एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 18: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत होने वाले दंडादेश निलंबन, परिहार या लघुकरण

Update: 2023-01-18 11:54 GMT

एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 32(क) एनडीपीएस एक्ट के तहत होने वाले दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण पर रोक लगाती है। यह प्रावधान इसलिए दिए गए हैं क्योंकि दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत किसी भी दंडादेश का निलंबन, परिहार या लघुकरण किया जा सकता है।

जैसा कि पूर्व में ही यह उल्लेख किया गया था कि यह अधिनियम भारत में लागू कठोर अधिनियमों में एक है इसलिए इस अधिनियम में धारा 32(क) का प्रावधान किया गया है। इस आलेख के अंतर्गत इस धारा विवेचना की जा रही है।

यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

धारा 32(क) इस अधिनियम के अधीन दिए गए किसी दंडादेश का निलंबन, परिहार या लघुकरण न होना- दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी, किंतु धारा 33 के उपबंधों के अधीन रहते हुए इस अधिनियम के अधीन (धारा 27 से भिन्न) दिए गए किसी दंडादेश का निलंबन या परिहार या लघुकरण नहीं किया जाएगा।

इस धारा में एनडीपीएस (संशोधन) अधिनियम, 2001 (क्रमांक 9 वर्ष 2001) के द्वारा संशोधन किया गया है। इस संशोधन को दिनांक 2-10-2001 से प्रभावी किया गया है।

अधिनियम की धारा 32 का निर्वाचन अधिनियम की धारा 36(ख) के प्रावधान की सहायता लेकर किया जाना चाहिए।

भक्तूल सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, एआईआर 1999 सुप्रीम कोर्ट 113111000 के मामले में धारा 32क के प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 432, 433 व 434 की शक्तियों पर अधिभावी अधिनियम की धारा 32क के प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 432, 433 व 434 की शक्तियों पर अधिभावी प्रभाव रखने वाला माना गया। अभियुक्त के एडवोकेट ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष इस बाबत चिंता व्यक्त की थी यदि हाई कोर्ट को किसी भी दशा में दंडादेश को निलंबित करने की शक्ति न होना माना जाएगा तो लंबे समय तक अपील विचाराधीन रहने पर घोर अन्याय की स्थिति निर्मित हो जाएगी।

सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में स्थिति स्पष्ट करते हुए यह अभिमत दिया कि इस समस्या का निदान संसद के पास है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट की रजिस्ट्री को यह निर्देश जारी किया कि एनडीपीएस एक्ट के तहत मामला होने पर अपील का निराकरण प्राथमिकता देकर शीघ्रता से किया जाए।

फिरोज बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र, 2010 क्रिलॉज 1025 बम्बई) के मामले में अधिनियम की धारा 32(क) के प्रावधान की संवैधानिकता को चुनौती दी गई। यह अभिमत दिया गया कि जहाँ तक यह प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 432,433 की शक्तियों को जो कि दोषसिद्ध व्यक्ति के दंडादेश को निलंबित करने, परिहार अथवा सारांशीकृत करने के संबंध में है संवैधानिक है। हालांकि अधिनियम की धारा 32(क) जहाँ तक अपीलीय कोर्ट को एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत दोषसिद्ध व्यक्ति के दंडादेश को निलंबित करने की शक्तियों को वर्जित करती है संवैधानिक होना नहीं कहा जा सकता है।

एक अन्य मामले में प्रावधान की संवैधानिकता को चुनौती दी गयी थी। प्रावधान उस सीमा तक असंवैधानिक है जहाँ तक यह कोर्ट के अधिनियम के अंतर्गत दोषसिद्ध व्यक्ति के दण्डादेश को निलंबित करने के अधिकार को परे करता है।

उमर अब्दुल शकूर बनाम इंटेलीजेंसी ऑफीसर नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, 1999 (3) क्राइम्स 204 सुप्रीम कोर्ट के मामले में प्रावधान का क्षेत्र स्पष्ट किया गया। धारा 32क के प्रावधान को दंड प्रक्रिया संहिता अथवा अन्य किसी विधि के प्रावधान के आधार पर निष्प्रभावी नहीं किया जा सकेगा।

राजस्थान हाई कोर्ट ने व्यक्त किया कि अधिनियम की धारा 32क की संवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट ने विचार किया था। इसे उस सीमा तक असंवैधानिक होना माना गया जहाँ तक यह दोषसिद्ध व्यक्ति को प्रदत्त दंडादेश को निलंबित करने के संबंध में न्यायालय की अधिकारिता को परे करती थी एवं जेल प्राधिकारियों के पेरोल प्रदान करने की शक्ति पर गैर-कानूनी वर्जन अधिरोपित करती थी। हालांकि यह स्पष्ट किया गया कि ऐसा किया जाना जेल मेन्युअल अथवा शासकीय निर्देश यदि कोई हो के अध्यधीन ही हो सकेगा।

दंडादेश निलंबन

विनोद कुमार बनाम एसके श्रीवास्तव, 2006 क्रिलॉज 1759 देहली के मामले में दंडादेश के निलंबन की प्रार्थना की गई थी। इसका विरोध शासकीय एडवोकेट ने किया था। शासकीय एडवोकेट ने निवेदन किया कि अधिनियम की धारा 32क के तहत, अधिनियम की धारा 33 के प्रावधानों के अध्यधीन रहते हुए, इस अधिनियम के तहत प्रदत्त कोई दंडादेश को निलंबित अथवा परिहार अथवा सारांशीकृत नहीं किया जाएगा। शासकीय एडवोकेट के द्वारा न्याय दृष्टांत पवन मेहता बनाम स्टेट, 2002 (1) जेसीसी 34:2002 क्रिलॉज 1933 पर निर्भरता व्यक्त की गई।

इस निर्णय में देहली हाई कोर्ट की एकल पीठ ने अधिनियम की धारा 25, 35 व 37 की विवेचना की थी। इसमें यह राय व्यक्त की गई थी कि अभिलेख पर रखी गई सामग्री के आधार पर यह संतोषप्रद रूप में नहीं कहा जा सकता है कि अभियुक्त प्रथम दृष्टया दोषी नहीं था। वर्तमान मामले में 7.180 किलोग्राम अफीम कार में पाई गई थी जिसमें अभियुक्तगण यात्रारत थे। विधि के प्रावधान के अनुसार उनका दोषी होने का आशय होना पाया गया। इसके अलावा अन्यथा यह राय दी गई थी कि अधिनियम की धारा 50 उस दशा में क्रियाशील होती है जबकि गिरफ्तार व्यक्तियों की व्यक्तिगत तलाशी को प्रभावी किया जाना हो।

अधिनियम की धारा 50 स्थल की तलाशी के संबंध में प्रयोज्य नहीं होती है। उपरोक्त देहली हाई कोर्ट के निर्णय में उच्चतम न्यायालय के निर्णय दादू उर्फ तुलसीदास बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र, 2000 क्रिलॉज 4619 एवं अब्दुल रसीद इब्राहीम मंसूरी बनाम स्टेट ऑफ गुजरात, 2000 (1) क्रिलॉज 1384 सुप्रीम कोर्ट पर निष्कर्ष पर पहुँचने में निर्भरता व्यक्त की गई थी। माननीय न्यायमूर्ति ने यह माना था कि विधायिका ने बुद्धिमानी से अभियुक्त पर प्रमाण भार डाला है और यह मात्र अधिसंभाव्यता की प्रबलता की परख द्वारा नहीं है, अपितु युक्तियुक्त संदेह से परे होना चाहिए।

जहाँ तक वर्तमान मामले का प्रश्न था इस मामले में ट्रक की बॉडी से छिपाए गए स्थल से 65.765 किलोग्राम हेरोइन जप्त हुई थी। इस मामले में अभियुक्त को विचारण के उपरांत पूर्व में ही सिद्ध व दंडादिष्ट किया जा चुका है। इसलिए उनके दोषी न होने के संबंध में प्रथम दृष्टया निष्वार्थ नहीं है। अभियुक्तगण गैर-मानवीय गतिविधियों में लिप्त है उनके साथ कोई उदारता नहीं बरती जा सकती है। परिणामतः दंडादेश के निलंबन की याचिका को निरस्तीयोग्य माना गया।

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