

(8) गिरफ्तारी की सूचना डायरी में दर्ज होगी तथा उसमें उस व्यक्ति के नाम का भी उल्लेख होगा जिसे सूचना दी गयी है तथा उस पुलिस अधिकारी के नाम और विवरण का भी उल्लेख करना होगा जिसकी अभिरक्षा में गिरफ्तार किया गया व्यक्ति है।

(9) गिरफ्तार व्यक्ति यदि अपने शरीर की जांच की इच्छा जाहिर करता है तो उसके शरीर की जाँच होनी चाहिए तथा उसके शरीर पर जो भी चोट के निशान आदि हो। उसको डायरी में दर्ज होनी चाहिए।

(10) गिरफ्तार व्यक्ति को 48 घण्टे के भीतर प्रशिक्षित डॉक्टरों द्वारा राज्य या केन्द्र के स्वास्थ्य निर्देशक द्वारा तैयार किये गये डॉक्टरों के पैनल में से किसी डॉक्टर द्वारा गिरफ्तार व्यक्ति की शारीरिक परीक्षा की जायेगी।

(11) यह डॉक्टरों का पैनल सभी तहसीलों एवं जिलों में तैयार किया जायेगा।

(12) शारीरिक परीक्षा से सम्बन्धित सभी दस्तावेजों का एक मेमो बनाया जायेगा और उसको एक प्रतिलिपि सम्बन्धित मजिस्ट्रेट को भेजी जायेगी।

(13) गिरफ्तार व्यक्ति को उससे पूछताछ के दौरान उसको अपने अधिवक्ता से मिलने का अवसर दिया जायेगा।

(14) सभी जिलों एवं राज्य मुख्यालयों पर एक पुलिस नियंत्रण कक्ष बनाया जायेगा जहाँ गिरफ्तारी तथा उसकी अभिरक्षा की सूचना गिरफ्तार करने वाले पुलिस अधिकारी को 12 घण्टे के भीतर देना होगा।

(15) सभी जिलों में स्थापित नियंत्रण कक्ष का स्पष्ट उल्लेख किया जाना आवश्यक है।

(16) उक्त मार्गदर्शक सिद्धान्तों का अनुपालन न करने पर सम्बन्धित पुलिस अधिकारों या विभागीय अधिकारी विभागीय कार्यवाही के अतिरिक्त न्यायालय अवमान के लिए भी उत्तरदायी होंगे।

गिरफ्तार व्यक्ति के साथ अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध संरक्षण:-

किसी भी निवारक निरोध अधिनियम के अधीन निरुद्ध कैदी को अपने वकील से मिलने का अधिकार है। वह अपने परिवार के सदस्यों से बातचीत करने का हकदार है और उसको यह अनुमति पुलिस अभिरक्षा या जेल अभिरक्षा दोनों के दौरान प्राप्त हैं। यदि इसका उल्लंघन किया जाता है तो यह अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 22 का उल्लंघन होगा और उसके लिए राज्य उत्तरदायी होगा

पुलिस अभिरक्षा में मृत्यु के विरुद्ध संरक्षण:-

गिरफ्तार व्यक्ति एवं जेल में निरुद्ध व्यक्तियों की रक्षा करना राज्य का परमकर्त्तव्य है और यदि पुलिस अभिरक्षा या जेल में राज्य के कर्मचारियों द्वारा कैदियों के मूल अधिकार का उल्लंघन किया जाता है तो उसके लिए राज्य प्रतिकर का उत्तरदायी होगा और गिरफ्तार व्यक्ति के परिवार वालों को प्रतिकर को राशि दी जाएगी।

हथकड़ी लगाने के विरुद्ध संरक्षण:-

सामान्यतया गिरफ्तार व्यक्ति को हथकड़ी लगाया जाता है जो अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है और यह असंवैधानिक है। वह प्रावधान जो गिरफ्तार व्यक्ति को हथकड़ी लगाने का उपबंध करता है वह असंवैधानिक है और हथकड़ी लगाने का प्रयोग तब किया जाना चाहिए जब गिरफ्तार व्यक्ति को पुलिस अभिरक्षा से भागने का स्पष्ट और विद्यमान खतरा हो और यदि हथकड़ी लगाया जाता है तो इसका स्पष्ट कारण अभिलिखित करना होगा

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