संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 19: अप्राधिकृत व्यक्ति द्वारा अंतरण (धारा 43)

Update: 2021-08-12 15:00 GMT

संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 43 अप्राधिकृत व्यक्ति द्वारा अंतरण के विषय में उल्लेख कर रही है। इस धारा का अर्थ यह है कि यदि कोई व्यक्ति किसी संपत्ति का अंतरण उस समय कर देता है जिस समय वह इस प्रकार का अंतरण करने के लिए अधिकृत नहीं है परंतु बाद में वह संपत्ति का अंतरण करने के लिए अधिकृत हो जाता है तब इस अधिनियम के क्या प्रावधान होंगे वे सभी प्रावधान इस धारा में समाहित किए गए हैं।

इनसे संबंधित टीका इस आलेख पर प्रस्तुत किया जा रहा है। इससे पूर्व के आलेख में दृश्यमान स्वामी अर्थात धारा 41 से संबंधित प्रावधानों को प्रस्तुत किया गया था।

इस धारा में वर्णित सिद्धान्त को विबन्धन द्वारा अनुपोषण का सिद्धान्त कहा जाता है और यह अंशतः कामन लॉ के विलेख द्वारा विबन्धन के सिद्धान्त तथा अंशतः साम्या के सिद्धान्त कि- 'साम्या उसे किया हुआ मानती है जिसे किया जाना चाहिए था' पर आधारित है।

विलेख द्वारा विबन्धन-

यदि अन्तरण विलेख में, जिसे पक्षकारों के बीच तैयार किया गया है और जिसे उनकी मुहर द्वारा सत्यापित किया गया है किसी तथ्य का उल्लेख है और यह तथ्य सुनिश्चित, संक्षिप्त, स्पष्ट तथा अभिव्यक्त है तो उसके विरुद्ध कोई अन्य साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। इस सिद्धान्त को विलेख द्वारा विबन्धन का सिद्धान्त कहा जाता है।

साम्या का सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त में शामिल साम्या का सिद्धान्त प्रतिपादित करता है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी हैसियत से अधिक कार्य करने की प्रतिज्ञा करता है तो उसे तब अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए बाध्य किया जा सकेगा जब वह अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने की सामर्थ्य से युक्त हो जाएगा।

भारत में इन दोनों सिद्धान्तों में अन्तर नहीं रखा गया है। संपत्ति अन्तरण अधिनियम में इन्हें एक साथ वैधानिक स्वरूप प्रदान किया गया है।

क्षेत्र विस्तार - इस धारा में वर्णित सिद्धान्त वहाँ लागू होता है जहाँ अन्तरक अन्तरण के समय सम्पत्ति अन्तरित करने के लिए प्राधिकृत नहीं था, पर बाद में अन्तरित करने के लिए सक्षम हो जाता है।

यह सिद्धान्त निम्नलिखित मामलों में लागू नहीं होगा-

(क) अनैच्छिक अन्तरण जैसे निष्पादक ऋणदाता की इच्छा से विक्रय।

(ख) लोकनीति के आधार पर प्रतिषिद्ध अन्तरण।

(ग) प्रतिफल के बिना अन्तरण।

इस धारा के निम्नलिखित तत्व हैं-

(1) अन्तरक द्वारा कपटपूर्ण अथवा भूलवश व्यपदेशन कि वह कथित सम्पत्ति अन्तरित करने के लिए प्राधिकृत है।

(2) अन्तरण प्रतिफलार्थ हो।

(3) अन्तरक द्वारा उस सम्पत्ति का पाश्चिक अर्जन।

(4) किसी अन्य अन्तरितों को प्रतिफलार्थ सद्भाव में पूर्ववर्ती अन्तरितों के हितों को सूचना बिना सम्पत्ति अन्तरित न की गयी हो।

इस धारा के इन चारों महत्वपूर्ण तत्वों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।

1)- कपटपूर्ण अथवा भूलवश व्यपदेश-

यह आवश्यक है कि अन्तरक का आचरण कपटपूर्ण अथवा प्रभावपूर्ण हो इस आचरण द्वारा वह यह जाहिर करे कि उसे सम्पत्ति अन्तरित करने का अधिकार है। यदि ऐसे व्यपदेश के आधार पर वह किसी व्यक्ति को सम्पत्ति अन्तरित करता है तो अन्तरिती को इस सिद्धान्त का लाभ मिलेगा भले ही अन्तरिती भी इस प्रकार की प्रव्यंजना का भागीदार रहा हो। इस सिद्धान्त के लागू होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि अन्तरिती के साथ धोखा हुआ हो, क्योंकि इस धारा में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि अन्तरिती ने कपटपूर्ण अथवा भूलवश व्यपदेशन पर कार्य किया हो। अन्तरक द्वारा कपटपूर्ण अथवा भूलवश व्यपदेशन ही इस सिद्धान्त के लागू होने के लिए पर्याप्त है। अन्तरितों द्वारा अन्तरक के व्यपदेशन पर कार्य करना ही पर्याप्त होगा।

यदि अन्तरिती ने स्वयं सम्पत्ति के बारे में छानबीन की थी और उसने अन्तरक के व्यपदेशन पर विश्वास नहीं किया था तो यह नहीं कहा जा सकेगा कि वह अन्तरक के व्यपदेशन से भ्रमित हुआ था या उसे कोई क्षति पहुंची थी, परिणामस्वरूप इस धारा में उल्लिखित सिद्धान्त का लाभ उसे नहीं मिलेगा। यदि अन्तरिती इस तथ्य से भिन्न था कि अन्तरक सम्पत्ति अन्तरित करने के लिए प्राधिकृत नहीं है फिर भी उसने अन्तरक के व्यपदेशन के आधार पर सम्पत्ति को प्राप्त किया तो वह सिद्धान्त का लाभ पाने का अधिकारी नहीं होगा।

उदाहरण:-

(1) अ ब और स तीन व्यक्ति एक कम्पनी में बराबर के हिस्सेदार थे। अ तथा ब ने सम्पूर्ण सम्पत्ति द को इस प्रकार पट्टे पर दिया जैसे स का उस सम्पत्ति में कोई हिस्सा हो न हो। कुछ समय पश्चात् उसकी (स) मृत्यु हो गयी और मृत्यु से पूर्व उसने अपना हिस्सा अ तथा ब को दे दिया। द, स के हिस्से को पाने का हकदार होगा।

(2) अ ने अपनी पारिवारिक सम्पत्ति का आधा हिस्सा ब को बन्धक कर दिया, जबकि बन्धक के समय उसे सम्पत्ति में केवल एक तिहाई हिस्सा प्राप्त था। कुछ समय पश्चात् उसके पिता की मृत्यु हो गयी और अ आधी सम्पत्ति का स्वामी बन गया। अन्तरण के समय यह तथ्य ब को ज्ञात था। ब केवल एक तिहाई हिस्से का हो अधिकारी होगा। शेष भाग की मांग वह नहीं कर सकेगा

(3) अ को एक सम्पत्ति में सोरदारी अधिकार प्राप्त था। उसने 28.10.1961 को भूमिधरी अधिकार प्राप्त करने हेतु आवश्यक धनराशि जमा किया और उसी दिन अपना अधिकार "ब' को बेच दिया। भूमिधरी अधिकार प्रदान करने वाला प्रमाण पत्र 30.10.1961 को जारी हुआ अन्तरण की तिथि को 'अ' को भूमिधरी अधिकार नहीं प्राप्त था। 'अ' की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र ने 'ब' के अधिकारों को चुनौती दी।

उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया कि अन्तरक द्वारा बाद में अर्जित स्वत्व अन्तरिती पाने का अधिकारी है। 'ब' को इस धारा का लाभ मिलेगा।

(4) 'अ' की मृत्यु के पश्चात् उसकी सम्पत्ति उसकी तीन पुत्रियों 'क', 'ख' तथा 'ग' को उत्तराधिकार में सीमित हित के साथ प्राप्त हुई। उपभोग की सुविधा की दृष्टि से उन्होंने सम्पत्ति का आपस में बँटवारा कर लिया और प्रत्येक ने एक भाग अपने निजी कब्जे में ले लिया। 'क' ने अपना तथा अपनी दोनों बहिनों का अंश 'ब' के हाथ में बेच दिया। कुछ समय पश्चात् उसकी दोनों बहिनों की मृत्यु हो गयी और उसे उनका भी अंश मिल गया। 'क' को मृत्यु के उपरान्त उसके उत्तरभोगियों ने उसके द्वारा किये गये अन्तरण को इस आधार पर रद्द कराने का प्रयास किया कि 'ख' तथा 'ग' के हिस्सों के अन्तरण हेतु क्रमशः उनकी सम्मति नहीं ली गयी थी। उच्च न्यायालय में वे सफल रहे, किन्तु उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्णीत किया कि अन्तरिती धारा 43 का लाभ प्राप्त कर सकते हैं। चूँकि 'ख' तथा 'ग' की मृत्यु के पश्चात् मात्र 'क' जीवित थी अतः सम्पूर्ण सम्पत्ति उसकी हो गयी थी। अन्तरण आवश्यकता के आधार पर किया गया था, अतः अन्य बहिनों की सम्मति का प्रश्न उस समय समाप्त हो गया जब 'क' एकमात्र सीमित स्वामी रह गयी। अन्तरिती धारा 43 का लाभ पाने का अधिकारी माना गया है

(5) 'क' 'ख' का पुत्र जो 'ख' की स्त्रीधन सम्पत्ति को जिसका कि 'ख' स्वामी थी, कपटपूर्ण ढंग से हस्तान्तरित कर देता है। 'क' को 'ख' को स्त्रीधन सम्पत्ति किसी भी रूप में यथा उत्तराधिकार वसीयत उसके जीवनकाल में नहीं प्राप्त होती है। 'क' को मृत्यु के पश्चात् 'ख' की सम्पत्ति 'क' के उत्तराधिकारियों को उत्तराधिकार में प्राप्त होती है। 'क' के अन्तरिती इस धारा का लाभ उठाकर सम्पत्ति 'क' के उत्तराधिकारियों से नहीं प्राप्त कर सकेंगे। इस प्रावधान का लाभ अन्तरितों को तभी प्राप्त होगा जब कि सम्पत्ति अन्तरक को अन्तरक के जीवन काल में प्राप्त हो तथा अन्तरण की संविदा अस्तित्व में रहे।

यदि दोनों पक्षकारों को दोषपूर्ण स्वत्व का ज्ञान था या स्वत्व के अभाव का ज्ञान था तो इस धारा में वर्णित सिद्धान्त लागू नहीं होगा

जहाँ अन्तरण की विषयवस्तु अनन्तरणीय अधिकार वाली भूमिधरी सम्पत्ति हो तो, ऐसी सम्पत्ति का क्रेता सम्पत्ति में कोई अधिकार प्राप्त नहीं करेगा। अन्तरण की तिथि से ही पट्टेदार विक्रेता का उक्त सम्पत्ति पर अधिकार समाप्त हो जाएगा। ऐसी सम्पत्ति सरकार में निहित हो जाएगी।

भूमिधरी अधिकार के आधार पर विक्रेता स्थानापन्न की माँग नहीं कर सकेगा। ऐसे मामलों में धारा 43 का उपबन्ध प्रवर्तनीय नहीं होगा। इस प्रकार के पट्टे का सृजन राज्य भू सहिंता के अन्तर्गत एक विशिष्ट प्रयोजन हेतु किया जाता है। पट्टागृहीता से यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि ऐसी सम्पत्ति को वह प्रतिफल के एवज में हस्तान्तरित कर दे।

इसी लिए ऐसी सम्पत्ति के विक्रय पर प्रतिबन्ध लगा है। यदि सम्पत्ति का विक्रय, पट्टा सृजन के 10 वर्ष की अवधि के अन्दर किया गया है तो ऐसा विक्रय भू सहिंता के अन्तर्गत शून्य होगा। धारा 43 सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम का संरक्षण पट्टेदार के अन्तरितों को ऐसे मामलों में नहीं मिलेगा।

एन० वैंकटेशय्या बनाम मुनेम्मा एवं अन्य के प्रकरण में यह विवादित था कि यदि कोई व्यक्ति एक सम्पत्ति को सेवा पुरस्कार (सर्विस ईनाम) के रूप में धारण कर रहा था तथा कालान्तर में यह निर्णय हुआ कि विधि में संशोधन कर उसके इस अधिकार को पूर्ण अधिकार के रूप में परिवर्तित कर दिया जाए तो क्या निर्धारित तिथि एवं संशोधन के प्रवर्तित होने की तिथि के बीच सर्विस ईनाम धारक द्वारा सम्पत्ति का अन्तरण धारा 43 के प्रावधान से आच्छादित होगा।

उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्णीत किया कि यह अन्तरण धारा 43 से आच्छादित होगा तथा अन्तरितो को इसका लाभ प्राप्त होगा। अन्तरितो अनधिकृत धारक नहीं माना जाएगा और उसके विरुद्ध निष्कासन की कार्यवाही हो सकगी।

2. प्रतिफलार्थ अन्तरण-

इस में उल्लिखित सिद्धान्त केवल उन अन्तरणों में लागू होता है जो प्रतिफलार्थ किये गये हो प्रतिफल रहित अन्तरण जैसे दान इसके क्षेत्राधिकार से परे हैं। प्रतिफल की प्रकृति महत्वपूर्ण नहीं होगी। यह भूत का हो सकता है या वर्तमान या भविष्य में दिया जाने वाला हो सकता है। इसी प्रकार इसका भुगतान रुपये में हो सकता है या किसी अन्य विधिपूर्ण रीति से हो सकता है।

3. अन्तरक द्वारा बाद में अर्जित हित-

तीसरा आवश्यक तत्व यह है कि अन्तरक अन्तरण के पश्चात् अन्तरित सम्पत्ति में हित अर्जित करें। यह सम्पत्ति ही अनुपोषण की विषयवस्तु होगी। अन्तरक द्वारा बाद में अर्जित कोई अन्य सम्पति जो न तो अन्तरण की विषयवस्तु थी और न ही जिसे अन्तरित करने को प्रव्यंजना अन्तरक ने की थी अनुपोषण की विषयवस्तु नहीं होगी, भले ही इसकी प्राप्ति मिथ्याव्यपदेशन जाहिर होने के बाद हुई हो। इसी प्रकार यदि अन्तरक ने एक हैसियत से सम्पत्ति अन्तरित की थी तथा दूसरी हैसियत से सम्पत्ति अर्जित करता है जैसे न्यासी के रूप में तो भी यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा

अन्तरण के उपरान्त अन्तरक को मिलने वाली सम्पत्ति अन्तरण के अनुपोषण की विषय वस्तु होगी और यह महत्वपूर्ण नहीं होगा कि वह सम्पत्ति अन्तरितों के हितों को पूर्ण करने के लिए पर्याप्त है अथवा नहीं। जितनी भी सम्पत्ति उपलब्ध होगी वह अनुपोषण के लिए उपयोग में लायी जाएगी जब तक कि उसकी पूर्णतः संतुष्टि न हो जाए। यदि अनुपोषण हो जाने के पश्चात् कुछ अवशिष्ट बचता है तो यह अन्तरक की अपनी सम्पत्ति होगी।

उदाहरणार्थ 'अ' ने 'ब' को मकान का 1/2 हिस्सा देने की प्रव्यंजना की पर अन्तरण के समय मकान में केवल 1/4 भाग ही उसके पास था। बाद में सम्पूर्ण मकान उसने प्राप्त कर लिया। अन्तरितों को मकान में केवल 1/4 भाग ही और मिलेगा, क्योंकि 1/4 उसे पहले से ही प्राप्त हो चुका था. इस प्रकार (14) मकान में आधा भाग उसे मिल जाएगा और शेष अन्तरक के पास ही रहेगा।

इस धारा के प्रयोजनार्थ यह भी महत्वपूर्ण नहीं है कि अन्तरक किस प्रकार बाद में सम्पत्ति प्राप्त करता है, परन्तु यह आवश्यक है कि सम्पत्ति का अर्जन विधि पूर्वक हो। अन्तरक उत्तराधिकार। अन्तरण- नीलामी पंचाट या किसी अन्य प्रक्रिया द्वारा सम्पत्ति प्राप्त कर सकता है।

अन्तरण के उपरान्त अन्तरक द्वारा उपाप्त सम्पत्ति स्वतः अन्तरितों के पास उसके हितों को पूर्ति हेतु नहीं चली जाती है।

इसके पहले कि अन्तरिती अपने हितों की पूर्ति हेतु उस सम्पत्ति का उपयोग कर सके निम्नलिखित शर्तों का पूर्ण होना आवश्यक है:

(1) अन्तरिती का विकल्प- अन्तरक द्वारा उपात सम्पत्ति अन्तरितों के पास न तो स्वतः जाएगी और न ही उस पर थोपी जा सकेगी। सम्पत्ति का अन्तरक से अन्तरितों के पास पहुँचना अन्तरितों के विकल्प पर निर्भर करेगा। जब तक वह विकल्प का प्रयोग नहीं करेगा अथवा सम्पत्ति की मांग नहीं करेगा, सम्पति अन्तरक के पास ही रहेगी और अन्तरितों का उस सम्पत्ति में हित केवल समाश्रित हित रहेगा। इसका कारण यह है कि ऐसी स्थिति में अन्तरिती को मिलने वाला उपचार एकमात्र यही नहीं है। यदि यह चाहे तो अन्य विधियों जैसे हर्जाना या क्षतिपूर्ति या संविदा के विखण्डन द्वारा भी उपचार प्राप्त कर सकता है। वह अपनी इच्छानुसार अपने उपचार का चुनाव करता है। अपने इस विकल्प का प्रयोग अन्तरितों संविदा के अस्तित्व में रहने के दौरान कभी भी कर सकता है पर संविदा भंग के पश्चात् विकल्प का प्रयोग नहीं कर सकेगा।

(2) संविदा के अस्तित्व में रहने के दौरान-अन्तरितो द्वारा विकल्प का प्रयोग हो पर्याप्त नहीं है, अपितु यह भी आवश्यक है कि विकल्प का प्रयोग उस समय किया जाए जब अन्तरण की संविदा अस्तित्व में हो अर्थात् वह भंग न हुई हो। संविदा उस समय समाप्त हो जाती है जब अन्तरिती अपना उपचार किसी अन्य रीति से प्राप्त कर लेता है अथवा संविदा शून्य घोषित कर दी जाती है। उदाहरणस्वरूप, यदि उसने प्रतिकर या हर्जाना प्राप्त कर लिया है या प्राप्त सम्पत्ति वापस कर दिया है तो संविदा समाप्त मानी जाएगी और इसी के साथ हो अन्तरितो का सम्पत्ति प्राप्त करने का अधिकार भी समाप्त हो जाता है। जहाँ अन्तरितों ने अपने अधिकारों के प्रवर्तन हेतु न्यायालय से डिक्री प्राप्त कर लिए हैं, संविदा उस समय समाप्त समझी जाएगी जब डिक्री पूर्ण रूप से निष्पादित हो जाए। यदि संविदा मूलतः शून्य है तो उसे अस्तित्वयुक्त नहीं माना जाएगा।

जहाँ एक पट्टाकर्ता कोई सरकारी सम्पत्ति पट्टाधारी को प्रदान करता है और बाद में सरकार उस सम्पति को पट्टाकर्ता की सम्पत्ति घोषित कर देती है तो पट्टाकर्ता का पट्टा समाप्त हो जाएगा पर पट्टाधारी इस घोषणा का लाभ पाने का अधिकारी नहीं होगा क्योंकि पट्टाकर्ता को सम्पत्ति उसी हैसियत में नहीं प्राप्त हुई थी जिस हैसियत से उसने उसे अन्तरित किया था।

4. इस धारा का दूसरा पैराग्राफ स्पष्ट रूप से यह उल्लिखित करता है कि अन्तरिती अपने इस अधिकार का प्रयोग एक ऐसे अन्तरितों के विरुद्ध नहीं कर सकेगा जिसने सम्पत्ति को सद्भाव में से प्रतिफल प्राप्त किया हो तथा पूर्ववर्ती अन्तरिती के हितों का जिसे ज्ञान न रहा हो। यह अपवाद इस अवधारणा पर आधारित है कि पूर्ववर्ती अन्तरिती का विकल्प एक व्यक्तिगत विकल्प है, यह भूमि के साथ-साथ चलने वाला अधिकार नहीं है। इसलिए यदि पाश्चिक अन्तरिती को इस विकल्प का ज्ञान नहीं था और उसने सद्भाव में प्रतिफल देकर सम्पत्ति प्राप्त किया है तो विधि उसे संरक्षण प्रदान करेगी। इस प्रकार की स्थिति तब उत्पन्न होती है जब सम्पत्ति प्राप्त होने के तुरन्त बाद अन्तरिती अपने विकल्प का प्रयोग नहीं करता है। सम्पत्ति प्राप्ति और विकल्प के प्रयोग के बीच लम्बे अन्तराल की अवस्था में ही ऐसी स्थिति साधारणतः उत्पन्न होती है।

चेता बहेड़ा बनाम पूर्णचन्द्र के वाद में अन्तरक 'क' ने यह व्यपदेशन किया कि वह सम्पत्ति अन्तरित करने के लिए प्राधिकृत है जबकि वह प्राधिकृत नहीं था। उसने बन्धक द्वारा उस सम्पत्ति को एक व्यक्ति 'ख' के पक्ष में अन्तरित किया। बाद में सम्पत्ति 'क' को ही मिल गयी जिसे उसने एक अन्य व्यक्ति को 'ग' के पक्ष में अन्तरित कर दिया। 'ग' को पूर्ववर्ती संव्यवहार की सूचना नहीं थी। यह अभिनिर्णीत हुआ कि 'ग' इस पैराग्राफ का लाभ पाने का अधिकारी है। पूर्ववर्ती अन्तरिती को इस धारा के प्रथम पैरा का लाभ नहीं प्रदान किया गया।

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