अपराधों के अपवाद किसे कहा गया है: भाग 1

Update: 2022-10-15 09:29 GMT

भारतीय दंड संहिता,1860 अपराधों का उल्लेख करने वाली सर्वाधिक महत्वपूर्ण संहिता है। यह ऐसी संहिता है जो लगभग लगभग भारतीय समाज में घटने वाले ऐसे सभी कार्य और लोप को अपराध बनाती है जो दूसरों के अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं और उन्हें क्षति पहुंचाते है। यह अपराधों का वर्गीकरण भी करती है। इस ही संहिता में एक अध्ययन अपराधों के अपवाद से संबंधित है। जहां यह प्रावधान किए गए हैं कि कौनसे कार्य आपराधिक होते हुए भी अपवादों के दायरे में अपराध नहीं होंगे। इस आलेख में ऐसे ही अपवादों का उल्लेख किया जा रहा है। सरलता की दृष्टि से इस विषय को दो भागों में बांट कर दो आलेखों में प्रस्तुत किया जा रहा है।

सामान्यतः अधिकांश अपकार्यों को अपराध मान लिया जाता है और अभियुक्त अभियोजित एवं दण्डित हो जाते हैं। लेकिन वस्तुतः वे अपराध होते नहीं है। भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 76 से 95 तक में 'साधारण अपवाद' शीर्षक के अन्तर्गत ऐसे ही अपकार्यों का उल्लेख किया गया है जो विधि की दृष्टि में दण्डनीय अपराध नहीं है। इन सभी अपवादों का बिंदुवार उल्लेख यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।

1 तथ्य की भूल

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 76 में यह कहा गया है कि- कोई बात अपराध नहीं है जो किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाए जो उसे करने के लिए विधि द्वारा आबद्ध हो या जो तथ्य की भूल के कारण, न कि विधि की भूल के कारण सद्भावपूर्वक विश्वास करता हो कि वह उसे करने के लिए विधि द्वारा आबद्ध है।

इस प्रकार धारा 76 में 'तथ्य' की भूल को क्षम्य माना गया है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा कोई कार्य करता है-

(i) जिसे करने के लिए वह विधि द्वारा आबद्ध है;

(ii) जो सद्भावपूर्वक विश्वास के अधीन है तथा

(iii) तथ्य की भूल के कारण किया जाता है;

तो वह अपराध नहीं है।

उदाहरणार्थ – न्यायालय के आदेश के अधीन 'क' नामक व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाना है। लेकिन सम्यक् जाँच के पश्चात् एवं सद्भावपूर्व 'ग' को 'क' मानकर गिरफ्तार कर लिया जाता है। जहाँ 'ग' को गिरफ्तार कर लिया जाना अपराध नहीं है, क्योंकि ऐसा सम्यक जाँच के पश्चात् एवं सद्भावपूर्वक तथ्य को भूल के कारण हुआ है।

इससे यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि 'विधि की भूल' क्षम्य नहीं है।

सूत्र यह है कि

(i) तथ्य की भूल क्षम्य है

(ii) विधि की भूल क्षम्य नहीं है

कोई भी व्यक्ति तथ्य को भूल का सहारा लेकर तो आपराधिक दायित्व से बच सकता है, लेकिन विधि की भूल का सहारा लेकर नहीं।

इस सम्बन्ध में 'गोपालिया कालिया" का एक अच्छा प्रकरण है। इसमें एक पुलिस अधिकारी एक व्यक्ति को वारन्ट के अधीन गिरफ्तार करने के लिए बम्बई जाता है। सम्यक् जाँच के पश्चात् एवं सद्भावपूर्वक विश्वास करते हुए कि गिरफ्तार किया जाने वाला व्यक्ति यही है जिसे गिरफ्तार किया जाना है, यह परिवादी को गिरफ्तार कर लेता है। परिवादी उस पुलिस अधिकारी के विरुद्ध सदोष परिरोध की कार्यवाही करता है। पुलिस अधिकारी को धारा 76 के अन्तर्गत संरक्षित माना गया, क्योंकि यह तथ्य की भूल के अधीन किया गया उसका सद्भावी कार्य था।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भूल स्वयं क्षम्य नहीं है किन्तु अभियुक्त का मस्तिक दोषी न होने पर तथ्य की भूल क्षम्य हो सकती है। यदि अभियुक्त का कार्य स्वयं में अपराध है तो तथ्य की भूल भी क्षम्य नहीं होगी।

संहिता की धारा 79 में भी तथ्य को भूल के बारे में प्रावधान किया गया है। इसमें यह कहा गया है कि-

"कोई बात अपराध नहीं है जो ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाये जो उसे करने के लिए विधि द्वारा न्यायामुक्त हो या तथ्य की भूल के कारण न कि विधि की भूल के कारण सद्भावपूर्वक विश्वास करता हो कि वह उसे करने के लिए विधि द्वारा न्यायनुमत है।"

इस प्रकार धारा 76 एवं धारा 79 दोनों में तथ्य की भूल को क्षम्य माना गया है।

'वरयामसिंह बनाम स्टेट का इस सम्बन्ध में एक उद्धरणीय मामला है। इसमें अभियुक्त जब अपनी पत्नी के साथ मरघट पर कुछ धार्मिक कार्य कर रहा था तो उसने वहाँ मृतक को देखा और उसे प्रेतात्मा समझकर उसकी हत्या कर दी। अभियुक्त को धारा 79 का लाभ दिया गया क्योंकि उसने आक्रमण के समय यह विश्वास कर लिया था कि उसके आक्रमण का ध्येय कोई प्रेतात्मा थी, न कि कोई जीवित प्राणी।

धारा 79 का लाभ प्राप्त करने के लिए जो कुछ आवश्यक है वह यह है कि कार्य करते समय अभियुक्त के मस्तिष्क में यह बात विद्यमान रहनी चाहिये कि वह जो कुछ कर रहा है वह विधि द्वारा 'न्यायानुमत' है।

2 न्यायिक कार्य

संहिता की धारा 77 एवं 78 के अन्तर्गत यह प्रावधान किया गया है कि "कोई बात अपराध नहीं है जो न्यायिक कार्य करते हुए न्यायाधीश द्वारा ऐसी किसी शक्ति के प्रयोग में की जाती है जो या जिसके बारे में उसे सद्भावपूर्वक विश्वास है कि वह उसे विधि द्वारा दी गई है।

दंड संहिता की धारा 78 के अनुसार कोई बात जो न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में की जाए या उसके द्वारा अधिदिष्ट हो, यदि वह उस निर्णय या आदेश के प्रवृत्त रहते की जाए, अपराध नहीं है, चाहे उस न्यायालय को ऐसा निर्णय या आदेश देने की अधिकारिता न रही हो, परन्तु यह तब जबकि वह कार्य करने वाला व्यक्ति सद्भावपूर्वक विश्वास करता हो कि उस न्यायालय की वैसी अधिकारिता थी।

इस प्रकार धारा 77 के अन्तर्गत एक न्यायाधीश को अपने न्यायिक कार्यों का निर्वहन करते समय किये गये कार्यों के दायित्व से मुक्त रखा गया है। उदाहरणार्थ - यदि न्यायाधीश द्वारा अपराधी को मृत्यु दण्ड दिया जाता है तो उसे मानव वध के अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकेगा। उसका यह कार्य धारा 77 के अन्तर्गत संरक्षित है।

धारा 78 न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में सद्भावपूर्वक किये गये कार्यों को आपराधिक दायित्व से मुक्ति प्रदान करती है।

उदाहरणार्थ- न्यायालय द्वारा 'क' को मृत्यु दण्ड दिया जाता है। मृत्यु दण्ड के निष्पादन में 'ख' द्वारा 'क' को फाँसी पर लटकाया जाता है। 'ख' का यह कार्य धारा 78 के अन्तर्गत संरक्षित है।

3 दुर्घटना

दुर्घटना को आपराधिक कृत्य के विरुद्ध एक अच्छा बचाव माना गया है। संहिता की धारा 80 में यह कहा गया है कि

कोई बात अपराध नहीं है जो दुर्घटना या दुर्भाग्य से और किसी आपराधिक आशय या ज्ञान के बिना विधिपूर्ण प्रकार से विधिपूर्ण साधनों द्वारा उचित सतर्कता और सावधानी के साथ विधिपूर्ण कार्य करने में हो जाती है। इस प्रकार धारा 80 के अंतर्गत कोई बात अपराध नहीं है, जो,

(क) दुर्घटनावश कारित हुई है

(ख) विधिपूर्ण कार्य करने में

(i) विधिपूर्ण रीति से;

(ii) विधिपूर्ण साधनों द्वारा

(iii) उचित सावधानी एवं सतर्कता से की गई है; तथा

(ग) आपराधिक आशय या ज्ञान के बिना की गई है।

उदाहरणार्थ- 'क' कुल्हाड़ी से कार्य कर रहा है। कुल्हाड़ी का फल उसमें से निकलकर उछल जाता है और निकट खड़ा हुआ व्यक्ति उससे आहत हो जाता है या मर जाता है। यदि 'क' की ओर से उचित सावधानी का कोई अभाव नहीं था तो उसका कार्य धारा 80 के अन्तर्गत क्षम्य है अर्थात् अपराध नहीं है।

धारा 80 के प्रयोजनार्थ 'सावधानी' ऐसी होनी अपेक्षित है जिसकी ऐसी परिस्थिति में एक प्रज्ञावान व्यक्ति से आशा की जा सकती है।

दुर्घटना क्या है

दुर्घटना का शाब्दिक अर्थ है- किसी बुरी घटना का हो जाना। इसका तात्पर्य ऐसी घटना से है जो किसी व्यक्ति की दूरदर्शिता और प्रत्याशा के विपरीत घटित हो जाती है। इसे संयोग मात्र नहीं कहा सकता।

4 आवश्यकता एवं विवशता

अनेक बार किसी एक अपहानि के निवारण के लिए दूसरी अपहानि कारित किया जाना आवश्यक हो जाता है। उसके बिना अपहानि को रोका नहीं जा सकता। ऐसी अपहानि को आपराधिक दायित्व से मुक्त रखा गया है। संहिता की धारा 81 में इसके बारे में प्रावधान किया गया है।

धारा 81 में प्रतिपादित सिद्धान्त को

(i) आवश्यकता; अथवा

(i) विवशता अथवा

(iii) आत्मरक्षा का सिद्धान्त भी कहा जाता है।

धारा 81 का मूल पाठ इस प्रकार है-

कोई बात केवल इस कारण अपराध नहीं है कि वह यह जानते हुए की गई है कि उससे अपहानि कारित होना सम्भाव्य है, यदि वह अपहानि कारित करने के लिए आपराधिक आशय के बिना और व्यक्ति या अन्य सम्पत्ति को अन्य अपहानि का निवारण या परिवर्तन करने के प्रयोजन से सद्भावपूर्वक की गई हो।

वस्तुत: धारा 81 गुरुत्तर (बड़ी) अपहानि के निवारण के लिए लघुत्तर (छोटी) अपहानि को कारित करने की अनुमति प्रदान करती है।

उदाहरणार्थ- 'क' एक बड़े अग्निकाण्ड के समय आग को फैलने से रोकने के लिए गृहों को गिरा देता है। वह इस कार्य को मानव जीवन या सम्पत्ति को बचाने के आशय से सद्भावपूर्वक करता है। यहाँ यह पाया गया कि निवारण की जाने वाली अपहानि इस प्रकृति की और इतनी आसन्न थी कि 'क' का कार्य माफी योग्य है तो 'क' उस अपराध का दोषी नहीं है।

धारा 81 की प्रयोज्यता के लिए निम्नांकित बातें आवश्यक हैं-

(i) कृत्य का बिना किसी आपराधिक आशय के किया जाना

(ii) सद्भावपूर्वक किया जाना तथा

(iii) किसी बड़ी अपहानि के निवारण के लिए किया जाना।

एक ब्रिटिश वाद कोप बनाम शार्प के मामले में आग को फैलने से रोकने हेतु जहाज जलाने को न्यायोचित माना गया है।

5 शिशु के कार्य

इसे दंड संहिता का पांचवा अपवाद प्रावधानित किया गया है। शैशव अवस्था अपरिपक्व होती है। इस अवस्था में व्यक्ति की सोच एवं समझ परिपक्व नहीं होती। उसमें कार्य की प्रकृति एवं उसके परिणामों को समझने की सामर्थ्य नहीं होती। यही कारण है कि विधि में ऐसे शिशु के कार्यों को आपराधिक दायित्व से मुक्त रखा गया है।

शिशु के कार्यों को दो वर्गों में रखा गया है-

(i) सात वर्ष से कम आयु के शिशु का कार्य एवं

(ii) सात से बारह वर्ष के बीच की आयु के शिशु का कार्य

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 82 एवं 83 में इस सम्बन्ध में प्रावधान किया गया है। सात वर्ष से कम आयु के शिशु के कार्य-

संहिता की धारा 82 में यह कहा गया है कि- कोई भी बात अपराध नहीं है जो सात वर्ष से कम आयु के शिशु द्वारा की जाती है।

इस प्रकार धारा 82 में सात वर्ष से कम आयु के शिशु के कार्यों को पूर्णरूप से आपराधिक दायित्व से मुक्त रखा गया है।

उदाहरणार्थ- सात वर्ष से कम आयु का एक शिशु चरवाहा एक स्वर्ण तरतरी प्राप्त करता है जिसे चोरी की होना बताया गया। न्यायालय ने उसे दोषी नहीं माना।

एक प्रकरण में सात वर्ष से कम आयु के शिशु को रेल पर पथराव करने के आरोप में किया गया। अपीलीय न्यायालय द्वारा धारा 82 का लाभ दिया गया है।

सात से बारह वर्ष के बीच की आयु के शिशु के कार्य

संहिता की धारा 83 में यह कहा गया है कि-

कोई बात अपराध नहीं है जो सात वर्ष से ऊपर और बारह वर्ष से कम आयु के ऐसे शिशु द्वारा की जाती है जिसकी समझ इतनी परिपक्व नहीं है कि वह उस अवसर पर अपने आचरण की प्रकृति और परिणामों का निर्णय कर सके। इस प्रकार धारा 83 के अन्तर्गत 7 से 12 वर्ष के बीच की आयु के शिशुओं के कार्यों के आपराधिक दायित्व को उनकी समझ की परिपक्वता पर निर्भर रखा गया है। यदि ऐसे शिशु की

(i) समझ परिपक्व है, तथा

(ii) यह कार्य की प्रकृति एवं परिणामों के बारे में निर्णय लेने की क्षमता रखता है;

तो उसके कृत्य को आपराधिक दायित्व के अधीन समझा जायेगा, अन्यथा नहीं। 'हीरालाल बनाम स्टेट के मामले में एक बारह वर्षीय बालक ने अपने भाईयों के साथ मिलकर एक व्यक्ति को तलवार से आहत कर दिया था। न्यायालय ने ऐसे बालक के प्रति सजा के प्रश्न पर सहानुभूति प्रदर्शित करने की अनुशंसा की।

कृष्णा के मामले में एक नौ वर्षीय बालक ने एक दूसरे लड़के से नेकलस लिया जिसका मूल्य दो रूपये आठ आने था। उसने तत्काल उस नेकलेस को एक अन्य व्यक्ति के हाथ पाँच आने में बेच दिया। बालक को धारा 83 का लाभ दिया गया।

मारीमुथु के मामले में एक दस वर्षीय बालिका ने, जो परिवादी की सेविका थी, आठ आने मूल्य का एक बटन उठाया और अपनी माता को दे दिया। अपीलीय न्यायालय द्वारा उसे धारा 83 का लाभ दिया गया।

लेकिन' अब्दुल सत्तार बनाम एम्परर के मामले में दुकानों के ताले तोड़ने के अपराध में धारा 83 का लाभ नहीं दिया गया, क्योंकि ताले तोड़ना परिपक्व समझ का परिचायक है।

वस्तुतः ऐसे मामलों में व्यक्ति की मानसिक स्थिति अधिक काम करती है और उसकी अपराधिकता भी मानसिक स्थिति पर ही निर्भर करती है।

कृष्ण भगवान बनाम स्टेट ऑफ बिहार के मामले में धारा 82 एवं 83 का मुख्य उद्देश्य शिशुओं को सुधरने का अवसर प्रदान करना रहा है।

इन दोनों ही धाराओं के अध्ययन से यह मालूम होता है कि कोई भी ऐसा काम जो सात वर्ष तक के बच्चे द्वारा किया जाता है वह अपराध नहीं माना जाएगा लेकिन सात वर्ष से ऊपर की आयु के बालक द्वारा किया गया कार्य अपराध माना जाएगा अगर ऐसा काम एक सामान्य परिवक्व समझ वाले बालक द्वारा किया गया है। अपराध की प्रकृति से ही यह प्रतीत हो जाता है कि यह एक परिवक्व सोच वाले व्यक्ति द्वारा किया गया है।

जैसे एक 11 वर्ष का बालक किसी व्यक्ति की चाकुओं से गोद कर हत्या कर देता है तब यह माना जाएगा कि यह कार्य एक परिपक्व सोच के रहते किया गया है और हत्या के आशय से ही किया गया है। ऐसे बालक पर बाल न्यायालय में प्रकरण चलाया जाएगा जो किशोर न्याय अधिनियम के तहत बनाए गए हैं जहां अभियुक्त को किशोर अपचारी कहा जाता है। बारह वर्ष के बाद किसी भी परिपक्व सोच पर विचार नहीं किया जाएगा। हालांकि बाल न्यायालय में प्रकरण 18 वर्ष तक के व्यक्तियों के चलाए जाते हैं।

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